नवभारत टाइम्स, 10 मार्च 2007 : पाकिस्तान के प्रति भारत का रवैया क्या हो ? सहयोग का हो या विरोध का हो ? एक तरफ अमेरिका पाकिस्तान को धमकियाँ दे रहा है और दूसरी तरफ हम उसके साथ सहयोग की पींगें बढ़ा रहे हैं| इधर दोनों देशों के विदेश सचिव मिल रहे हैं, पाक विदेश मंत्र्ी खुर्शीद महमूद कसूरी भारत आकर अभी लौटे हैं, दोनों देशों के आतंकवाद-विरोधी संयुक्त-तंत्र् की बैठकें हो रही हैं| उधर अमेरिका के उपराष्ट्रपति डिक चेनी इस्लामाबाद जाकर जनरल मुशर्रफ को दो-टूक शब्दों में चेतावनी दे रहे हैं कि अगर वे तालिबान पर हमला नहीं बोलेंगे तो अमेरिका सीधी कार्रवाई करेगा, अमेरिकी काँग्रेस में रिपब्लिकनों और डेमोक्रेटों, दोनों ने कह दिया है कि अगर पाकिस्तान तालिबान का उन्मूलन नहीं करेगा तो वे उसको दी जानेवाली सहायता रोक देंगे, डिक चेनी इस्लामाबाद के बाद काबुल गए और उन्होंने अफगान राष्ट्रपति हामिद करज़ई के इस आरोप को सच बताया कि तालिबान पाकिस्तान में फल-फूल रहे हैं और वहीं से वे काबुल पर हमला बोल रहे हैं| पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच आरोपों और प्रत्यारोपों की झड़ी लगी हुई है| यह स्थिति बहुत विरोधाभासी है| ऐसे में यह सवाल पूछा जा रहा है कि भारत क्या करे ? क्या वह भी पाकिस्तान को धमकी और चेतावनी देना शुरू कर दे ? जैसे अमेरिका उसे अफगानिस्तान के कारण दबा रहा है, वैसे ही भारत उसे कश्मीर के कारण क्यों न दबाए ? अफगानिस्तान और कश्मीर में क्या फर्क है ? एक बायाँ हाथ है तो दूसरा दायाँ हाथ है| दोनों आतंकवादी हाथ एक ही शरीर के अभिन्न अंग हैं| दोनों एक-दूसरे की मदद करते हैं| यहाँ उल्लेखनीय यह है कि अमेरिका सिर्फ अफगान-तरफ के आतंकवाद की परवाह करता है और कश्मीर-तरफ के आतंकवाद पर आँख मूँद लेता है| ऐसे में भारत को अपने राष्ट्रहित की चिंता करनी चाहिए या नहीं ?
बजाय इसके कि भारत अमेरिकी की तरह पाकिस्तान को सीधी कार्रवाई की चेतावनी दे, उसने पाकिस्तान को अपने बराबर बिठा लिया है| अत्याचारी और अत्याचारग्रस्त दोनों एक ही दरी पर बैठे हैं| सारी दुनिया जबकि पाकिस्तान को विश्व-आतंकवाद का गढ़ घोषित कर रही है, हम उससे सम्वाद कायम करने में जुटे हुए हैं| हम कहीं कोई स्वर्णिम अवसर तो नहीं खो रहे हैं ? अगर अमेरिका पाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से पर टूट पड़ने को उतावला हो रहा है तो हम उसके पूर्वी हिस्से पर क्यों न टूट पड़ें ? हम समस्त आतंकवादी शिविरों को ध्वस्त क्यों न कर दें ? सारे विश्व, यहाँ तक कि मुस्लिम राष्ट्रों को भी हमारा पक्ष लेना पड़ेगा| यदि हम पाकिस्तान के विरुद्घ अभी कार्रवाई नहीं करेंगे तो कब करेंगे ? पाकिस्तान के दिल में यह अंदेशा जमकर बैठ गया है, इसीलिए वह तरह-तरह के संवाद कायम करने पर जोर दे रहा है? ये उसकी टाइम पास करने की तरकीबें हैं| ज्यों ही अमेरिकी पारा उतरा कि पाकिस्तान कश्मीरी आतंकवादियों को स्वाधीनता सेनानी कहना शुरू कर देगा ! भारत को तोड़ने और कश्मीर को छीनने का अभियान वह दुबारा चला देगा|
