NavBharat Times, 2 May 2004 :चुनाव ज्योतिषियों ने यह कहकर तहलका मचा दिया है कि इस बार संसद त्रिशंकु होगी| किसी भी मोर्चे का स्पष्ट बहुमत नहीं होगा| याने संसद अधर में लटक जाएगी| वह लटकेगी या नहीं, यह बाद में पता चलेगा लेकिन भारत की राजनीति अभी से अधर में लटक गई है| सभी दल अपने-अपने हवामहल खड़े कर रहे हैं| इन हवामहलों में कमरों की बंदरबॉंट पर कहीं तलवारें खिंच रही हैं तो कहीं मिठाइयॉं बॅंट रही हैं| हमारे राजनीति दलों को चुनाव से ज्यादा चुनाव के बाद की चिंता सताने लगी है| चुनावोत्तर समीकरणों के ऐसे-ऐसे सुझाव उभरने लगे हैं कि राजनीति के बड़े-बड़े पंडित दॉंतों तले उॅंगली दबाने लगें| बे-सिर पैर की भविष्यवाणियों ने भारतीय राजनीति के सिर और पैर, दोनों ही भारी कर दिए हैं| सबसे पहली मार तो अर्थ-व्यवस्था पर ही पड़ी है|
मतदान का रुझान किधर जा रहा है इसका प्रचार होते ही शेयर बाजार लुढ़क गया और 50 हजार करोड़ के नीचे आ गया| अभी दो मतदान होने बाकी हैं, यह किसी ने नहीं सोचा और यह भी नहीं सोचा कि चुनाव के बाद शेयर बाजार न लुढ़के, इस डर के मारे लोग भाजपा को जिता देंगे| यह भी सोचना जरूरी है कि 10 करोड़ मतदाताओं का रुझान मालूम करने के लिए पॉच हजार मतदाताओं की राय का कितना महत्व है? मतदाता जीते-जागते मनुष्य हैं, कोई दाल-चावल नहीं हैं| चावल के चार दाने मसलकर आप यह जरूर बता सकते हैं कि पूरे प्रेशर-कूकर के चावल पके हैं या नहीं लेकिन क्या यही पैमाना आप मतदाताओं पर भी लगा सकते हैं? उन मतदाताओं पर, जो अपने दिल की बात आपको क्या, भगवान को भी नहीं बताना चाहते| वे बटन किसी का दबाऍंगे और नाम किसी और का बताऍंगे|
इसके अलावा भारत एकरूप देश नहीं है, चीन, जापान, जर्मनी या अमेरिका की तरह, जहॉं 70-80 प्रतिशत लोगों की जाति, भाषा, शिक्षा आदि एक-जैसे हों| इन देशों में राजनीतिक लहर उठती है तो प्राय: पूरे देश में एक-जैसी छा जाती है लेकिन भारत इतना विशाल और विविध है कि एक ही समय में जो लहर कहीं कैलास पर्वत दिखाई पड़ती है तो वही कहीं और जाकर सतपुड़ा की टेकड़ी बन जाती है| अगर यह सच नहीं होता तो आपात्काल का असर सारे भारत में एक-जैसा होता| उत्तर भारत में इंदिरा गॉंधी का सूॅंपड़ा साफ हो गया लेकिन दक्षिण भारत में वह लबालब भर गया| आखिर क्यों? क्या वजह है कि दक्षिण भारत के अभिनेता नेता बन जाते हैं जबकि उत्तर भारत के नेता अभिनेताओं की तरह पेश आते हैं? हिन्दी हृद्देश एक ही है लेकिन क्या वजह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय खेती लहलहा रही है, जबकि म.प्र., राजस्थान, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और हिमाचल में अखिल भारतीय दल दनदना रहे हैं? कहॉं केरल और कहॉं बंगाल? लेकिन दोनों राज्य में कम्युनिस्ट पार्टियों की जड़ें अब भी गहरी हैं| भारतीय राजनीति का यह कौनसा पैटर्न है? राज्यों के भी अलग-अलग हिस्सों में मतदाताओं के रुझान अलग-अलग होते हैं| भारत की राजनीति रंग-बिरंगे और छोटे-बड़े थेगलों से बनी गुदड़ी की तरह है| उसे रेशम के चिकने थान की तरह नहीं नापा जा सकता| ऐसी स्थिति में अष्टावक्र भारत के आर-पार सीधी लकीर खींचनेवाले लोग सिरफिरे ही हो सकते हैं| इन सिरफिरों ने सारे भारत का सिर फिरा दिया है| अपने मतदान-सर्वेक्षण में उन्होंने ‘त्र्िाशंकु संसद’ का हौआ क्या खड़ा किया कि दिल्ली के सीने में उथल-पुथल मच गई है| कोई इन चुनाव-ज्योतिषियों से पूछे कि महिने भर पहले आपने जो सर्वेक्षण किया था, वह सही है या अब जो आप अधबीच में कर रहे हैं, वह सही है? राजग की दनदनाती हुई संसद अचानक लूली कैसे हो गई और जो अभी अधबीच में लूली दिखाई पड़ रही है, वह चुनाव के बाद फिर क्यों नहीं दनदनाने लगेगी? यदि भविष्यवाणी का आधार वैज्ञानिक है तो एक ही मतदान पर परस्पर विरोधी ऑंकड़े सामने क्यों आ रहे हैं? शक होता है कि करता है| ये सर्वेक्षण कहीं राजनीतिक दलों के इशारों पर तो नहीं किए जाते हैं?
