रा. सहारा, 3 सितंबर 2009 : जापान की संसद का जैसा चुनाव अभी हुआ, आधुनिक जापान के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ| भूकंपों के देश में यह पहला राजनीतिक भूकंप है| एकाध साल का अपवाद छोड़ दें तो जो ‘लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी’ पिछले 55 वर्षों से लगातार सत्तारूढ़ थी, उसका धराशायी हो जाना सिर्फ जापान ही नहीं, एशिया और विश्व की राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण घटना है| सत्तारूढ़ ‘लिडेपा’ को 480 में से सिर्फ 119 सीटें और 26.7 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि विरोधी ‘डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान ‘ को 308 सीटें और 42.4 प्रतिशत वोट मिले हैं| ‘डेपाज’ को किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है| वह अपने दम पर सरकार बनाएगी| वह दो-तिहाई बहुमत की खातिर एक-दो छोटी-मोटी पार्टियों से हाथ मिला सकती है लेकिन जापान की नई सरकार के प्रधानमंत्री बनेंगे-यूकिओ हातोयामा !
हातोयामा की पार्टी ‘डेपाज’ हमारी जनता पार्टी की तरह कई पार्टियों और नेताओं से मिलकर बनी है| जापान की ‘लिडेपा’ हमारी कांग्रेस की तरह है| ‘लिडेपा’ की हार 1977 में कांग्रेस की हार जैसी है लेकिन हातोयामा मोरारजी या चरणसिंह की तरह नहीं हैं| उनकी उम्र सिर्फ 62 साल है| उनकी तुलना हमारे चंद्रशेखर से की जा सकती है| चंद्रशेखर की तरह हातोयामा पहले कभी मंत्री भी नहीं बने| वे सीधे प्रधानमंत्री पद पर पहुंच गए| लेकिन उनके दादा जापान के प्रधानमंत्री और उनके पिता विदेश मंत्री रह चुके हैं| उनके भाई पिछले साल तक ‘लिडेपा’ सरकार में मंत्री थे| हातोयामा के नाना दुनिया की सबसे बड़ी टायर-कंपनी ‘बि्रजस्टोन’ के मालिक थे| स्वयं हातोयामा ‘लिडेपा’ के सांसद थे और उनके दादा ‘लिडेपा’ के संस्थापकों में से थे| ‘लिडेपा’ से बगावत करके हातोयामा ने ‘डेपाज’ बनाई और उसे अब उन्होंने सर्वोच्च मुकाम पर पहुंच दिया| हातोयामा ने अपने दादा की जगह हासिल जरूर की लेकिन भारत के युवराजों की तरह नहीं| उनकी पार्टी-अध्यक्ष या प्रधानमंत्र्ी की कुर्सी बाप-कमाई की नहीं, आप-कमाई की है| इसीलिए आशा की जाती है कि 64 साल से चले आ रहे ढर्रे को वे बदलने की भरपूर कोशिश करेंगे| वे जापान की मार्मिक छटपटाहट को मुखर करेंगे और उसे नई राह पर चलाएंगे| हातोयामा ने अपने चुनाव-अभियान के दौरान जापानी मतदाताओं से जो वादे किए हैं, अगर उन्हें पूरे कर दिए तो वे जापान के निर्मम पूजीवाद को मानवीय बनाने में जरूर सफल होंगे| उन्होंने मजदूरों के अधिकतम वेतन के निर्धारण, बूढ़ों की देखभाल की समुचित व्यवस्था, बच्चों की परवरिश का प्रबंध और बेरोजगारी पर प्रहार करने का वादा किया है| जापान में इस समय 100 में से 5-6 लोग बेकार घूम रहे हैं और बूढ़ों की संख्या निरंतर बढ़ती चली जा रही है| पारंपरिक जापानी समाज अपराधग्रस्त और तनावपूर्ण हो गया है| वे जापानी समाज को अमेरिकी अंधानुकरण से मुक्त करना चाहते हैं| वे स्वयं अमेरिका की स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग पढ़े हैं और एक पूजीपति परिवार के सदस्य हैं लेकिन उनका रूझान समाजवादी है| वे महापथों पर लगनेवाले कर और आयकर में भी ढील देंगे ताकि आम आदमी का जीवन ज़रा सरल हो सके| उनका मानना है कि राज्य की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा तो नेता और अफसर डकार जाते हैं| वे नेेताओं और अफसरों की सुदीर्घ मिलीभगत को ध्वस्त करेंगे| जापान में जितने प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में हटे हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हटे| चाहे राज लिबरल पार्टी का चलता रहे लेकिन तोक्यो में प्रधानमंत्री ताश के पत्तों की तरह बदलते रहे| आशा की जानी चाहिए कि हातोयामा अपनी अवधि पूरी करनेवाले दुर्लभ प्रधानमंत्री सिद्घ होंगे| संभावना यह