रा. सहारा, 10 अप्रैल 2007 : दक्षेस का यह 14वाँ सम्मेलन पिछले 13 सम्मेलनों से कुछ बेहतर रहा| सबसे अच्छी औरपहली बात यह हुई है कि अफगनिस्तान दक्षेस में शामिल हुआ| यह काम दक्षेस की स्थापना के समय याने 22 साल पहले हीहो जाना चाहिए था| यदि दक्षेस का मतलब ‘दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ‘ है तो अफगानिस्तान के बिना दक्षिण एशियाकी कल्पना कैसे की जा सकती है? जिस समय दक्षेस की स्थापना हुई, अफगनिस्तान में साम्यवादी सरकार राज कर रही थी| पाकिस्तान उसका इतना विरोधी था कि वह उस समय उसे दक्षेस का सदस्य बनने ही नहीं देता| इसी प्रकार बाद में तालिबानीअफगानिस्तान दक्षेस के अन्य सदस्यों को स्वीकार नहीं था| पिछले छह वर्ष के करज़ई-शासन में अफगानिस्तान की छवि एकसार्वभौम, स्वतंत्र् और लोकतांत्र्िक राज्य की बन गई है| इसीलिए अफगानिस्तान का सभी दक्षेस-राष्ट्रों ने स्वागत किया|
अफगानिस्तान की सदस्यता ने ईरान और म्यांमार का रास्ता भी खोल दिया है| इन दोनों राष्ट्रों के बिना भी दक्षेस अधूरा है| अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) तक का क्षेत्र् अभी सौ साल पहले तक लगभग एक परिवार की तरह ही था| बिनापारपत्र् और बिना प्रवेश-पत्र् लोग आर्यार्वत्त के एक हिस्से से दूसरे हिस्से तक यात्र और व्यापार करते थे| इसी प्रकार त्र्िविष्टुप(तिब्बत) से मालदीव तक लोग मुक्त रूप से विचरण करते थे| दक्षेस में अफगानिस्तान के प्रवेश से अब एक नई संभावना काजन्म हो रहा है| क्यों नहीं तिब्बत, ताजिकिस्तान, सिंक्यांग जैसे क्षेत्रें को भी दक्षेस में जोड़ा जाए| दक्षेस केवल संप्रभु राज्यों कासंगठन नहीं है| यह क्षेत्र्ीय सहयोग का संगठन है| क्या तिब्बत, सिंक्यांग (शिन्च्यांग) और ताजि़कस्तान दक्षिण एशिया केअभिन्न अंग नहीं रहे हैं? इन क्षेत्रें को दक्षेस में लाने के लिए दक्षेस के घोषणा-पत्र् का संशोधन तो करना ही पड़ेगा, चीन कीसहमति भी लेनी पड़ेगी| अफगानिस्तान को दक्षेस में लाने के लिए दो दशक पहले मैंने जब मुहिम चलाई थी तो तत्कालीनशासनाध्यक्षों को बड़ा अजूबा लगा था, वैसा ही अब भी लग सकता है लेकिन वे इतिहास और भूगोल की अमिट सच्चाईयों कैसेनकार सकते हैं? यदि दक्षेस के आठ सदस्यों में कम से कम चार और जुड़ जाँए-ईरान, म्यांमार, तिब्बत और सिंक्यांग तो दक्षेसमेंं चार चाँद लग जाएँगे| आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक सहयोग के हजार फूल दक्षिण एशिया के बगीचे में खिल उठेंगे| माओ ने किसी और संदर्भ में सौ फूल खिलाने की बात कही थी लेकिन पूरे दक्षिण एशिया में ऐसे हजारों स्थानीय ठिकाने उठखड़े होंगे, जो राष्ट्रों के बीच आपसी सहयोग के सेतु बन जाएँगे| दक्षिण एशिया को मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और आग्नेयएशिया से जुड़ने के नए अवसर मिलेंगे|
14वें दक्षेस की दूसरी बड़ी खूबी यह रही कि इस बार अमेरिका, चीन, जापान, कोरिया, ईरान, यूरोपीय संघ जैसी आर्थिकशक्तियों ने पर्यवेक्षक की तौर पर भाग लिया| आश्चर्य है कि रूस क्यों नहीं आया? अगली बार उसे भी जरूर बुलाया जाए| जरूरी यह भी है कि आर्थिक सहयोग के जितने भी क्षेत्र्ीय संगठन हैं, सभी महाद्वीपों पर, उन्हें भी बुलाया जाए| अगले कुछवर्षों में ही दक्षेस की गणना दुनिया के सबसे शक्तिशाली और समृद्घ क्षेत्र्ीय संगठनों में होनेवाली है|
