राष्ट्रीय सहारा, 31 मई 2005 : पिछले हफ्ते घटी एक घटना पर दुनिया का बहुत कम ध्यान गया| वह घटना थी-बाकू-तिबिलिसी-सीहान- पाइपलाइन की स्थापना ! कुछ देशों के बीच तेल या गैस की पाइपलाइन बिछ जाए तो क्या वह इतनी बड़ी घटना हो जाती है कि राजनीतिक विश्लेषकों को उस पर ध्यान देना चाहिए? जी हां, यह वैसी ही घटना है| 1770 कि.मी. लंबी इस पाइपलाइन पर लगभग 20 हजार करोड़ रु. खर्च हुए हैं| केस्पियन समुद्र और उसके तटों से निकलनेवाले दस लाख बेरल तेल को वह प्रतिदिन यूरोप पहुंचा सकती है| अब तक यह तेल रूस की पुरानी पाइपलाइन से भेजा जाता था लेकिन अब यह नई पाइपलाइन इस इलाके में नई राजनीति का सूत्रपात करेगी| रूस का कहना है कि यह पाइपलाइन अर्थलाभ के लिए नहीं, सत्तालाभ के लिए बनाई गई है| यह पाइपलाइन बि्रटेन की प्रसिद्घ तेल कम्पनी ‘बीपी’, अमेरिका की ‘यूनोकल’, जापान की ‘इतोचू’ और अज़रबेजान की ‘सोकार’ आदि ने मिलकर बनाई है|
यह सर्वविदित है कि तेल और गैस के अरब खजाने अब खाली होते जा रहे हैं और उनकी जगह मध्य एशिया और केस्पियन क्षेत्र नए स्रोतों की तरह उभर रहे हैं| याद रहे कि अभी 15 साल पहले तक ये सारे इलाके सोवियत संघ के कब्जे में थे| इन इलाकों में पैदा होनेवाले खनिजों पर तो मास्को का अधिकार था ही, कुछ ऐसी दूरंदेशी व्यवस्था भी की गई थी कि अगर ये क्षेत्र आजाद हो जाएं तो भी अपनी मूल आमदनी के लिए रूस पर निर्भर रहें| रूस की अनुमति के बिना ये राष्ट्र आजाद होने के बावजूद स्वतंत्र व्यापार नहीं कर सकते थे| उनके तेल और गैस रूसी पाइपलाइनों से ही यूरोप, अमेरिका और आग्नेय एशिया तक पहुंचते थे| इसी कारण रूस से आजाद होने के बावजूद इन राष्ट्रों को अपने पुराने मालिक के साथ अनेक दबावकारी समझौते करने पड़ते थे| उनकी आर्थिक हानि तो होती ही थी, उन्हें राजनीतिक दबाव भी सहने पड़ते थे| जॉर्जिया, तुर्कमेनिस्तान और उज़बेकिस्तान के साथ छिड़े रूसी विवादों को सारी दुनिया ने देखा-सुना भी ! ऐसी स्थिति में अमेरिका ने ऐसी सुदीर्घ रणनीति बनाई कि इन ऊर्जावान देशों को रूसी शिकंजे से तो बाहर लाया ही जाए, उनके ऊर्जा-स्रोतों का भी जमकर दोहन किया जाए| यह बाकू-तिबिलिसी-सीहान – पाइपलाइन उसी दिशा में बढ़ा हुआ पहला कदम है|
ऐसा नहीं है कि इस पाइपलाइन से या अमेरिका की छत्रछाया में जाने से इन राष्ट्रों की चांदी हो जाएगी| रूस का तर्क यह है कि अमेरिका की शै पर बन रही ये पाइपलाइनें गैस और तेल के भाव आसमान पर चढ़ा देंगी| सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि इतना तेल है ही कहां कि उसके लिए इतनी बड़ी पाइपलाइन डाली जाए| अभी मुश्किल से 2.8 करोड़ टन तेल निकलने की संभावना है जबकि 6 करोड़ टन की पाइपलाइन डाल दी गई है| अभी जो तेल रूसी पाइपलाइन के जरिए जाता है, वह सवा करोड़ टन भी नहीं है? यह चार-पांच गुना खर्च कौन भुगतेगा? इसी प्रकार अमेरिका वह पाइपलाइन भी नहीं बनने दे रहा है, जो ईरान होकर खाड़ी में जाती है| यदि ईरानी पाइपलाइन से मध्य एशियाई तेल भेजा जाए तो वह साठ सेंट का एक बेरल पड़ेगा जबकि अभी उसकी क़ीमत पॉंच से आठ डॉलर प्रति बेरल होगी| तेल की बढ़ी हुई कीमतों से उत्पादक-देशों को नहीं, पाइपलाइन चलानेवाले देशों को लाभ होगा| रूस के इन तर्कों को अमेरिकी विशेषज्ञ निराश प्रेमी की बेजा बातें कहकर रद्द कर रहे हैं लेकिन यह सत्य है कि इस तेल कूटनीति के पीछे अमेरिका का