दैनिक भास्कर, 28 जुलाई 2010| जब से कृष्णा-कुरैशी वार्ता विफल हुई है, भारत सरकार को पल्ले नहीं पड़ रहा है कि वह क्या करे? वह हतप्रभ है। दिग्भ्रमित है। वह आपस में लत्तम-धत्तम कर रही है। विदेश मंत्री और गृह सचिव आपस में रस्साकशी कर रहे हैं। पाकिस्तान से निपटने की बजाय वे एक-दूसरे से निपट रहे हैं।
अब संसद के इस सत्र में सरकार और विपक्ष में भी तलवारें खिंचेंगी। एक-दूसरे पर प्रहार होंगे, लेकिन कोई यह नहीं बता पा रहा है कि आखिर ऐसी कौन-सी नीति अपनाई जाए, जिससे 63 साल से चला आ रहा भारत-पाक गतिरोध भंग हो और ये दो पड़ोसी शांति से रह सकें।
आगरा, शर्म-अल-शेख और इस्लामाबाद की मिसाल देकर अब यह कहना गलत होगा कि दोनों देशों के बीच चल रही वार्ता बिल्कुल बंद कर दी जाए। वार्ता तो युद्धों के दौरान भी चलती रहती है। महाभारत में क्या होता था? सूर्यास्त के बाद पांडवों और कौरवों में रोज बात होती थी या नहीं? यह कहना भी ठीक नहीं कि जब तक सीमा-पार आतंकवाद चलेगा, बात नहीं होगी। क्यों नहीं होगी? जरूर होगी और जरा दो-टूक होगी। कोलमैन हेडली की कारस्तानी के जितने प्रमाण मिल रहे हैं, उनसे पाकिस्तान की बोलती बंद करने का मौका हमें मिल रहा है या नहीं? हमारे प्रमाणों और तर्को का असर दुनिया के अन्य देशों पर ही नहीं, पाकिस्तान की जनता पर भी होता है।
लेकिन हमारा पक्ष मजबूत होते हुए भी हम मात क्यों खा जाते हैं? इसलिए खा जाते हैं कि हम बोलते हुए ही नहीं, सोचते हुए भी हकलाते रहे हैं। हमारे नेता और अफसरों को चिकनी-चुपड़ी बातें करने की लत पड़ी हुई है। क्या आज तक हमने पाकिस्तानियों से कभी आगे होकर पूछा कि आप कब्जा किया हुआ कश्मीर कब खाली करेंगे? आप संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर अमल कब शुरू करेंगे? हम समझते हैं कि कश्मीर को दरी के नीचे छिपाए रखने से वह दब जाएगा। जरूरी है कि कश्मीर का मुद्दा पाकिस्तान उठाए, उससे ज्यादा जोर से हम उठाएं। कश्मीर की आजादी का जितना विरोधी भारत है, उससे कई गुना ज्यादा पाकिस्तान है। कश्मीरी पाकिस्तान के साथ कभी नहीं जा सकते।
इसी तरह आतंकवाद के सवाल पर भारत खुलकर क्यों नहीं बोलता? यदि पाकिस्तानी नेता कहते हैं कि आतंकवादी ‘गैर सरकारी तत्व’ हैं और उन पर उनका कोई काबू नहीं है तो भारतीय नेता उनसे यह क्यों नहीं कहते कि उन्हें काबू करने में हम आपकी मदद करेंगे और आपको मदद लेने में यदि संकोच है तो हमारी भी मजबूरी है, हम उन्हें सीधे काबू करेंगे। आतंकवादियों और उनके आकाओं की सफाई करने के लिए हम आपकी सहमति का इंतजार नहीं करेंगे। हम सीधी कार्रवाई करेंगे।
अंतरराष्ट्रीय कानून में इसे कहते हैं, हॉट परस्यूट। यह जितना आपका आंतरिक मामला है, उतना ही हमारा भी है। हमने आज तक सीधी कार्रवाई एक बार भी नहीं की। गीदड़-भभकी तक नहीं दी। यह कहने में भी भारत सरकार की जुबान लड़खड़ाती है कि हम आपके आतंकवादी अड्डों को उड़ा देंगे।
भारत की सरकारों ने कई सुनहरे मौके गंवा दिए। जब संसद पर सुबह हमला हुआ, तब यदि सूर्यास्त के पहले ही भारतीय जहाज पाकिस्तान के कुछ संदिग्ध अड्डों पर सांकेतिक हमला कर देते तो सारी दुनिया भारत की बहादुरी पर तालियां बजाती और पाकिस्तानी जनता यह समझ जाती कि उसकी सरकार के निकम्मेपन के कारण ही भारत को यह कार्रवाई करनी पड़ी है। मुंबई हमले के वक्त पाकिस्तान की जनता और फौज यह मानकर चल रही थी कि भारत अब ठोंकने ही वाला है, लेकिन हमारी सरकार जबानी जमा-खर्च करती रही। इसी का नतीजा है कि पाकिस्तान की सरकार चोरी और सीनाजोरी करती रहती है। लातों के भूत क्या बातों से मानते हैं?
