Dainik Bhaskar, 5 May 2010 : यदि जर्मनी और फ्रांस जैसे जानी दुश्मन देश अपनी पुरानी लड़ाइयों को भूल सकते हैं और यूरोपीय संघ बना सकते हैं तथा इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे परस्पर विरोधी देश एक ही बिछौने पर जीम सकते हैं तो भारत और पाकिस्तान तो हजारों बरस एक-दूसरे का हिस्सा रहे हैं। ये दोनों देश अपनी 60-70 साल की कटुता को पीछे छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ सकते?
म्पू के दक्षेस का सबसे बड़ा लाभ यही हुआ कि भारत और पाक के बीच जमी बर्फ पिघल गई। शर्म-अल-शेख को संपन्न हुए दस माह बीत गए, लेकिन गाड़ी एक इंच भी आगे नहीं बढ़ी थी। अब लग रहा है कि शर्म-अल-शेख और थिम्पूका फासला एकदम कम हो गया है। इसका ज्यादा श्रेय पाकिस्तान को मिलना चाहिए, उसने परिपक्वता और उदारता का परिचय दिया है।
पाक नीति-निर्माताओं ने यह अच्छी तरह भांप लिया कि भारत में लोकमत का महत्व कितना है। शर्म-अल-शेख को लेकर भारत में इतना शोर-शराबा हुआ था कि भारत सरकार को ठिठकना पड़ गया। पाक नेताओं के मन पर डॉ. मनमोहन सिंह की छवि अच्छी बन गई, लेकिन वे समझ गए कि वे जब तक अपने कई पैंतरे नहीं बदलेंगे, न तो भारत की जनता, न संसद, न विरोधी दल और न ही कांग्रेस अपने प्रधानमंत्री का साथ देगी।
थिम्पू में पाक का रवैया काफी रचनात्मक रहा। उसने समग्र संवाद (कंपोजिट डॉयलॉग) का आग्रह छोड़ दिया। पाकिस्तान जब समग्र संवाद की बात करता है तो उसका अनकहा आशय यह होता है कि आतंकवाद वगैरह तो ठीक है, पहले कश्मीर, जल बंटवारा, सियाचिन आदि पर बात कीजिए। जैसा कि हमारी विदेश सचिव निरुपमा राव ने कहा है कि पाकिस्तान अब सामान्य बातचीत के लिए राजी हो गया है। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि उसके साथ अब आतंकवाद के अलावा किसी मुद्दे पर बातचीत ही नहीं होगी। कश्मीर के हल में जितनी रुचि पाकिस्तान की है, उससे ज्यादा भारत की है।
इस मुद्दे पर दोनों देश तीन साल पहले जहां तक पहुंचे थे, अब वहां से आगे बढ़ने की जरूरत है। आजकल पाकिस्तान में पानी का इतना बड़ा संकट हो गया है कि वह भी भारत के मत्थे ही मढ़ा जा रहा है। पाकिस्तान के लोगों को यह कहकर बहका दिया गया है कि भारत सांझा नदियों का पानी देने में धांधली कर रहा है। पाक विदेश मंत्री ने इस गलतफहमी को दूर करने की कोशिश जरूर की है, लेकिन यदि अब भारत की तरफ से इस मामले में जमकर सफाई नहीं दी गई तो पाकिस्तानी जनता को गुमराह करने में वहां के भारत-विरोधी तत्वों को काफी कामयाबी मिल सकती है।
पाक प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने इस बार बलूचिस्तान का भी जिक्र नहीं किया। भारत के लिए यह काफी भड़काऊ मुद्दा है। शर्म-अल-शेख के डूबने में इस मुद्दे का विशेष योगदान था। इधर पाकिस्तानी नेताओं ने यह आरोप लगाना भी बंद कर दिया है कि अफगानिस्तान में भारतीय दूतावास से पाकिस्तान के विरुद्ध जासूसी की जा रही है। अजमल कसाब को पाकिस्तान भिजवाने की बात वहां की अदालत ने तो कही, लेकिन यह उत्तेजक बात थिम्पू में पाकिस्तानी नेताओं ने नहीं दोहराई। इसके विपरीत भारतीय प्रधानमंत्री ने लश्कर-ए-तैयबा के नेताओं और मुंबई के दोषियों के विरुद्ध ठोस कार्रवाई की मांग की है।
उन्होंने यह कहने में भी कोई कोताही नहीं बरती कि दोनों देशों के बीच आपसी विश्वास की कमी है। यह कमी तो तभी दूर हो सकती है जबकि पाकिस्तान अपनी जमीन पर से आतंकवाद के सारे तंत्र को ध्वस्त करे। सिर्फ उस आतंकवाद के तंत्र को ही नहीं, जो पाकिस्तान और अमरीका को अपना निशाना बना रहा है, बल्कि उसको भी जिसका मुख्य लक्ष्य भारत है। इस दिशा में पाकिस्तान ने कुछ कदम जरूर बढ़ाए हैं। ताजा खबर यह है कि भारत-पाक सीमांत से लगभग एक लाख फौजियों को हटाकर वजीरिस्तान आदि में भेजा जा रहा है। वास्तव मेंपाकिस्तान को इतना भरोसा दिला दिया जाना चाहिए कि वह भारत की तरफ से बिल्कुल निश्चिंत हो जाए और अपनी सारी ताकत आतंकवाद के खिलाफ झोंक दे। आतंकवाद के खिलाफ लड़ना भारत के पक्ष में लड़ने के बराबर ही है।
