नवभारत टाइम्स, 16 दिसम्बर 2004 : दक्षेस को बने 20 साल हो गए लेकिन वह 20 कदम भी आगे नहीं बढ़ा| यदि यूरोपीय समुदाय और आसियान की तरह वह सफल हो जाता तो आज दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब लोग दक्षिण एशिया में नहीं होते| करोड़ों लोगों को अभाव और अशिक्षा से छुटकारा मिलता| दक्षेस के सातों राष्ट्रों की आपसी सुरक्षा सुदृढ़ हो जाती| आखिर वह आगे क्यों नहीं बढ़ पाया, यह ढाका में हुई एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी की चिंता का मुख्य विषय था| इस संगोष्ठी में बांग्लादेश, पाकिस्तान, नेपाल और श्रीलंका के विद्वानों ने भी अपने विचार रखे लेकिन मैंने अपने ‘मुख्य भाषण’ में दक्षेस की संपूर्ण अवधारणा पर ही पुनर्विचार का प्रस्ताव रखा, जिसे बांग्लादेश के अखबारों और टीवी चैनल ने अत्यधिक महत्व दिया, जो जरा आश्चर्यजनक है, क्योंकि मान्यता यह है कि बांग्लादेश का प्रचारतंत्र् अक्सर भारत-विरोधी तेवर ही अपनाए रखता है|
दक्षेस की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उसके पीछे कोई प्रेरक शक्ति नहीं है| यूरोपीय समुदाय और आसियान के पीछे स्वयं अमेरिका प्रेरक शक्ति रहा है| यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया के देश या तो अमेरिकापरस्त रहे हैं या अमेरिकी खेमे में रहे हैं जबकि दक्षिण एशिया के देश बँटे रहे| पाकिस्तान अमेरिकी सेन्य-शिविर में था जबकि भारत रूस का मित्र् था| दोनों महाशक्तियों ने अपने-अपने मित्रें की मदद तो की लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में क्षेत्र्ीय सहयोग बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया| दूसरा, पश्चिमी यूरोप में क्षेत्र्ीय सहयोग इसलिए भी बढ़ा कि उसके टक्कर में रूसी खेमे का कोमेकान नामक राष्ट्र-समूह था और द. पू. एशिया में चीनी और जापानी प्रतिद्वंद्विता का भय था| दक्षिण एशिया में इस तरह की कोई प्रतिस्पर्धात्मक चुनौती नहीं थी| तीसरा, यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं पहले से विकसित थीं और उनके विकास में ज्यादा अंतर नहीं था, जबकि दक्षिण एशिया के सातों देशों की अर्थव्यवस्थाएँ विकासमान थीं और उनका विकास भी असमान था| भारत के मुकाबले सारे देश काफी पिछड़े हुए थे और बहुत छोटे थे| असमान विकास की स्थिति में आपसी सहयोग प्राय: आसान नहीं होता| चौथा, यूरोपीय देशों में राजनीतिक व्यवस्थाएँ लगभग एक जैसी याने लोकतांत्र्िक थीं, जबकि दक्षिण एशिया में लोकतंत्र्, फौजतंत्र् और राजतंत्र् जैसी विविध और परस्पर विरोधी व्यवस्थाएँ चलती रही हैं| पाँचवाँ, हमारे राष्ट्रों में जातीय, भाषायिक, क्षेत्र्ीय और वर्गीय संघर्षों ने आंतरिक समाजांे को खोखला कर रखा है| आज भी नेपाल, श्रीलंका और कुछ हद तक पाक में गृह-युद्घ की स्थिति बनी हुई है| अंदर से हिले हुए राष्ट्र बाहय सहयोग की मनोदशा ही नहीं जुटा पाते| छठा, हमारे राष्ट्रों में प्रशासन और जवाबदेही इतनी कम है कि भ्रष्टाचार, अभाव और असंतोष बेलगाम होते जा रहे हैं| जब हम अपने राष्ट्रों को ही समृद्घ नहीं बना पा रहे तो पड़ौसी राष्ट्रों का समृत्थान कैसे करेंगे| सातवाँ, भारत और पाकिस्तान की प्रतिद्वंद्विता दक्षेस के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है| इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 20 साल में सिर्फ 12 शिखर सम्मेलन हुए| 20 क्यों नहीं हुए? क्या यूरोपीय समुदाय और आसियान में भी यही हुआ? आठवाँ, वैश्वीकरण के कारण दक्षिण एशिया की अर्थव्यवस्थाओं के बदलाव जरूर आ रहा है| वे एकरूप भी हो रही हैं और ख्ुुल भी रही हैं लेकिन किसके लिए ख्ुुल रही हैं? पश्चिम के मालदार देशों के लिए खुल रही हैं और इसका लाभ दक्षिण एशिया के कितने लोगों को मिल रहा है? मुट्ठीभर लोगों को! यदि वैश्वीकरण के कारण दक्षिण एशिया के 5-10 करोड़ लोगों का जीवन-स्तर सुधर भी जाए तो क्या यह ऊँट के मुँह में जीरा नहीं है? डेढ़ अरब के गरीबी के समुद्र में 5-10 करोड़ के टापू की क्या बिसात है और फिर दक्षेस क्या इतने छोटे-से वर्ग की हित-रक्षा के लिए ही बना है?