अगर दिल्ली में कोई बहादुर सतर्क सरकार होती तो असमंजस में पड़ी नहीं रहती। जैसे ही संसद या मुंबई जैसा कांड होता, वह बयान बाद में जारी करती और फौजी कार्रवाई पहले करती। प्रवक्ता बाद में बोलता, बम पहले बोलते। इसका मतलब यह नहीं कि भारत युद्ध-पिपासु बन जाए या पाकिस्तानी जनता को नुकसान पहुंचाए। सिर्फ सांकेतिक कार्रवाई करे। यदि उसके बाद पाक युद्ध की हिमाकत करे तो फिर भारत क्यों डरे? उसने चार-चार युद्ध पहले भी लड़े हैं। दोनों राष्ट्रों के परमाणु संपन्न होने के बावजूद कारगिल युद्ध लड़ा है।
अगर युद्ध का सर्वथा निषेध है तो गरीब जनता के अरबों रुपए हर साल पानी में क्यों गलाए जा रहे हैं? फौज को विदा करें और पाकिस्तान के आगे दंडवत करें। पाकिस्तान को पता है कि हिंदुस्तान के नेताओं में इतना दम नहीं कि वे किसी भी मुद्दे पर युद्ध छेड़ सकें। युद्ध छेड़ने की हिम्मत अब तक हमेशा पाकिस्तान ने ही की है। वह कमजोर है, लेकिन जोरदार भारत को वही नाच नचाता है। ऐसा राष्ट्र, भला आपको बातचीत में भी नहीं पछाड़ेगा क्या? जिस दिन पाकिस्तान यह महसूस कर लेगा कि ‘पटरी पर आ जाऊं, वरना मेरी खैर नहीं’, उसी दिन से वह भारत की बात सुनने लगेगा। संसद पर हुए हमले के बाद वाजपेयी सरकार ने सीमांत पर जो फौजें भेजी थीं, उसका कुछ असर हुआ कि नहीं? मुशर्रफ ने आगे होकर पहल की।
2004 के दक्षेस सम्मेलन में द्विपक्षीय संयुक्त वक्तव्य जारी करवाया और वादा किया कि अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए नहीं होने देंगे। लेकिन अब चक्र घूमकर फिर 2004 के पहले पहुंच गया है। पाकिस्तान को अब अमेरिका और चीन की शह पहले से भी ज्यादा मिल रही है। इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि हिलेरी क्लिंटन इस्लामाबाद में खुलेआम कह रही हैं कि ओसामा और उमर कहां छिपे हैं, यह पाक सरकार को पता है। ऐसी सरकार को लगभग 60 हजार करोड़ रुपए आपने क्यों दे दिए? चीन उसे परमाणु भट्टियां दे रहा है।
आखिर क्यों? क्या भारत सरकार इन दोनों राष्ट्रों को यह नहीं कह सकती कि आपकी मदद पाकिस्तान की ‘गुंडई’ को बढ़ा रही है। अमेरिका जिसे ‘रोग नेशन’ (गुंडा राष्ट्र) कहता है, वह पाकिस्तान नहीं तो कौन है? यदि अमेरिका और चीन मिलकर पाकिस्तान का टेंटुआ न कसें तो भारत को इन दोनों राष्ट्रों से भी सहज संबंध बनाकर रखने की कौन सी मजबूरी है? हम अफगानिस्तान में अमेरिका के अनुचर बनकर क्यों रहें और तिब्बत व सिंक्यांग पर हम चुप्पी क्यों साधे रहें?
यदि इन दोनों महाशक्तियों को भारत के हितों की बिल्कुल भी चिंता नहीं है तो भारत इनसे कोई लिहाज-मुरव्वत क्यों बरते? यदि पाकिस्तान को पटरी पर लाना है, उसकी जनता की छाती पर से फौज को नीचे उतरवाना है और दक्षिण एशिया को सुरक्षित और संपन्न क्षेत्र बनाना है तो भारत को मनसा, वाचा, कर्मणा यह सिद्ध करना होगा कि वह डरपोक नहीं है। आज भी इंदिरा गांधी के नाम से पाकिस्तानियों की कंपकंपी छूटने लगती है। उस महान महिला ने 1971 में ऐसी ठुकाई की थी कि 27 साल (1998) तक कोई कारगिल नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में शक्ति का कोई विकल्प नहीं है। शक्तिरहित कूटनीति थोथा चना है।
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