है कि वे अपनी केबिनेट में लिबरल पार्टी के सांसदों को भी रखेंगे, क्योंकि उनकी पार्टी में योग्य और अनुभवी लोगों की कमी है| हातोयामा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, जापान की गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था को संभालना और बेरोजगारी दूर करना ! पूंजीवाद और समाजवाद का नया घोल, वे कैसे तैयार करेंगे, यह वे ही जानें| हातोयामा विदेश नीति के क्षेत्र् में भी नई पहल करने का दावा कर रहे हैं| पिछले 64 वर्षों में अमेरिका और जापान का संबंध संरक्षक और संरक्षित का रहा है| इस संबंध पर जापानी समाज का एक बड़ा तबका बहुत ही क्रुद्घ रहता है| उसकी शिकायत यह भी है कि अमेरिकी दादागीरी के कारण पारंपरिक जापानी मूल्यमान नष्ट होते जा रहे हैं| जापान को अमेरिका जितना फायदा पहुंचा रहा है, उससे ज्यादा उसका नुकसान कर रहा है| इसी विशेष संबंध के कारण जापान न तो अपनी स्वतंत्र् फौज रख सकता है, न परमाणु-बम बना सकता है और न ही अमेरिकी फौजी अड्रडों को अपनी जमीन से हटा सकता है| जापान स्वतंत्र् तो है लेकिन संप्रभु है या नहीं, यह प्रश्न भी हातोयामा अपने चुनाव अभियान में उठाते रहे हैं| अब प्रश्न यह है कि क्या वे 1960 के जापान-अमेरिकी सैन्य समझौते और प्रत्यर्पण संधि पर पुनर्विचार करेंगे ? उन्होंने यह भी कहा है कि एराक़ और अफगानिस्तान ने यह सिद्घ कर दिया है कि अमेरिका दुनिया की एकमात्र् महत्तम शक्ति नहीं है| विश्व-राजनीति अब बहुध्रुवीय हो गई है| क्या इसका अर्थ यह है कि नया जापान अमेरिका से ज्यादा चीन और आग्नेय एशिया की तरफ मुखातिब होगा ? ऐसे संकेत हातोयामा पहले ही दे चुके है| अपने संकल्प के मुताबिक अगर हातोयामा ‘परमाणु मुक्त विश्व’ का नारा देंगे तो सबसे पहले उन्हें दुनिया के सबसे बड़े परमाणु दादा अमेरिका पर ही उंगली उठानी पड़ेगी| अगर हातोयामा सचमुच कुछ पहल कर सके तो वे नेहरू के सपने को साकार करेंगे| वे विश्व-नेता बन जाएंगे| यद्यपि भारत के बारे में उनकी पार्टी के घोषणा पत्र् में पिछली बार की तरह इस बार विशेष उल्लेख नहीं है लेकिन वे भारत की उपेक्षा नहीं कर सकते| वे भारत के लोकतांत्रिक अनुभवों का लाभ तो उठा ही सकते हैं, वे भारत-जापान व्यापार को भारत-चीन व्यापार के स्तर पर ले जा सकते हैं| भारत के औद्योगीकरण में जापान अपूर्व भूमिका निभा सकता है| पिछली जापान सरकार की 90 अरब डॉलर की दिल्ली-मुंबई औद्योगिक बरामदे की योजना को परवान चढ़ाने के अलावा दोनों सरकारें अपना राजनीतिक सहकार इतना बढ़ा सकती हैं कि वे शीघ्र ही संयुक्तराष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सीटें पा जाएं| भारत और जापान यदि मिलकर काम करें तो संपूर्ण आग्नेय एशिया की शक्ल बदल सकते है| सबसे बड़ी बात तो यह है कि जापान अपने पिछलग्गूपन की कैंचुली उतारकर भारत की तरह पूर्ण संप्रभु राष्ट्र का बाना धारण कर सकता है|
जापान में सत्ता परिर्वतन के निहितार्थ
रा. सहारा, 3 सितंबर 2009 : जापान की संसद का जैसा चुनाव अभी हुआ, आधुनिक जापान के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ| भूकंपों के देश में यह पहला राजनीतिक भूकंप है| एकाध साल का अपवाद छोड़ दें तो जो ‘लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी’ पिछले 55 वर्षों से लगातार सत्तारूढ़ थी, उसका धराशायी हो जाना सिर्फ जापान ही नहीं, एशिया और विश्व की राजनीति के लिए भी महत्वपूर्ण घटना है| सत्तारूढ़ ‘लिडेपा’ को 480 में से सिर्फ 119 सीटें और 26.7 प्रतिशत वोट मिले हैं जबकि विरोधी ‘डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ जापान ‘ को 308 सीटें और 42.4 प्रतिशत वोट मिले हैं| ‘डेपाज’ को किसी गठबंधन की जरूरत नहीं है| वह अपने दम पर सरकार बनाएगी| वह दो-तिहाई बहुमत की खातिर एक-दो छोटी-मोटी पार्टियों से हाथ मिला सकती है लेकिन जापान की नई सरकार के प्रधानमंत्री बनेंगे-यूकिओ हातोयामा !