दक्षिण एशिया से आतंकवाद का खात्मा तब तक नहीं होगा, जब तक कि उसके विरुद्ध भारत-पाक संयुक्त मोर्चा नहीं बनेगा। इस मोर्चे की पहुंच काबुल तक होनी चाहिए। वह सुबह कितनी सुहावनी होगी, जब भारत और पाक अपने साझे दुश्मन की कमर सिर्फ भारत और पाक में ही नहीं, अफगानिस्तान में भी तोड़ना शुरू करेंगे। आतंकवाद की असली जड़ अफगानिस्तान में ही है।
अफगानिस्तान में भारत-पाक संयुक्त अभियान चले, यह पहल करने की हिम्मत फिलहाल भारत के नेताओं मेंनहीं है और पाकिस्तान के नेताओं से तो इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन यदि भारत यह पहल नहीं करेगा तो कौन करेगा? यदि भारत की जगह यह दक्षेस की पहल का रूप ले ले तो और भी बेहतर रहेगा। दक्षेस यदि आतंकवाद से लड़ना चाहता है तो वह इस तरह की कोई पहल क्यों नहीं करता? सिर्फ प्रस्ताव पारित कर देने से क्या होगा?
थिम्पू-संवाद आगे तभी बढ़ेगा, जबकि गिलानी के कहे पर पाकिस्तानी फौज और आईएसआई की मुहर लगे। पाकिस्तान मेंसंविधान के 18वें संशोधन के बाद वहां लोकतंत्रीय ताकतें मजबूत हुई हैं, ऐसा माना जा रहा है। लेकिन अमरीकी विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की विदेश नीति पर अब भी पूरी तरह फौज का कब्जा है। ओबामा प्रशासन ने पिछले दिनों पाकिस्तान के असली मालिक सेनापति परवेज कियानी को वॉशिंगटन बुलवाकर उनसे सीधी बात की थी।
यदि पाकिस्तान के नेताओं की सहमति हो तो उनके सेनापति और आईएसआई के मुखिया के साथ भारत भी सीधी बात क्यों नहीं करे? पाकिस्तानी लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए यह जरूरी है कि नेताओं के फैसलों पर फौज की मुहर लगवाई जाए। यदि पाक फौज के दिमाग से भारत का भय हटा दिया जाए तो दोनों देशों के संबंधों को सहज होने में जरा भी देर नहीं लगेगी। फौजी नेताओं के साथ सीधे संवाद के बिना यह भय कैसे हटेगा?
मनमोहन-गिलानी संवाद का तार बहुत पतला है। कहीं कोई आतंकवादी घटना घटी नहीं कि वह पट से टूट जाएगा। भारत मेंमाना जाएगा कि पाकिस्तान दोमुंहा है। उसका राजनीतिक मुंह शांति की बात करता है और फौजी मुंह आतंकवाद की आग उगलता है। इसीलिए जरूरी है कि भारत-पाक संवाद के दायरे को थोड़ा और चौड़ा किया जाए। यदि पाकिस्तान के संपूर्ण सत्ता प्रतिष्ठान से भारत सीधा संवाद करे तो दक्षिण एशिया की राजनीतिमें आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है।
दक्षिण एशिया में नकली शक्ति-संतुलन बनाने, अंधाधुंध फौजी खर्च बढ़ाने, बाहरी शक्तियों से दखलंदाजी करवाने और एक-दूसरे की टांग-खिंचाई से मुक्ति मिलेगी। यदि भारत व पाकिस्तान अपनी गुत्थियां सुलझा लें तो डेढ़ अरब लोगों का दक्षेस दुनिया का सबसे बड़ा शक्ति-पुंज बन सकता है। यदि जर्मनी व फ्रांस जैसे जानी दुश्मन अपनी पुरानी लड़ाइयों को भूल सकते हैं और यूरोपीय संघ बना सकते हैं तथा इंडोनेशिया व मलेशिया जैसे विरोधी देश एक ही बिछौने पर जीम सकते हैं तो भारत-पाक तो हजारों बरस एक-दूसरे का हिस्सा रहे हैं। वे अपनी 60-70 साल की कटुता को पीछे छोड़कर आगे क्यों नहीं बढ़ सकते? थिम्पूका संवाद अगर इस यक्ष प्रश्न को जगा सके तो यह 16वां दक्षेस अपने आप ऐतिहासिक बन जाएगा।
(वेदप्रताप वैदिक, लेखक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक हैं)
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