दैनिक भास्कर, 15 जून 2013: तीसरे मोर्चे की खबर से अगर कांग्रेस खुश नहीं होगी तो कौन होगा? बिल्ली के भाग से छींका टूट रहा है| अगर तीसरा मोर्चा बना तो सबसे ज्यादा नुकसान उस पार्टी का होगा, जो कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती है| वह है, भाजपा! भाजपा के 24 में से सिर्फ चार सहयोगी दल रह गए थे| यदि अब तीसरा मोर्चा बना तो ये चार भी शायद चारों दिशा में दौड़ने लगें|
लेकिन असली सवाल यह है कि यह तीसरा मोर्चा आखिर क्यों बन रहा है? तीसरे मोर्चे में शामिल होनेवाले दलों का अपने-अपने प्रांतों में कांग्रेस से विरोध जगजाहिर है| वे कांग्रेस-गठबंधन में शामिल नहीं हो सकते| वे कांग्रेसी उम्मीदवारों को धराशायी करके ही सत्तारुढ़ हुए हैं| इन दलों में से कई भाजपा-गठबंधन में रहे हैं लेकिन वे नरेंद्र मोदी के कारण भाजपा से किनारा काटने को उतारु हो रहे हैं| मोदी से उन्हें क्या डर है? उन्हें डर यह है कि वे मोदीवाली भाजपा से हाथ मिलाएंगे तो उनके मुस्लिम वोट खटाई में पड़ जाएंगे| याने कुर्सी के लाले पड़ जाएंगे| उन्हें न मोदी से कोई मतलब है, न मुसलमानों से, न भाजपा से और न ही कांग्रेस से| उनके लिए कुर्सी ब्रह्म है और शेष सब कुछ मिथ्या है|
यदि यही सत्य है तो उन्हें अभी से भाजपा को अछूत घोषित क्यों कर देना चाहिए? नीतीश और शरद यादव को भाजपा से संबंध-विच्छेद क्यों कर देना चाहिए? यह शुद्घ जल्दबाजी और अपरिपक्वता होगी| मोदी को अभी भाजपा ने सिर्फ चुनाव अभियान का नेता चुना है| प्रधानमंत्र्ी पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है| पिछले दो चुनावों में भी जिन दो लोगों को यह पद दिया गया था, क्या वे भाजपा के प्रधानमंत्र्ी पद के उम्मीदवार थे? क्या प्रमोद महाजन और अरुण जेटली को किसी ने भी प्रधानमंत्र्ी पद का उम्मीदवार बताया था? यदि वे होते तो वे हारी हुई भाजपा के कम से कम संसदीय पार्टी के नेता तो बनते| वे नहीं बने| कोई और बने| इसी तरह यदि इस चुनाव में भाजपा जीतती है तो क्या जरुरी है कि मोदी ही प्रधानमंत्री बनें| ज़रा याद करें, अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो उस समय चुनाव अभियान का नेता कौन था? राम-मंदिर आंदोलन का शंखनाद किसने किया था? भाजपा के दिग्विजय-रथ का महारथी कौन था? लालकृष्ण आडवाणी! लेकिन प्रधानमंत्री कौन बना? वाजपेयी!
नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार जान-बूझकर घोषित नहीं किया जा रहा है| भाजपा-अध्यक्ष राजनाथसिंह अपनी चदरिया बड़े जतन से ओढ़े हुए हैं| उन्होंने सारे विकल्प खुले रखे हैं| यह तेवर पार्टी-एकता की दृष्टि से भी अनुकूल है और गठबंधन-एकता की दृष्टि से भी! यों भी भाजपा कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी तो है नहीं कि वह किसी भी नेता को रेशमी रुमाल की तरह जब से निकालकर हवा में फहरा दे| नेता कौन बनेगा, यह चुनाव के बाद तय होगा लेकिन यह अभी से तय हुआ जा रहा है कि भाजपा के लिए वोट कौन जुटाएगा| भाजपा के कार्यकर्ता मोदी के नाम पर उछलने लगते हैं| उन्हें विश्वास है कि आम जनता को भी सिर्फ मोदी ही दिखाई पड़ रहा है| देश की जनता कोई तगड़ा प्रधानमंत्री चाहती है| जनता की इस चाहत को डॉ. मनमोहन सिंह और सबल बना रहे हैं| वे मोदी के सबसे घनिष्ट मित्र साबित हो रहे हैं| रोज फूटनेवाले अरबों-खरबों के धांधले और उनके बारे में प्रधानमंत्री की उदासीनता ने मोदी-जैसे तेज-तर्रार नेता के भाव बढ़ा दिए हैं| देश की जनता मोदी को इसलिए नहीं चाहेगी कि वे ‘हिंदुत्व’ के प्रतीक बन गए थे, बल्कि इसलिए चाहेगी कि वे विकास और सुशासन के पर्याय बनते जा रहे हैं| इस समय देश के सामने ‘हिंदुत्व’ जैसे कोई मुद्रदा है ही नहीं| स्वयं मोदी आजकल हिंदुत्व की बजाय ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ (सब सुखी रहें, सिर्फ हिंदू ही नहीं) का नारा दे रहे हैं|
ऐसी स्थिति में जनता दल (यु.) के लिए भाजपा-गठबंधन से अलग होने का कोई कारण नहीं है| बिहार में सरकार चलाने के लिए उसे चार विधायक कहीं से भी मिल जाएंगे लेकिन क्या वह अगले चुनाव में अपने दम पर बहुमत ला सकेगी| जद और भाजपा ने संयुक्त मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ा, इसलिए दोनों दलों ने लालू और कांग्रेस का सफाया किया| अब जद यदि भाजपा को अलग करती है तो वह क्यों नहीं अभी इस्तीफा देकर अपने दम पर चुनकर आती है? जद और भाजपा की फूट के बाद क्या जद को यह विश्वास है कि अगले साल संसद में वह 20 उम्मीदवारों को जिता लाएगी? वह यह जुआ क्यों खेले?
यों भी फिलहाल भाजपा का नक्शा कैसा है? वह कमजोर हुई है या मजबूत? आडवाणी के इस्तीफे और उसकी वापसी ने भाजपा की छवि को जो धक्का लगाया था अब उस कीचड़ में से नेतृत्व के नए समीकरण का कमल खिलने की संभावना बन गई है| इस समय नरेंद्र मोदी वोटखेंचू नेता होंगे और आडवाणी गठबंधनजोड़ू नेता! गोआ में जो पुल टूटता दिखाई पड़ रहा था, वह अब नए गठजोड़ का संदेशवाहक बन गया है| भाजपा के इस आड़े वक्त में संघ ने टेका लगाया| चुनाव-परिणाम तय करेंगे कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? वोंटखेंचू या गठबंधनजोड़ू? जिसके पास ज्यादा सीटें होंगी, लोग उसे ही प्रधानमंत्री चुनेंगे| यह खेल सत्ता का है, विचारधारा और व्यक्तित्वों का नहीं|
इसीलिए आडवाणीजी को भी धैर्य रखना होगा (जैसे अटलजी ने रखा था) और गठबंधन के घटकों को भी! तीसरा मोर्चा किसी विचारधारा के आधार पर नहीं, वोटों के गणित पर उछल रहा है| इसीलिए वामपंथियों को कोई पूछ तक नहीं रहा है यदि मोदी अपने अभियान में सफल होते हैं और 200 से ऊपर सीटें ले जाते हैं तो वे ही नए-पुराने घटक दौड़े चले आएंगे और ‘मोदी शरणम गच्छामि’ का पाठ करने लगेंगे| यदि वे हिंदुत्व बनाम सांप्रदायिकता का धु्रवीकरण करना चाहेंगे तो वे मोदी के मनमोहनसिंहजी से भी बड़े मददगार साबित होंगे| ऐसे में मोदी की पहुंच भाजपा राज्यों के पार भी तेजी से फैल सकती है और वह ‘मोदी लहर’ तीसरे मोर्चे को अपने-अपने तटों पर ही डुबो सकती है| अगर तीसरा मोर्चा बनता है तो उसमें एक नहीं, कई मोदी होंगे और अपने-अपने ढंग के होंगे| देश को अब जैसी सुद्दढ़ और स्वच्छ सरकार चाहिए, वह या तो कोई बड़ी लहर लाएगी या कोई बड़ा गठबंधन! तीसरा मोर्चा, क्या अपने दम पर सरकार बना सकता है? उसे कांग्रेस या भाजपा से मिलना ही होगा| बाद में नाक कटाने से पहले हाथ मिला लेना ज्यादा अच्छा है|
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