Nav Bharat Times, 9 Jan 2004 : जैसा दक्षेस सम्मेलन इस बार हुआ, पहले कभी नहीं हुआ| भारत-पाक संवाद का संकल्प तो उसकी सर्वोच्च उपलब्धि है ही लेकिन उसके अलावा तीन ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर दक्षेस-राष्ट्रों की सहमति हुई है कि अगर उन पर अमल हो गया तो 21वीं सदी को एशिया की सदी बनने से कोई रोक नहीं पाएगा| दक्षेस का मतलब है, पुराना भारत, विशाल भारत| पहले इस भारत की गुलामी और फिर विभाजन ने इसकी विराट्र शक्ति के स्रोतों को क्षीण कर दिया था| सदियों के इस अभिशाप से मुक्त होने की वेला का अब प्रारंभ हो चुका है| इस्लामाबाद में सम्पन्न हुआ बारहवॉं दक्षेस सम्मेलन सम्पूर्ण दक्षिण एशिया को शक्ति और समृद्घि के मार्ग पर बढ़ानेवाला पहला कदम है| मुक्त-व्यापार, सामाजिक-उद्घार और आतंकवाद-दमन की सहमतियों के साथ भारत-पाक मन-मुटाव की समाप्ति-ये चार मुद्दे ऐसे हैं, जो दक्षेस को अब दुनिया के अन्य प्रमुख क्षेत्रीय संगठनों की बराबरी में ला खड़ा करेंगे| पिछले दो दशक में दक्षेस बस रेंगता रहा| अब वह दौड़ेगा| कुछ ही वर्षों में उसकी तुलना एसियान और यूरोपीय समुदाय जैसे संगठनों से होने लगेगी|
अब तक दक्षेस के लंगड़ाते रहने का मूल कारण था-लगभग हर मुद्दे पर भारत और पाकिस्तान का टकराव ! टकराव इतना अधिक था कि लगभग आधा दर्जन सम्मेलन किसी न किसी बहाने स्थगित हो गए| भारत को लगता था कि दक्षेस का फायदा उठाकर पाकिस्तान कभी कश्मीर को घसीटता है तो कभी आतंकवाद का औचित्य ठहराता है तो कभी भारत को दादागीरी के लिए बदनाम करता है और पाकिस्तान को लगता था कि दक्षेस का इस्तेमाल भारत पाकिस्तान को दबाने के लिए करता है| इसीलिए अभी जनरल मुशर्रफ और पहले अन्य पाक नेताओं ने भी दक्षेस में द्विपक्षीय मामले उठाने की अनुमति चाही थी| दक्षेस का संविधान इसकी अनुमति नहीं देता लेकिन बारहवें दक्षेस ने सिद्घ कर दिया है कि सबसे पेचीदा द्विपक्षीय मामले भी दक्षेस की ओट में सुलझाए जा सकते हैं| यदि दक्षेस सम्मेलन नहीं होता तो क्या अटलजी इस्लामाबाद जाते ? और दूसरा बुनियादी सवाल यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच कोई गुप-चुप राजनीतिक सहमति नहीं उभर रही होती तो क्या मुक्त-व्यापार या आतंकवाद दमन के समझौतों पर सातों देश हस्ताक्षर करते ? पाकिस्तान के राष्ट्रपति और विदेश मंत्री तथा भारत के विदेश मंत्री ने जिस प्रकार हाथ जोड़कर दोनों देशों के पत्रकारों से अनुनय-विनय की है, क्या किसी राष्ट्र के नेता कभी करते हैं ? नेतागण पत्रकारों को बार-बार कह रहे थे कि हवन में हड्डी मत डाल देना| यह घड़ी बड़ी मुश्किल के बाद आई है| मुशर्रफ, जमाली और कसूरी ने भारत के प्रधानमंत्री की तारीफों के पुल लगभग उसी तरह बॉंधे हैं, जैसे कि भाजपा के कार्यकर्ता बॉंधते हैं| पहली बार लगा कि भारत का कोई नेता सम्पूर्ण दक्षिण एशिया का नेता है| आखिर यह चमत्कार हुआ कैसे ?