‘त्र्िाशंकु संसद’ के भय ने यदि भाजपा की पेशानी पर पसीने की बॅंूदें छलछला दी हैं तो कॉंग्रेस की बॉंछे खिला दी हैं| और लालू, मुलायम और शरद पॅंवार के तो कहने ही क्या हैं? उनकी चाल ही बदल गई है| हर कोई समझ रहा है कि संसद के ऊंट को करवट वह ही दिलाएगा| प्रधानमंत्री पद के दर्जनों केक्टस एक ही झटके में उग आए हैं| मार्क्सवादी अपनी बंसी अलग बजा रहे हैं| वे गैर-भाजपा और गैर-कॉंग्रेस मोर्चे का, तीसरे मोर्चे का सपना देखने लगे हैं| लालू कहते हैं कि वे मुलायम को कॉंग्रेसी मोर्चे के अंदर नहीं आने देंगे, क्योंकि उनके उम्मीदवार भाजपा को जिताने के लिए फिट किए गए हैं और शरद पवार कहते हैं कि झगड़ा किस बात का है, सोनिया तो प्रधानमंत्री बनना ही नहीं चाहतीं| प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को अचानक राममनोहर लोहिया याद आने लगे हैं| वे मुलायम की तारीफों के पुल बॉंधे चले जा रहे हैं ताकि मुसलमान वोट उनसे बिदकें और कॉंग्रेस को चले जाऍं| जॉर्ज फर्नांडिस मुलायम-प्रेम में पागल हुए जा रहे हैं| उधर मुलायमसिंह अटलजी को न्यौता दे रहे हैं कि वे समाजवादी पार्टी में आ जाऍं| हर कोई अपना-अपना तीर-तुक्का भिड़ा रहा है| कुछ लोग कह रहे हैं कि अगर राजग को कुछ सीटें कम पड़ गईं तो मुलायम तो हैं ही, करुणानिधि और रामदास भी लौट सकते हैं| उनके अन्तर्विरोध कॉंग्रेस के साथ ज्यादा हैं, भाजपा के साथ कम ! वे अब राजग के चंद्रबाबू नायडू बन सकते हैं| अगर कॉंग्रेस को डेढ़ सौ सीटें मिल गईं तो वह सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने पर जोर देगी| मार्क्सवादी और समाजवादी इस पर तैयार नहीं होंगे| ऐसे में मुलायम, लालू और शरद के अलावा देवेगौड़ा भी छुपे रुस्तम सिद्घ हो सकते हैं| सबसे टेढ़ा पद सबसे सीधे आदमी को मिल सकता है| कम्युनिस्टों के बारे में यह भी पूछा जा रहा है कि वे स्तालिन और ब्रेझनेव जैसे विदेशियों की गुलामी कर सकते हैं तो सोनिया गॉंधी उनसे भी ज्यादा विदेशी हैं क्या? वे सोनिया को अपना नेता क्यों नहीं मान सकते? एक औरत को प्रधानमंत्री बनाकर क्या मुलायम खुद को लोहियाजी का सच्चा शिष्य सिद्घ नहीं करेंगे?
चुनावी ज्योतिष का यह चमत्कार है कि अब दाल-चावल ही नहीं, मॅूंग-मोठ, गेहॅंू और चने की भी खिचड़ी पकने लगी है| एक सुझाव यह भी दिमाग में आया है कि चुनाव के बाद यदि स्पष्ट बहुमतवाला कोई भी मोर्चा न बने और अखिल भारतीय दलों को क्षेत्रीय छुटभय्यों के आगे नाक रगड़नी पड़े तो क्या यह बेहतर नहीं होगा कि भाजपा और कॉंग्रेस दोनों ही अपने समर्थक दलों से पल्ला झाड़ लें और आपस में हाथ मिला लें| वे गठबंधन-सरकार भी बना सकती हैं, एक-दूसरे को बाहर से समर्थन भी दे सकती हैं और ढाई-ढाई साल के लिए क्रमश: सत्तारूढ़ होने का समझौता भी कर सकती हैं| यह अजूबा मालूम पड़ता है लेकिन है नहीं| इस तरह के प्रयोग मोरिशस और इस्राइल में सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए हैं| दुबारा आम चुनाव करवाने से बेहतर है कि यह नया प्रयोग किया जाए| इसलिए भी किया जाए कि अब भारत के राजनीतिक दलों में कोई वैचारिक द्वंद्व तो रह नहीं गया है| यदि शीर्षक और चित्र बदल दिए जाऍं तो भाजपा और कॉंग्रेस के घोषणा-पत्रों में कितना अंतर रह जाता है| भाजपा-कांग्रेस सहयोग का एक और सुपरिणाम सामने आ सकता है| वह यह कि सत्ता के बाहर रहनेवाले क्षेत्रीय दल अखिल भारतीय दलों में विलय की बात सोचने लगेंगे| भारत में अमेरिका और बि्रटेन की तरह दो-दलीय व्यवस्था उभरने लगेगी| एक ही रथ के दो पहियों की तरह दोनों प्रमुख दल अगर एक-दूसरे के साथ सहयोग करने लगें तो रथ की गति तीव्र हो जाएगी, इसमें कोई संदेह नहीं|
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