Nai Dunia, 9 March 2005 : ‘दक्षेस’ को बने 20 साल हो गए लेकिन अब तक उसके केवल 12 शिखर सम्मेलन ही हुए| 8 नहीं हुए| क्यों नहीं हुए? उन्हें प्रतिवर्ष होना ही चाहिए था, क्योंकि दक्षेस के घोषणा-पत्र में वैसा लिखा गया है| ऐसा नहीं है कि जब-जब भी शिखर सम्मेलन स्थगित हुआ, उसके पहले तूफान या भूकम्प ही आया हो| ऐसा भी हुआ है कि किसी देश में अचानक तख्ता-पलट हो गया, किसी देश में राज-परिवार की हत्या हो गई, कभी दो देशों के बीच युद्घ छिड़ गया और कभी मेज़बान देश में ही सुरक्षा गड़बड़ा गई| 13वां दक्षेस सम्मेलन भी इसी तरह की घटनाओं के कारण स्थगित हो गया| ढाका-सम्मेलन का स्थगन न सिर्फ दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ के लिए सदमा बन गया बल्कि आशंका यह भी थी कि आपसी सहयोग की जो धारा इधर दक्षिण एशियाई देशों के बीच बह निकली है, कहीं वह सूखती न चली जाए लेकिन इधर कुछ हफ्तों में यह धारा अचानक वेगवती होती नज़र आने लगी है|
इसका सबसे पहला संकेत तो यह है कि अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई और ईरान के विदेश मंत्री कमाल खर्राजी, दोनों ने ही नई दिल्ली में खुले-आम कह दिया कि उनके देश दक्षेस के सदस्य बनना चाहते हैं| मुझे उम्मीद नहीं थी कि वे दोनों खुले-आम यह बात कह देंगे| इन दोनों विदेशी अतिथियों को निजी बातचीत में जब मैंने यह सुझाव दिया और उसके समर्थन में तर्क दिए तो लगता था कि अपने देश लौटकर वे चुपचाप इस दिशा में कुछ प्रयत्न करेंगे लेकिन उन्होंने जल्दी दिखाई| क्यों दिखाई? इसीलिए कि उन्हें इसमें अपना जबर्दस्त फायदा दिखाई पड़ा| यदि वे दक्षेस के सदस्य बन जाते हैं तो पाकिस्तान के ज़रिए गैस और तेल की पाइप लाइनें भारत तक लाने में उन्हें आसानी होगी| दक्षेस बना ही है, इस तरह के कामों के लिए| वह आपसी सहयोग का ही संघ है| ईरान और अफगानिस्तान पाइप लाइनें बिछाने के लिए भारत से भी ज्यादा लालायित हैं, क्योंकि न केवल दोनों राष्ट्रों का सामरिक और राजनीतिक महत्व सारी दुनिया में बढ़ जाएगा बल्कि उन्हें अमित आय भी होगी| इसीलिए ईरान भारत से कह रहा है कि आप सिर्फ तेल की चिंता करें, पाइप लाइन की सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है और हामिद करज़ई तो इससे भी आगे बढ़ गए| उन्होंने कहा है कि वे पाकिस्तान को पटाऍंगे ताकि भारतीय माल पाकिस्तान के ज़रिए मध्य एशिया तक आ-जा सके| तुर्कमेनिस्तान से आनेवाली गैस की पाइप लाइन तो अपने आप काम करने लगेगी| मध्य एशिया तक इन रास्तों के खुलने का मतलब है – ये सब पड़ौसी राष्ट्र तो मालामाल होंगे ही, भारत के महाशक्ति बनने का भी मार्ग प्रशस्त होगा| दक्षिण एशिया चाहे यूरोपीय संघ की तरह शीघ्र ही एकजुट नहीं हो पाए लेकिन इसमें शक नहीं है कि दुनिया के सबसे अधिक शक्तिशाली क्षेत्रीय संघों में दक्षेस की गिनती होने लगेगी| भारत इस रहस्य को भली-भॉंति