इसके कई कारण हैं| सबसे पहला कारण यह है कि भारत और पाकिस्तान के बीच जो समझौता हुआ है, उसमें दोनों की विजय हुई है| सॉंप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी| पाकिस्तान ने आतंकवाद-दमन की भारत की बात मान ली और भारत ने कश्मीर-वार्ता की पाकिस्तान की बात मान ली| कश्मीर का मसला द्विपक्षीय है| यह बात शिमला में मानी जा चुकी थी लेकिन इस्लामाबाद में कुछ अजूबा हुआ है| यहॉं कहा गया है कि दोनों देश ऐसा समाधान निकालेंगे, जो दोनों के लिए संतोषजनक होगा| ‘दोनों के लिए संतोषजनक’, यह हीरों जड़ी शब्दावली है| इसका अर्थ क्या है ? क्या यह नहीं कि दोनों लचीले, दोनों यथार्थवादी, दोनों मध्यममार्गी होने को तैयार हैं ? यह कोई संयोग-मात्र नहीं कि इस दक्षेस-सम्मेलन में संयुक्तराष्ट्र-प्रस्ताव या अटूट अंग जैसे उत्तेजक नारे नहीं उछाले गए| हमारे नेताओं ने सिद्घ किया कि वे परिपक्व और धीर-गंभीर हैं| इसमें शक नहीं कि दोनों देशों के अतिवादी अब काफी शोर मचाऍंगे लेकिन उनका शोर आम जनता की सद्रभावना के समुद्र में पता नहीं कहॉं डूब जाएगा| भारत के नेता, खास तौर से प्रधानमंत्री वाजपेयी तो यह कहते रहे हैं कि हम कश्मीर पर खुले दिल से बात करना चाहते हैं लेकिन असली प्रश्न यह है कि पाकिस्तानी नेताओं का हृदय-परिवर्तन कैसे हुआ ? वे आतंकवाद के प्रति कठोर और कश्मीर के प्रति नरम क्यों हो गए ? इसके कारण स्पष्ट हैं| पहला कारण तो यही है कि हाल ही में स्वयं जनरल मुशर्रफ पर दो जानलेवा हमले हुए हैं| उनमें कश्मीरी आतंकवादी शामिल थे| मुशर्रफ को पता चल गया कि आतंकवाद पितृहन्ता है| वह अपने बाप को भी नहीं बख्शता| इसलिए बाप उसे क्यों बख्शे ? इसके अलावा पाकिस्तान पर अमेरिका का जबर्दस्त दबाव है| पाकिस्तान आज भी अपने पॉंव पर नहीं खड़ा है| अगर पश्चिमी बेसाखियॉं हटा दी जाऍं तो पाकिस्तान का शीराजा बिखरने में क्या देर लगेगी| ऐसी स्थिति में पाकिस्तान ने पहले अफगान आतंकवाद और अब कश्मीरी आतंकवाद की कमर तोड़ने की कसम खाई है| आशा है, कश्मीरी आतंकवाद को मुशरर्फ अब ‘स्वाधीनता संग्राम’ कहकर बच निकलने की कोशिश नहीं करेंगे यदि वे सचमुच कश्मीरी आतंकवाद से लड़ेंगे तो न केवल वे अपने पश्चिमी संरक्षक देशों को खुश करेंगे बल्कि भारत के भी कण्ठहार बन जाऍंगे| क्या वे भूटान की तरह कुछ सत्साहस दिखाऍंगे ? मुशर्रफ ही नहीं, पाकिस्तान के फौजी सत्ता-प्रतिष्ठान और इस्लाम की डुगडुगी बजानेवाले संगठनों को भी अब यह समझ में आ गया है कि अगर वे हजार साल भी लड़ेंगे तो कश्मीर को डंडे के जोर पर भारत से नहीं छिना पाऍंगे| इसीलिए बेहतर है कि बात की जाए| बातों का रास्ता गुलाब की पंखुडि़यों से पटा होगा या कॉंटों से, यह तो भविष्य ही बताएगा लेकिन बात शुरू हो जाएगी, यह क्या कम बड़ी बात है |
भारत-पाक संवाद का माहौल इसलिए भी बन गया कि दक्षेस के सातों राष्ट्र मुक्त-व्यापार और आतंकवाद-दमन के पक्ष में थे| सभी राष्ट्रों को पता है कि अगर मुक्त व्यापार शुरू हो गया तो वह वहीं नहीं रुक जाएगा| व्यापार के साथ-साथ नए-नए संयुक्त उद्योग, नई-नई विकास योजनाऍं और आर्थिक समृद्घि व रोजगार के नए-नए अवसर पैदा होंगे| करोड़ों वंचितों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था होगी| आखिर पाकिस्तान अवसरों के इस सैलाब का विरोध कैसे करता ? इसी प्रकार दक्षिण एशिया का कौनसा राष्ट्र है, जो आतंकवाद से पीडि़त नहीं है ? श्रीलंका, नेपाल, भूटान, मालदीव में तो आतंकवाद ने इन राष्ट्रों के जीवन-मरण के प्रश्न खड़े कर दिए हैं जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश भी त्रस्त हुए बिना नहीं रहे| इसीलिए पाकिस्तान आतंकवाद को अकेले भारत का सिरदर्द कहकर रफा-दफा नहीं कर सका| दूसरे शब्दों में इस बार चौपड़ कुछ ऐसे बिछी कि भारत का एजेन्डा दक्षेस का एजेन्डा बन गया| यह काम दो दशक पहले भी हो सकता था लेकिन पाकिस्तान रोड़े अटकाता रहा| मुशर्रफ की पत्रकार-परिषद् देखकर तो लगता है कि अब पाकिस्तान रोड़े नहीं अटकाएगा लेकिन विदेश मंत्री कसूरी जिस तरह किन्तु-परन्तु की भाषा में बात कर रहे थे, उससे लगता है कि फिलहाल जो भारत-पाक समझौता हुआ है, वह अल्पजीवी है| कश्मीर की बर्फ के साथ वह भी पिघल जाएगा| यदि भारत सरकार चाहती है कि कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ सार्थक बातचीत हो तो सबसे पहले उसे पाकिस्तान के भारत-विरोधी तत्वों से सीधी बातचीत करनी चाहिए| काज़ी हुसैन अहमद जैसे लोगों को पटाए बिना भारत की कूटनीति का सफल होना मुश्किल है| इसके अलावा दोनाें राष्ट्रों की सरकारों को अपने-अपने कश्मीरियों से शीघ्रातिशीघ्र बात करनी होगी| यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाऍं याने विवाद बना रहे लेकिन बातचीत चलती रहे तो भी बारहवें दक्षेस को कोई खतरा नहीं है| शेष तीनों सहमतियों का काफिला आगे बढ़ता चला जाएगा| यदि दक्षिण एशिया के सवा अरब लोग एक-जुट होकर एक दिशा में बढ़ेंगे तो मध्य एशिया और आग्नेय एशिया के खजानों के द्वार उनके लिए स्वत: खुल जाऍंगे| अफगानिस्तान और बर्मा भी अपने पुराने भारत-परिवार में दुबारा शामिल होंगे| 21वीं सदी एशिया की सदी होगी|
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