ये शंकाएँ और ये तर्क निराधार नहीं हैं| स्वाभाविक हैं लेकिन किसी भी नीति-निर्माता के लिए यह जरूरी है कि वह अपनी शंकाओं के पिंजरे में खुद को बंद न कर ले और तर्कों के पार देखने का माद्दा न खो दे| इसके पहले कि भारत पाकिस्तान के विरुद्घ उग्र तेवर अपनाए, उसे कई मुद्दों पर ध्यान देना होगा| सबसे पहले तो यह कि पाकिस्तान की नज़र में भारत और अमेरिका एक-जैसे नहीं हैं| यह ठीक है कि पाकिस्तानी लोकमत आजकल अमेरिका के विरुद्घ है लेकिन यह पाकिस्तान का स्थायी-भाव नहीं है| अमेरिका के पक्ष और विपक्ष में पाकिस्तान का पैंडुलम इधर से उधर डोलता रहता है| जहाँ तक भारत का सवाल है, उसका विरोध पाकिस्तान का स्थायी-भाव है| यदि पाकिस्तान के आतंकवादियों पर अमेरिका सीधा हमला कर दे तो पाकिस्तान में उसका जमकर विरोध होगा तो डटकर समर्थन भी होगा लेकिन भारत हमला कर दे तो विरोध के अलावा कुछ नहीं होगा| आतंकवादियों के घनघोर-विरोधी और भारत के मित्रें को भी अपने होठों पर ताला डालकर रहना होगा| उसे कश्मीर को हड़पने और पाकिस्तान को तोड़ने की कार्रवाई मानी जाएगी| आनेवाले कई दशकों तक फौज का शिकंजा मजबूत हो जाएगा| पाकिस्तानी लोकतंत्र् की जड़ें उखड़ जाएँगी| इसके अलावा भारत के साथ पाकिस्तान का पूर्ण युद्घ भी छिड़ सकता है| प्रक्षेपास्त्रें और परमाणु बमों के छूटने की नौबत भी आ सकती है| जबकि अमेरिका के विरुद्घ पाकिस्तान क्या कर सकता है ? मुत्तहिदा और जमाते-इस्लामी के कट्टटरपंथी नेता दस-बीस प्रदर्शन आयोजित करके ठप्प हो जाएँगे, अमेरिकी दूतावास में आग लगा देंगे और कुछ आतंकवादी अमेरिकी सैनिक अड्डों पर आत्मघाती हमले कर देंगे लेकिन पाकिस्तानी सरकार, फौज और सत्तारूढ़ नेताओं को अमेरिकी कार्रवाई का समर्थन करना पड़ेगा| अमेरिका की सीधी कार्रवाई को आतंकवाद-विरोधी विश्व-अभियान का हिस्सा माना जाएगा जबकि यदि भारत वैसी ही कार्रवाई करेगा तो क्या उसे शुद्घ आतंकवाद-विरोधी कार्रवाई माना जाएगा ?
भारत की इस मजबूरी को अगर हम सही ढंग से पहचान लें तो हमारे विकल्प अपने आप बदल जाएँगे| हम मुशर्रफ की मजबूरी का तात्कालिक फायदा उठाने की बजाय अपनी विदेश नीति के दीर्घकालिक हितों के संपादन में जुट जाएँगे| मुशर्रफ की मुसीबतों पर सहानुभूति से गौर करेंगे और संपूर्ण दक्षिण एशिया के दूरगामी और व्यापक प्रबंधन पर ध्यान देंगे| सबसे पहले तो हम अमेरिकी कार्रवाई का स्पष्ट समर्थन करें, यह जरूरी है लेकिन उन्हें यह भी बता दें कि तालिबान का उन्मूलन फौजी कार्रवाई से नहीं होगा| अमेरिका के लिए फौजी कार्रवाई का मतलब है, हवाई बम-वर्षा ! खंदकों, खाइयों और पहाड़ी पठारों के नीचे छिपे छापामारों तक ये प्रक्षेपास्त्र् और बम पहुँचते ही नहीं हैं| ये अक्सर नागरिक बस्तियों पर गिर पड़ते हैं, जिनके कारण अमेरिका-विरोधी ज्वार उठ खड़ा होता है| इसके अलावा तालिबान के पास अब आधुनिक हथियारों की भी कमी नहीं है| दुनिया की 92 प्रतिशत अफीम अफगानिस्तान में पैदा होती है| अफीम के पैसे से खरीदे गए हथियार अमेरिकियों का नशा उतारने के लिए काफी होते हैं| भारत चाहे तो अमेरिका को बता सकता है कि तालिबान, अफगान और पाक शासन–इन तीनों के बीच त्र्िकोणीय वार्ता कैसे हो सकती है| स्वयं अफगान-संसद ने एक प्रस्ताव पारित करके ऐसे संवाद का रास्ता खोला है| जो प्रयोग नेपाल में सफल हो चुका है, वह पेशावर और काबुल में भी सफल हो सकता है| अफगानिस्तान के तालिबान के लिए अमेरिका की बजाय भारत कहीं अधिक स्वीकार्य है| भारत के प्रति उनका रवैया वह नहीं है, जो पाकिस्तानी आतंकवादियों का होता है| तालिबान जब काबुल में काबिज़ थे, तब भी भारत के साथ उनके गुप्त संपर्क बने हुए थे| यदि भारत अपने लिए कोई ऐसी बड़ी भूमिका उकेर ले तो अफगानिस्तान तो उसका बहुत आभारी होगा ही, पाकिस्तानी जनमत भी उसके अनुकूल होता चला जाएगा| इस रचनात्मक वातावरण का लाभ उसे कश्मीर में तो मिलेगा ही, संपूर्ण दक्षिण एशिया की राजनीति में भी मिलेगा|
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