समझता है, इसीलिए उसके विदेश मंत्री की पाकिस्तान-यात्रा के दौरान भारत ने अपने दो महत्वपूर्ण आग्रहों को तिलांजलि दे दी| एक तो श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस-यात्र्िायों के लिए पारपत्र की अनिवार्यता का और दूसरा यह कि पाकिस्तान के ज़रिए पाइप लाइन डालने पर वह तभी सहमत होगा जबकि पाकिस्तान भारतीय माल को भी उसकी सीमा में से आने-जाने दे| दूसरे शब्दों में दक्षेस के 13वें शिखर-सम्मेलन के स्थगन के बावजूद दक्षिण एशियाई सहयोग के कदम आगे बढ़ रहे हैं|
दक्षिण एशिया के बारे में कभी विनोबा भावे कहा करते थे कि यहॉं ए-बी-सी त्र्िाभुज बनना चाहिए याने अफगानिस्तान, बर्मा और सीलोन ! अर्थात्र अफगानिस्तान और ईरान के साथ-साथ जब तक बर्मा याने म्यांमार भी दक्षेस में शामिल न हो, वह अधूरा ही रहेगा| बर्मा को जोड़ना इसलिए भी जरूरी है कि जैसे पश्चिम में भारत-पाक-ईरान और भारत-पाक-अफगान, ऐसे ऊर्जा-सहयोग के दो त्र्िाभुज बन रहे हैं, वैसे ही पूरब में भारत, बांग्लादेश और म्यांमार का तीसरा ऊर्जा-त्र्िाभुज उभर रहा है| म्यांमार की समुद्री सीमा से निकाली हुई गैस को भारत यदि बांग्लादेश होकर लाना चाहता है तो इस पूर्वी पाइप लाइन को डालने मेंे भी दक्षेस अत्यधिक सहायक हो सकता है| दक्षेस के सभी सदस्य मिलकर सर्वसम्मत विधि-विधान स्थापित कर सकते हैं|
दक्षेस में ईरान, अफगानिस्तान और म्यांमार को शामिल करने के बाद यह भी विचार करना होगा कि तिब्बत, सिंक्यांग, पामीर और मध्य एशिया के सीमावर्ती क्षेत्रों को भी इस सहयोग-अभियान से कैसे जोड़ा जाए| स्थानीय-सहयोगों के सौ फूल खिलाए बिना दक्षिण एशियाई सहयोग के चमन को आबाद करना संभव नहीं है| इस मार्ग में अनेक राजनीतिक और कानूनी कठिनाइयॉं आ सकती हैं| इसीलिए उनके बारे में अभी से विचार करना जरूरी है| जहॉं तक अन्तरराष्ट्रीय समाज का प्रश्न है, दक्षेस की इस पहल का वह स्वागत ही करेगा| अमेरिका तथा अन्य महाशक्तियों की इस समय सबसे बड़ी चिंता यह है कि एशिया के गरीब देश आपस में युद्घ न करें| इस लक्ष्य की पूर्ति तो अपने आप ही होगी| आपसी सहयोग से पैदा होनेवाली समृद्घि के मुकाबले लोग युद्घों को पसंद क्यों करेंगे? यदि दक्षिण एशिया में युद्घ अप्रासंगिक होते गए, जैसे कि यूरोप में हो गए हैं तो परमाणु हथियारों का खतरा भी काफी हद तक घट जाएगा| यदि दक्षिण एशिया ऊर्जा-सहयोग के नए क्षेत्र के रूप में उभरेगा तो महाशक्तियॉं भी अपनी लार टपकाए बिना नहीं रह सकेंगी| फारस की संकरी खाड़ी में फंॅसने की बजाय महाशक्तियॉं अपने गैस और तेल के लिए मुंबई और कराची के बंदरगाहों पर जाना ज्यादा पसंद करेंगी| जो महाशक्तियॉं दक्षिण एशिया के देशों के साथ अब तक बिल्लियों और लोमडि़यों की तरह पेश आती रहीं, उन्हें अल्लाह की गाय का रूप धरते देर नहीं लगेगी|
02 मार्च 2005
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