संगोष्ठी में आए अन्य विशेषज्ञों ने अनेक आर्थिक और कूटनीतिक हल सुझाए| इन हलों पर पहले ही सैकड़ों संगोष्टियाँ हो चुकी हैं लेकिन तब भी गाड़ी क्यांे अटकी हुई है? मैंने जो समाधान सुझाया, वह यह था कि सबसे पहले संपूर्ण दक्षिण एशिया को हम एक परिवार मानें| यह कपोल-कल्पना नहीं है| सदियों तक खुरासान से अराकान याने ईरान से बर्मा और तिब्बत से मालदीव तक हम लोग एक परिवार की तरह रहे हैं| एक संस्कृति, एक बाजार, एक जीवन-दृष्टि और एक ही सुख-दुख वाले हम डेढ़ अरब लोग फिर से अपने उस परिवार को याद करें और उसके आधार पर क्षेत्र्ीय सहयोग के नए आयाम खोलें| दक्षेस में ईरान, अफगानिस्तान, म्यांमार (बर्मा) और हो सके तो तिब्बत को भी जोड़ें| तिब्बत तो दक्षिण एशिया का अभिन्न अंग है लकिन वह संप्रभु राष्ट्र नहीं है| यदि इस विस्तृत परिवार के प्रति हमारे नेता और नौकरशाहों की थोड़ी भी ममता हो तो संदेह और साजिश के बादलों को उड़ने में देर नहीं लगेगी| हमारा भद्रलोक अपने देश में ही बेगाने की तरह रहता है| यदि वह दक्षेस को परिवार मानने को तैयार होगा तो उसके पहले अपने ही राष्ट्र को भी तो परिवार मानने का मन बनाएगा| अगर ऐसा होगा तो भ्रष्टाचार और गैर-जवाबदेही अपने आप घटेगी| राष्ट्र मजबूत बनेंगे| यदि सदस्य राष्ट्र सुदृढ़ होंगे तो उनका संघ-दक्ष्ेेास-क्या अपने आप सुदृढ़ नहीं हो जाएगा?
इस सपने को साकार करने के लिए अनेक ठोस कदम उठाए जा सकते हैं| सबसे पहला तो यह कि हर दक्षेस-शिखर सम्मेलन के साथ एक जन-दक्षेस (पीपल्स सार्क) का आयोजन हो, जिसमें सभी सदस्य राष्ट्रों के हजारों नागरिक भाग लें| हफ्ता भर साथ रहें| एक-दूसरे के घरों में रहें| नाचे-गाएँ, खाएँ- पीएँ, उत्सव मनाएँ| परिवार-भाव बढ़ाएँ| इस पहल का चमत्कारी प्रभाव होगा| हाथ-दाँत की अट्टालिकाओं से नीचे उतरकर दक्षेस आम लोगों के बीच सड़कों पर चलने लगेगा| दक्षेस के लिए सरकारों पर उत्तम दबाब बढ़ेगा| दूसरा, यदि यूरोपीय समुदाय में 25 भाषाएँ मान्य हो सकती हैं तो दक्षेस में हम सात भाषाओं को छूट क्यों नहीं दे सकते? तीसरा, दक्षेस के सविचालय को प्रभावी और स्वायत्त बनाया जाए| उसके खर्च की स्थायी व्यवस्था सभी सदस्य-राष्ट्रों की कस्टम की आमदनी में से की जाए| दक्षेस के अफसरों को दक्षिण एशियाई समाज के प्रति भक्ति की शपथ दिलवाई जाए| चौथा, इसी आधार पर यूरोपीय आयोग जैसी राष्ट्रोपरि संस्था की स्थापना की जाए| पाँचवाँ, एक ऐसी दक्षिण एशियाई संसद की स्थापना की जाए, जिसका काम फिलहाल विधि-निर्माण नहीं लेकिन केवल विचार-विमर्श करना हो| छठा, एक दक्षिण एशियाई चेम्बर ऑफ कॉमर्स और सांस्कृतिक केंद्र की भी स्थापना की जाए| सातवाँ, दक्षिण एशिया की सात प्रमुख समस्याओं के लिए ऐसे सात स्थायी आयोगों की स्थापना की जाए, जो उनका समाधान सुझाएँ और सिर्फ सुझाएँ ही नहीं, उन्हें क्रियान्वित भी करें| ये सात समस्याएँ हैं-रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, यातायात, और संचार!
इन आर्थिक मुद्दों पर प्रगति तभी हो सकती है जबकि हम शरीर से थोड़ा ऊपर उठें| पिछले 20 साल में हमने आत्मा की तलाश नहीं की| केवल शरीर में उलझे रहे| परिवार-भाव ही दक्षेस की आत्मा है| ढाका में हुई संगोष्ठी का उद्देश्य यह भी था कि 13 वें शिखर-सम्मेलन को कुछ मार्गदर्शन मिले| बांग्लादेश के अखबारों और विद्वानों ने उक्त विचारों को जिस दरियादिली से सराहा है और अब तक लगातार संपादकीयों द्वारा उन्हें जिस तरह का समर्थन दिया जा रहा है, उससे यह आशा बँधती है कि दक्षेस को नई दिशा मिलने के आसार बन रहे हैं|
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