Hindustan, 22 June 2011 : अफगानिस्तान से अपनी सुरक्षित वापसी की वेला में अमेरिका क्या-क्या पापड़ नहीं बेल रहा है। उसका सबसे ताजा पैंतरा यह है कि तालिबान और अल-क़ायदा में फूट डाल दी जाए। तालिबान और अल-क़ायदा को एक-दूसरे से अलग करने लिए अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में एक प्रस्ताव रखा, जिसका सभी 15 सदस्यों ने सर्वसम्मति से समर्थन कर दिया। प्रस्ताव यह था कि आतंकवादियों में अब फर्क किया जाए। अब तक प्रस्ताव 1267 के तहत अल-क़ायदा औरतालिबान दोनों संगठनों को आतंकवादी मानकर उनके विरूद्ध कड़े प्रतिबंध लगाए गए थे लेकिन अब उस सूची सेतालिबान को बाहर निकाला गया है और तालिबान और उससे जुड़े व्यक्तियों पर से भी प्रतिबंध उठा लिए जाएंगे।
अमेरिका ने यह पहल क्यों की? इसके तीन कारण दिखाई पड़ते हैं। पहला, तालिबान नेताओं के साथ अमेरिका की गुप्त वार्ता पिछले कई माह से चल रही है। दोनों पक्षों के वार्ताकार दुबई तथा यूरोपीय राजधानियों में गुपचुप मिलते रहे हैं। यह बातचीत सीधी है। इसमें बिचौलिए नहीं हैं। अफगान सरकार को भी इसकी पूरी जानकारी नहीं रहती है। अमेरिकी नीति-निर्माता महसूस कर रहे हैं कि तालिबान के साथ व्यवहार बनाए रखना उतना कठिन नहीं है, जितना कि दिखाई पड़ता है। दूसरा, उसामा बिन लादेन की हत्या ने अल़-क़ायदा की कमर तोड़ दी है। अमेरिका का मानना है कि जवाहिरी वगैरह उसामा की क्षतिपूर्ति नहीं कर सकते। उसामा ने तालिबान के साथ जैसे घनिष्ट संबंध बनाए थे, वैसे अब अल-क़ायदा किसी भी हालत में नहीं बना सकता। अल-क़ायदा पर अब तालिबान की निर्भरता निरंतर कम होती चली जाएगी। ऐसी स्थिति में दोनों में खाई डालना अब काफी आसान है।
तीसरा, अमेरिकी प्रशासन और हामिद करजई के बीच अविश्वास और तनाव निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। 2009 के राष्ट्रपति के चुनाव में अमेरिका ने काफी अधिक करजई-विरोधी रवैया अपना लिया था लेकिन ओबामा प्रशासन और करज़ई, दोनों ने वक्त की नज़ाकत को समझते हुए कदम से कदम मिलाकर चलना शुरू कर दिया था। अब जब से करजई को पता चला है कि अमेरिका तालिबान से सीधी बात कर रहा है और करज़ई को उसका सुराग भी नहीं लगने दे रहा है, करज़ई ने खुले-आम अमेरिका की निंदा शुरू कर दी है। अमेरिकी फौज द्वारा की जा रही ‘अंधाधुंध बमबारी’ और फैलाए जा रहे ‘प्रदूषण’ तथा ‘स्वार्थदोहन’ के बारे में आजकल करज़ई लगभग उसी भाषा का प्रयोग करने लगे हैं, जो तालिबान करते हैं। हो सकता है कि वे ऐसा इसलिए कर रहे हों कि अफगान-जनता की भावनाओं को मरहम लगे औरतालिबान को भी वे राजनीतिक पटकनी मार सकें लेकिन इसका उल्टा ज्यादा सही मालूम पड़ता है। वह यह कि करज़ई को शक हो गया है कि कहीं अमेरिका उनकी गद्दी पर तालिबान को तो नहीं बिठाना चाहता है ?