हातोयामा की पार्टी ‘डेपाज’ हमारी जनता पार्टी की तरह कई पार्टियों और नेताओं से मिलकर बनी है| जापान की ‘लिडेपा’ हमारी कांग्रेस की तरह है| ‘लिडेपा’ की हार 1977 में कांग्रेस की हार जैसी है लेकिन हातोयामा मोरारजी या चरणसिंह की तरह नहीं हैं| उनकी उम्र सिर्फ 62 साल है| उनकी तुलना हमारे चंद्रशेखर से की जा सकती है| चंद्रशेखर की तरह हातोयामा पहले कभी मंत्री भी नहीं बने| वे सीधे प्रधानमंत्री पद पर पहुंच गए| लेकिन उनके दादा जापान के प्रधानमंत्री और उनके पिता विदेश मंत्री रह चुके हैं| उनके भाई पिछले साल तक ‘लिडेपा’ सरकार में मंत्री थे| हातोयामा के नाना दुनिया की सबसे बड़ी टायर-कंपनी ‘बि्रजस्टोन’ के मालिक थे| स्वयं हातोयामा ‘लिडेपा’ के सांसद थे और उनके दादा ‘लिडेपा’ के संस्थापकों में से थे| ‘लिडेपा’ से बगावत करके हातोयामा ने ‘डेपाज’ बनाई और उसे अब उन्होंने सर्वोच्च मुकाम पर पहुंच दिया| हातोयामा ने अपने दादा की जगह हासिल जरूर की लेकिन भारत के युवराजों की तरह नहीं| उनकी पार्टी-अध्यक्ष या प्रधानमंत्र्ी की कुर्सी बाप-कमाई की नहीं, आप-कमाई की है| इसीलिए आशा की जाती है कि 64 साल से चले आ रहे ढर्रे को वे बदलने की भरपूर कोशिश करेंगे| वे जापान की मार्मिक छटपटाहट को मुखर करेंगे और उसे नई राह पर चलाएंगे|
हातोयामा ने अपने चुनाव-अभियान के दौरान जापानी मतदाताओं से जो वादे किए हैं, अगर उन्हें पूरे कर दिए तो वे जापान के निर्मम पूजीवाद को मानवीय बनाने में जरूर सफल होंगे| उन्होंने मजदूरों के अधिकतम वेतन के निर्धारण, बूढ़ों की देखभाल की समुचित व्यवस्था, बच्चों की परवरिश का प्रबंध और बेरोजगारी पर प्रहार करने का वादा किया है| जापान में इस समय 100 में से 5-6 लोग बेकार घूम रहे हैं और बूढ़ों की संख्या निरंतर बढ़ती चली जा रही है| पारंपरिक जापानी समाज अपराधग्रस्त और तनावपूर्ण हो गया है| वे जापानी समाज को अमेरिकी अंधानुकरण से मुक्त करना चाहते हैं| वे स्वयं अमेरिका की स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी से इंजीनियरिंग पढ़े हैं और एक पूजीपति परिवार के सदस्य हैं लेकिन उनका रूझान समाजवादी है| वे महापथों पर लगनेवाले कर और आयकर में भी ढील देंगे ताकि आम आदमी का जीवन ज़रा सरल हो सके| उनका मानना है कि राज्य की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा तो नेता और अफसर डकार जाते हैं| वे नेेताओं और अफसरों की सुदीर्घ मिलीभगत को ध्वस्त करेंगे| जापान में जितने प्रधानमंत्री भ्रष्टाचार के आरोप में हटे हैं, दुनिया के किसी भी देश में नहीं हटे| चाहे राज लिबरल पार्टी का चलता रहे लेकिन तोक्यो में प्रधानमंत्री ताश के पत्तों की तरह बदलते रहे| आशा की जानी चाहिए कि हातोयामा अपनी अवधि पूरी करनेवाले दुर्लभ प्रधानमंत्री सिद्घ होंगे| संभावना यह है कि वे अपनी केबिनेट में लिबरल पार्टी के सांसदों को भी रखेंगे, क्योंकि उनकी पार्टी में योग्य और अनुभवी लोगों की कमी है| हातोयामा के सामने सबसे बड़ी चुनौती है, जापान की गिरती हुई अर्थ-व्यवस्था को संभालना और बेरोजगारी दूर करना ! पूंजीवाद और समाजवाद का नया घोल, वे कैसे तैयार करेंगे, यह वे ही जानें|