मुख्य लक्ष्य रूस का सैन्य-घेराव करना है और अपने लिए ऊर्जा के ऐसे स्रोतों को सुरक्षित कर लेना है जो सदा उसके काबू में रहें| जाहिर है कि अज़रबेजान, जॉर्जिया, तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान और उज़बेकिस्तान जैसे छोटे-मोटे देश संकट की किसी भी स्थिति में चूं-चपड़ नहीं कर सकते| रूस की तरह आंखें नहीं दिखा सकते| इसके अलावा इनकी अपनी कोई क्षेत्रीय राजनीति नहीं है, जैसी कि रूस की है| रूस ने सोवियत संघ के भंग होते ही अपने पूर्व-उपनिवेशों का ‘स्वतंत्र राज्यों का राष्ट्रकुल’ बना लिया था| इस नई पाइपलाइन ने इस राष्ट्रकुल को खतरे में डाल दिया है|
इस नई पाइपलाइन को, जिसे बीटीसी पाइपलाइन भी कहा जाता है, सुरक्षित रखने के लिए अमेरिका फिलहाल एक त्रिपक्षीय सैन्य-गठबंधन बनाने की भी कोशिश कर रहा है| इसका नाम है – केस्पियन गार्ड्रस ! इसके अंतर्गत अज़रबेजान, कजाकिस्तान और अमेरिका मिलकर पाइपलाइन के सहारे-सहारे अपने फौजी जवान तैनात करेंगे| पाइपलाइन की सुरक्षा के बहाने यह सैन्य-गठबंधन तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान और तुर्की को भी अपने साथ जोड़ लेगा अर्थात्र रूस की नाभि के नीचे अमेरिकी सैनिक बैंड बजने लगेगा| यों भी अमेरिका ने उज़बेकिस्तान, किरगिजिस्तान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अपने सैनिक अड्डे पहले से बना रखे हैं| वास्तव में ‘रूसी राष्ट्रकुल’ और चीनी ‘शंघाई सहयोग परिषद्’ का एक साथ जवाब देने का इससे अच्छा बहाना अमेरिका को क्या मिल सकता था| अमेरिका कोई ऐसा मौका नहीं चूकना चाहता, जिसके कारण रूस और चीन की दुविधा बढ़े| अभी द्वितीय महायुद्घ के यादगार समारोह में मास्को जाने के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने रूस के लातविया, लिथुआनिया और एस्तोनिया जैसे पूर्व साथी-राष्ट्रों के जख्म कुरेदने की पूरी कोशिश की| जॉर्जिया में रूस-विरोधी तत्वों को हवा देकर अमेरिका ने अभी कुछ दिन पहले जबर्दस्त उथल-पुथल मचवा दी थी|
रूस भी चुप नहीं बैठा है| बीटीसी पाइपलाइन के उद्रघाटन समारोह में रूस का कोई भी प्रतिनिधि नहीं गया जबकि अज़रबेजान, कजाकिस्तान, जॉर्जिया और तुर्की के राष्ट्रपति उपस्थित थे| अमेरिका और बि्रटेन के मंत्री भी थे| रूस ने अपनी अनुपस्थिति के जरिए अपना विरोध दर्ज किया है| रूस और चीन मिलकर उज़बेकिस्तान के नेता इस्लाम करीमोव का डटकर समर्थन कर रहे हैं ताकि वह अमेरिका के शिकंजे से बाहर निकले| करीमोव ने ‘गुय्याम’ नामक उस क्षेत्रीय संगठन से भी इस्तीफा दे दिया है, जो अमेरिका के इशारे पर रूस के घेराव के लिए खड़ा किया जा रहा है| करीमोव ने चीन और रूस के साथ तेल और गैस की खुदाई के लिए अरबों रु. के समझौते भी हाल ही में किए हैं| इसी प्रकार कजाकिस्तान के साथ तेल-परिवहन के दीर्घकालीन समझौता करने के लिए भी रूस कटिबद्घ है| रूस और चीन मिलकर यदि तुर्कमेनिस्तान को पटा लें तो ईरानी पाइपलाइन के खुलने में भी ज्यादा देर नहीं लगेगी| अमेरिकी तेल कूटनीति के लिए यह गहरा धक्का माना जाएगा| ईरान तक आई हुई पाइपलाइन अगर अफगानिस्तान और पाकिस्तान होती हुई भारत पहुंच जाए तो वह दक्षिण एशिया की राजनीति को एकदम रूपांतरित कर सकती है लेकिन क्या अमेरिका ऐसा होने देगा? भारत, रूस और चीन को मिलकर इस विषय पर विचार करना होगा|
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