कश्मीर के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय ने वही बात कही है, जो उसने राम मंदिर-विवाद के बारे में कही है। मामला बातचीत से हल करें। यों तो अदालतें बनाई जाती हैं, दो-टूक फैसले देने के लिए लेकिन कई मामले इतने नाजुक होते हैं कि सबसे उंची अदालत के फैसले को भी लागू करना असंभव हो जाता है। ऐसे में अदालतें सत्परामर्श की शैली अपनाती हैं लेकिन इसका अर्थ यह भी हुआ कि सरकारें जब अपने कर्तव्य में विफल हो जाती हैं या किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं तो अदालतों को पीछे से उनकी मदद करनी पड़ती है। कश्मीर के मामले में जब वहां के वकील-संघ ने सर्वोच्च न्यायालय में नौजवानों पर छर्रें और गोलियां मारने का विरोध किया तो अदालत ने कहा कि आप पहले उनसे पत्थर फेंकना बंद करवाइए। जब तक पत्थर और छर्रे चलते रहेंगे, कोई बात नहीं चल सकती। अदालत की पहली बात तो बिल्कुल समझ में आती है लेकिन दूसरी बात नहीं। सरकार ने भी यही टेक लगा रखी है। वह भी सिर्फ ‘संविधान के दायरे’ में बात करना चाहती है। अदालत और सरकार दोनों काफी डरे हुए-से लग रहे हैं। दोनों की याददाश्त भी जरा कमजोर हो गई-सी लगती है। अटलजी का ‘इंसानियत का दायरा’ और नरसिंहरावजी का ‘असीम स्वायत्तता का दायरा’, इन दोनों दायरों को हम क्यों भूल गए हैं? ‘संविधान के दायरे’ से ये दोनों दायरे कहीं ज्यादा बड़े और गहरे थे। इन दोनों प्रधानमंत्रियों से मेरे घर बैठकर हुर्रियत के नेताओं ने फोन पर कई बार बात की थीं। बात ठीक रास्ते पर चल पड़ी थी लेकिन हर बार सत्ता परिवर्तन आड़े आ गया। अब यदि पत्थर और गोलियां चलती रहें और बात भी चलती रहे तो इसमें बुराई क्या है? बात चलाने का मतलब यह नहीं कि आपके लात चलाने पर प्रतिबंध है। आप ईंट का जवाब पत्थर से दें। फिर भी बात चलती रहे। कौरव और पांडव दिन भर युद्ध लड़ते थे और सूर्यास्त के बाद रोज बात करते थे या नहीं? बात करते वक्त आप ‘संविधान के दायरे’ में ही रहिए कोई उसके बाहर बैठकर बात करना चाहता है तो आप उसे करने क्यों नहीं देते? क्या आपकी सरकार और आपका संविधान इतने छुई-मुई हैं कि वे उनकी बात से ही छिन्न-भिन्न हो जाएंगे? समझ में नहीं आता कि यह 56 इंच का सीना कैसा है? यह ढाई इंच के मुंह के सामने इतना क्यों सिकुड़ जाता है?
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