करज़ई का यह शक जायज हो सकता है। हालांकि करजई स्वयं पठान हैं लेकिन पिछले दस वर्षों में वे न तो तालिबान को पटा सके और न ही पटक सके। अब अमेरिका यह सोच सकता है कि काबुल के तख्त पर तालिबान को ही क्यों न बिठा दिया जाए ? तालिबान की ताजपोशी करके वह एक पत्थर से दो शिकार कर लेगा। एक तो अफगानिस्तान से उसकी सकुशल वापसी हो सकेगी और दूसरा पाकिस्तानी दखलंदाजी पर भी रोक लग सकेगी। तालिबान लोग मूलतः गिलजई पठान हैं। यदि पाकिस्तान इन पठानों के साथ छेड़छाड़ करेगा तो उसकी अपनी पठान जनता उसके खिलाफ बगावत का झंडा खड़ा कर देगी। काबुल में यदि तालिबान का वर्चस्व कायम हो जाता है या वे मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं तो अफगानिस्तान के पठानों को खुश करना आसान होगा, क्योंकि पठान लोगों के दिलों में तालिबान के लिए कुछ न कुछ सहानुभूति जरूर होती है। तालिबान के दोनों–मुद्दे इस्लाम भक्ति और विदेशी –विरोध सभी पठानों को प्रिय हैं।
अमेरिका का उक्त गणित यों तो काफी व्यवहारिक मालूम पड़ता है। लेकिन इसमें कई पेंच है। पता नहीं अमेरिकी-नीति-निर्माता उनसे अवगत हैं या नहीं। सबसे पहलीबात तो यह कि अल-क़ायदा की जड़े अभी उखड़ी नहीं हैं। उसामा के मारे जाने का असर विश्व के संपूर्ण आतंकवादी आंदोलन पर जरूर पड़ा है लेकिन हम यह न भूलें कि अब इस्लामी आतंकवादी काफी स्वायत्त हो गए हैं। पिछले चार-पांच साल में उसामा के छिपे रहने के कारण मूल अल-क़ायदा के कई टुकड़े हो गए। इसके अलावा अनेक देशों और क्षेत्रों में नए-नए जिहादी संगठन उठ खड़े हुए हैं। उन पर उसामा के रहने या जाने का कोई खास असर नहीं हुआ है। वे अपना काम करते रहेंगे।
दूसरा, पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा कि अल-क़ायदा का मूलोच्छेद हो जाए, क्योंकि पाकिस्तान उसका डर दिखाकर ही अमेरिका से डॉलर और हथियार वसूलता रहा है। इसके अलावा अल-क़ायदा की टक्कर पाकिस्तान नहीं, अमेरिका से रही है। उसामा -कांड ने अल-क़ायदा और पाक की सांठ-गांठ पर मुहर लगा दी है। अल-क़ायदा के साथ पाकिस्तानी तालिबान का चोली-दामन का साथ है।
तीसरा, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के तालिबान एक ही नहीं हैं। उनमें सद्भाव और सहयोग जरूर है लेकिन उनके लक्ष्य अलग-अलग हैं। उनका नेतृत्व अलग-अलग है। अफगान तालिबान पाकिस्तान की दादागीरी मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हैं। अपने शासनकाल (1996-2001) के दौरान अफगान तालिबान ने पाकिस्तान के लिए कई बार काफी सिरदर्द पैदा कर दिया था और वे अमेरिका के साथ मधुर संबंध बनाने का जुगाड़ भी बिठा रहे थे। जाहिर है कि इस बार अमेरिका सिर्फ अफगान तालिबान से बात कर रहा है।
चौथा, अफगान तालिबान भी अब एक रूप नहीं है। उनमें कई संगठन और कई नेता बन गए हैं। मुल्ला उमर के तालिबान ने अमेरिकी वार्ता का स्पष्ट विरोध किया है। पता नहीं, किन तालिबान नेताओं से अमेरिका बात कर रहा है। डर यही है कि तालिबान से बातचीत के बहाने अमेरिका करजई-सरकार को इतनी कमजोर न कर दे कि अफगानिस्तान में अराजकता फैल जाए। इस डर के बारे में सुरक्षा परिषद में भारतीय प्रतिनिधि हरदीप सिंह पुरी ने सारी दुनिया को भली-भांति सतर्क कर दिया है। अपनी फौजी वापसी की हड़बड़ी में ओबामा-प्रशासन कहीं वैसी ही गलती फिर न दोहरा दे, जैसी अमेरिका ने मुजाहिदीन शासन के दौरान की थी। सोवियत फौजों के लौटते ही उसने अफगानिस्तान से मुंह फेर लिया था। उसके बाद मुजाहिदीन अपने पांव पर टिक न सके और तालिबान आ गए। तालिबान से अब बात तभी होनी चाहिए जब करज़ई-शासन अपने पांव पर खड़ा हो।
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