R Sahara, 19 Nov. 2005 : जो लोग दक्षेस की तुलना ‘एसियान’ या ‘यूरोपीय आर्थिक समुदाय’ से करते हैं, वे तो निराश ही होंगे| वे कह सकते हैं कि दक्षेस का ढाका-सम्मेलन निरर्थक रहा| नेताओं ने गप्पे हांकने, भाषण झाड़ने और सैर-सपाटा करने के अलावा क्या किया? बरसों पुराने प्रस्ताव उन्होंने दुबारा पास कर दिए| गरीबी, आतंकवाद, मुक्त-व्यापार पर कौनसी ठोस पहल हुई? क्या दक्षेस के इस चिर-प्रतीक्षित सम्मेलन में यह भाव पैदा हुआ कि संपूर्ण दक्षिण एशिया एक परिवार है? क्या एक देश के सुख-दुख शेष दूसरे देशों के सुख-दुख बन गए? क्या ढाका से कोई ऐसी लहर उठी, जो बताए कि सवा अरब लोगों का दक्षिण एशिया किसी एक दिशा में बढ़ रहा है?
ये सब प्रश्न सही हैं लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘एसियान’ और ‘यूरोपीय समुदाय’ के मुकाबले दक्षिण एशिया की परिस्थितियां काफी अलग हैं| इन दोनों क्षेत्रीय संगठनों पर अमेरिका का वरद्-हस्त रहा है जबकि दक्षेस ‘अपुन भरौसे’ चल रहा है| इन संगठनों के सदस्य-राष्ट्र्रों के बीच उतनी विषमता नहीं है, जितनी भारत और उसके पड़ौसियों के बीच है| भारत से वे भयभीत हुए रहते हैं| दक्षिण एशिया के राष्ट्र्रों के बीच जितने गहरे राजनीतिक मतभेद रहे हैं, उतने इन दोनों क्षेत्रें के राष्ट्र्रों में नहीं रहे हैं| यही वजह है कि 20 साल बीत जाने के बावजूद दक्षेस डगमगाता हुआ चल रहा है| दौड़ना तो अभी दूर की बात है| 20 साल में सिर्फ 13 सम्मेलनों का होना इसका प्रमाण है| यह गनीमत है कि ढाका में 13वां सम्मेलन किसी तरह हो गया| टला नहीं|
बीस साल में पहली बार ऐसा हुआ कि दक्षेस की सदस्यता बढ़ी| अफगानिस्तान भी शामिल हुआ| यह आठवां सदस्य है| बर्मा (म्यांमार) अभी भी बाहर है| उसके आए बिना दक्षिण एशिया की कल्पना ही अधूरी है| यों तो ईरान को भी दक्षेस में आ जाना चाहिए, क्योंकि अरब देश उसे अपना नहीं मानते| वह पश्चिम एशिया का हिस्सा है भी और नहीं भी है जबकि ईरान के बिना दक्षिण एशिया का न तो भूगोल पूरा होता है और न ही इतिहास ! भाषा, संस्कृति और व्यापार की दृष्टि से भी ईरान भारतीय उप-महाद्वीप के साथ ज्यादा जुड़ा हुआ है| दूसरे शब्दों में दक्षेस का नैसर्गिक फैलाव खुरासान (ईरान) से अराकान (म्यांमार) तक और तिब्बत से मालदीव तक है| अफगानिस्तान और ईरान अगर दक्षेस के सदस्य हों तो कल्पना कीजिए कि गैस और तेल हमारे लिए कितने सस्ते हो जाएंगे| करोड़ों रु. का माल अफगानिस्तान और ईरान को ही नहीं, मध्य एशिया को भी भारत रोज़ निर्यात करेगा| अफगानिस्तान एशिया और यूरोप के बीच धन-सेतु का काम करेगा| अफगानिस्तान के दक्षेस-प्रवेश का भारत-पाक राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, यह अलग विवेचन का विषय है लेकिन यहां यह प्रश्न तो पूछा ही जा सकता है कि यदि दक्षेस निरर्थक है तो उसमें आने के लिए अफगानिस्तान लालायित क्यों था?