हातोयामा विदेश नीति के क्षेत्र् में भी नई पहल करने का दावा कर रहे हैं| पिछले 64 वर्षों में अमेरिका और जापान का संबंध संरक्षक और संरक्षित का रहा है| इस संबंध पर जापानी समाज का एक बड़ा तबका बहुत ही क्रुद्घ रहता है| उसकी शिकायत यह भी है कि अमेरिकी दादागीरी के कारण पारंपरिक जापानी मूल्यमान नष्ट होते जा रहे हैं| जापान को अमेरिका जितना फायदा पहुंचा रहा है, उससे ज्यादा उसका नुकसान कर रहा है| इसी विशेष संबंध के कारण जापान न तो अपनी स्वतंत्र् फौज रख सकता है, न परमाणु-बम बना सकता है और न ही अमेरिकी फौजी अड्रडों को अपनी जमीन से हटा सकता है| जापान स्वतंत्र् तो है लेकिन संप्रभु है या नहीं, यह प्रश्न भी हातोयामा अपने चुनाव अभियान में उठाते रहे हैं| अब प्रश्न यह है कि क्या वे 1960 के जापान-अमेरिकी सैन्य समझौते और प्रत्यर्पण संधि पर पुनर्विचार करेंगे ? उन्होंने यह भी कहा है कि एराक़ और अफगानिस्तान ने यह सिद्घ कर दिया है कि अमेरिका दुनिया की एकमात्र् महत्तम शक्ति नहीं है| विश्व-राजनीति अब बहुध्रुवीय हो गई है| क्या इसका अर्थ यह है कि नया जापान अमेरिका से ज्यादा चीन और आग्नेय एशिया की तरफ मुखातिब होगा ? ऐसे संकेत हातोयामा पहले ही दे चुके है| अपने संकल्प के मुताबिक अगर हातोयामा ‘परमाणु मुक्त विश्व’ का नारा देंगे तो सबसे पहले उन्हें दुनिया के सबसे बड़े परमाणु दादा अमेरिका पर ही उंगली उठानी पड़ेगी| अगर हातोयामा सचमुच कुछ पहल कर सके तो वे नेहरू के सपने को साकार करेंगे| वे विश्व-नेता बन जाएंगे| यद्यपि भारत के बारे में उनकी पार्टी के घोषणा पत्र् में पिछली बार की तरह इस बार विशेष उल्लेख नहीं है लेकिन वे भारत की उपेक्षा नहीं कर सकते| वे भारत के लोकतांत्रिक अनुभवों का लाभ तो उठा ही सकते हैं, वे भारत-जापान व्यापार को भारत-चीन व्यापार के स्तर पर ले जा सकते हैं| भारत के औद्योगीकरण में जापान अपूर्व भूमिका निभा सकता है| पिछली जापान सरकार की 90 अरब डॉलर की दिल्ली-मुंबई औद्योगिक बरामदे की योजना को परवान चढ़ाने के अलावा दोनों सरकारें अपना राजनीतिक सहकार इतना बढ़ा सकती हैं कि वे शीघ्र ही संयुक्तराष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में स्थायी सीटें पा जाएं| भारत और जापान यदि मिलकर काम करें तो संपूर्ण आग्नेय एशिया की शक्ल बदल सकते है| सबसे बड़ी बात तो यह है कि जापान अपने पिछलग्गूपन की कैंचुली उतारकर भारत की तरह पूर्ण संप्रभु राष्ट्र का बाना धारण कर सकता है|
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