अफगानिस्तान के दक्षेस-प्रवेश को लेकर जो राजनीति हुई, उसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा| नेपाल ने अडंगा क्यों लगाया? नेपाल ने अफगान-प्रवेश और चीन को पर्यवेक्षक बनाने की बात को आपस में क्यों जोड़ दिया? अफगान-प्रवेश पर सारे सदस्यों की सहमति पहले से ही थी| पर्यवेक्षक के तौर पर चीन, जापान, एसियान, यूरोपीय समुदाय आएं तो आएं| उनका विरोध तो किसी ने कभी नहीं किया| लेकिन औपचारिक सर्वसम्मति की तो अभी भी जरूरत है| चीन पर्यवेक्षक ही बन सकता है, सदस्य नहीं| चीन को सदस्य बनाने का मतलब है, दक्षेस का दक्षिण एशियाई स्वरूप नष्ट करना| तब दक्षेस, दक्षेस नहीं, चक्षेस बन जाएगा| दक्षिण एशिया को चीनेशिया नहीं बनाना है| हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जिसे हम आज दक्षिण एशिया कहते हैं, वह प्राचीन भारत का ही आधुनिक रूप है| चीन इस क्षेत्र् से जुड़ना चाहता है, यह इस तथ्य का प्रमाण है कि दक्षेस की संभावनाएं असीम हैं|
ढाका सम्मेलन ने दोहरे कराधान, कस्टम्स और व्यापारिक विवादों को सुलझाने के समझौते किए हैं| इनसे यह संकेत मिलता है कि जनवरी 2006 से मुक्त-व्यापार का समझौता लागू हो जाएगा| उसकी राह आसान नहीं है| बांग्लादेश की जो कुछ झिझक थी, वह दूर हुई है लेकिन अभी कई मुश्किलें सामने आएंगी| भारत के पड़ौसी राष्ट्र्र कहेंगे कि वे कमजोर हैं, भारत उन्हें ज्यादा रियायतें दें याने वे भारतीय माल पर कर लगाएंगे लेकिन भारत उनके माल पर कर न लगाए| यह बात व्यापारिक दृष्टि से ठीक नहीं है लेकिन अगर भारत सारे दक्षिण एशिया के लोगों को अपना ही समझता है तो उसे यह नुक्सान बर्दाश्त करना होगा| इसी प्रकार गरीबी-निवारण कोष में भी भारत के अलावा कोई राष््रट्र्र कुछ नहीं दे रहा है| कोई बात नहीं| इस मामले में भी भारत ज्यादा बोझ उठाए तो कोई बुराई नहीं है| यदि दक्षिण एशिया के नेतागण गैर-सरकारी संस्थाओं को प्रोत्साहित करें तो ऐसे अनेक व्यक्ति और संस्थान सामने आ जाएंगे, जो करोड़ों रु. दान देंगे| यदि कम से कम 500 करोड़ रु. का कोष बनाया जाए और स्वयंसेवी संस्थाओं (जैसे ग्रामीण बैंक, सेवा, लोकाश्रय) के माध्यम से काम किया जाए तो अगले एक दशक में सभी दक्षिण एशियाई देशों से गरीबी का उन्मूलन किया जा सकता है| गरीबी-उन्मूलन में आपसी व्यापार और विनिवेश की भी महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है| व्यापार के मार्ग में एक बड़ी बाधा है, रास्तों का बंद होना ! म्यांमार की सस्ती गैस भारत इसलिए नहीं आ सकती कि बांग्लादेश रास्ता नहीं दे रहा, तुर्कमेनिस्तान और ईरान की गैस और पाइपलाइनें इसलिए भारत और बांग्लादेश नहीं जा सकती थीं कि पाकिस्तान रास्ता नहीं दे रहा था| इस तरह की शिकायतें नेपाल और बांग्लादेश को भारत से भी हैं| भूटान, नेपाल और अफगानिस्तान – ये तीनों राष्ट्र्र भूवेष्टित हैं| चारों तरफ जमीन से घिरे हैं| अपने रास्तों के लिए पड़ौसियों पर निर्भर हैं| इन्हें और अन्य राष्ट्र्रों को भी रास्ता मिले, यह गुहार इस बार भारतीय प्रधानमंत्री ने काफी जोर से लगाई है| उन्होंने तीसरे देशों को भी रास्ते देने के कर्तव्य को रेखांकित किया है| इस बारे में अगले दक्षेस तक कोई ठोस और सर्वसम्मत निर्णय हो जाए तो दक्षिण एशिया का चेहरा ही बदल जाएगा| मुक्त मार्ग के बिना मुक्त-व्यापार नहीं हो सकता| भारत और श्रीलंका ने मुक्त-व्यापार के द्विपक्षीय समझौते को जिस मुस्तैदी से लागू किया और उससे श्रीलंका को जैसा अपूर्व लाभ हो रहा है, वह भारत के सभी पड़ौसियों के लिए अनुकरणीय है| 14वें दक्षेस का अध्यक्ष भारत बन गया है| यह भारत पर निर्भर है कि वह इस प्रकि्रया को कितना तेज करता है|
आतंकवाद के उन्मूलन का संकल्प दुबारा किया गया है लेकिन पाकिस्तान के कमर कसे बिना इसे अमली जामा पहनाना असंभव है| अपनी अध्यक्षता का लाभ उठाकर भारत चाहे तो इस वर्ष जन-दक्षेस का आयोजन कर सकता है| भारत के प्रधानमंत्री यह तो चाहते हैं कि संपूर्ण दक्षिण एशिया के थल-मार्ग उसी तरह खुल जाएं, जैसे कि अंग्रेज के आने के पहले खुले रहते थे लेकिन आश्चर्य है कि उसी तज़र् पर वे दक्षेस का मुंह भी क्यों नहीं खोलते? दक्षेस के मुंह पर अंग्रेजी का ताला क्यों जड़ा हुआ है? दक्षेस सम्मेलन का संचालन स्वभाषाओं में क्यों नहीं करते?
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