इस प्रक्रिया की शुरूआत भारत से हो रही है| भारत की अविरल आर्थिक प्रगति ने दक्षेस की छवि को नई महिमा से मंडितकर दिया है| प्रधानमंत्र्ी डॉ.मनमोहन सिंह ने दक्षेस के ज्यादा पिछड़े देशों के लिए कर-मुक्त व्यापार की जो घोषणा की है, उसमें भारत का आत्मविश्वास तो झलकता ही है, पड़ौसी देशों के तीव्र आर्थिक विकास की संभावनाएँ भी बढ़ जाएँगी| भारतका यह एकतरफा संकेत पाकिस्तान को असमंजस में डाले बिना नहीं रहेगा| अब पाकिस्तान ऐसा अकेला देश रह गया है, जोखुद को मुक्त-व्यापार व्यवस्था से अलग-थलग रखेगा| यह कितनी रोचक बात है कि जो पाकिस्तान भारत को घेरने के लिएदक्षेस राष्ट्रों पर डोरे डालता रहता था, अब वह खुद अकेला पड़ता चला जा रहा है| यदि भारत की तरह पाकिस्तान भी अपनेविदेश-व्यापार को कर-मुक्त कर दे और भारत के साथ मुक्त आर्थिक संबंध बना ले तो दक्षिण एशिया में चमत्कारी घटनाएँ घटसकती हैं| अभी दुनिया के साथ दक्षिण एशियाई देशों का व्यापार 350 अरब डालर का है, जबकि उनका आपसी व्यापार सिर्फ7 अरब डालर का है याने मुश्किल से दो प्रतिशत! क्षेत्र्ीय सहयोग के किसी भी संगठन के देशों का आपसी व्यापार इतना कमनहीं है, जितना हमारा है| यूरोपीय संघ का आपसी व्यापार 60 प्रतिशत है और एसियान का 20 प्रतिशत! पाकिस्तान के साथभारत का अघोषित व्यापार कई अरब डालर का है लेकिन यह या तो दुबई के जरिए होता है या तस्करी के जरिए| यदि यहीव्यापार सीधे तरीके से हो तो पाकिस्तानी जनता को भारतीय माल लगभग आधे दामों पर मिल सकता है| और बड़े पैमाने परमिल सकता है| डॉ.मनमोहन सिंह की एकतरफा पहल पाकिस्तानी सरकार को अपने आग्रह पर पुनर्विचार के लिए अवश्यप्रेरित करेगी| यह गनीमत है कि पाकिस्तान ने भारत की इस पहल की अभी तक आलोचना नहीं की है| इसे न तो उसनेविस्तारवादी जाल कहा है और न ही साम्राज्यवादी चाल!
दक्षेस के इस दिल्ली सम्मेलन में दक्षेस विश्वविद्यालय और फूड बैंक स्थापित करने के मुद्दों पर पाकिस्तान भी सहमत हुआ है| गरीबी उन्मूलन कोष को इस बार विकास-कोष का नाम दे दिया गया है| इस कोष में भारत ने 10 करोड़ डॉलर देने की घोषणाकी है| देखना है कि शेष सात देश कितनी राशि देते हैं| यदि पर्यवेक्षेक राष्ट्र चाहें तो शेष 20 करोड़ डॉलर का लक्ष्य पलकझपकते ही पूरा हो सकता है| इन तीन प्रमुख उपलब्धियों के अलावा दक्षेस राष्ट्रों ने प्रवेश-पत्र् (वीज़ा) की सुविधा बढ़ाने पर भीचर्चा की है| जाहिर है कि ये बस छोटे-छोटे कदम हैं लेकिन इनका महत्व इसलिए है कि ये भी 22 साल में पहली बार उठे हैं|
जिन बड़े मुद्दों पर दक्षेस को आगे बढ़ना चाहिए था, उन पर वह अभी भी अटका ही हुआ है| आतंकवाद सबसे गंभीर मुद्दा है| 12वें दक्षेस में उसके उन्मूलन का सबसे संकल्प किया था, लेकिन इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा है| अकेलेपाकिस्तान ने अन्य सदस्य-देशों की पहल को ठंडा कर दिया है| श्रीलंका, अफगानिस्तान और भारत की इच्छा था कि दक्षेसका कोई साझातंत्र् बने, जो आतंकवाद को जड़ से उखाड़े लेकिन पाकिस्तान आतंकवादियों को लौटाने की प्रत्यर्पण-संधि केलिए तैयार नहीं हुआ| अगर हो जाता तो जो सूची भारतीय गृहमंत्र्ी लालकृष्ण आडवाणी ने मुर्शरफ को सौंपी थी औरअफगान राष्ट्रपति हामिद करजई ने उसामा और मुल्ला उमर के पाकिस्तान मेंं रहने के जो आरोप लगाए थे, उनका समाधान होजाता| यहाँ संतोष की बात यही है कि प्रत्यर्पण संधि न सही, पाकिस्तान समेत सभी देशों ने यह मान लिया है कि शीघ्र ही‘आपराधिक मामलों में आपसी सहायता‘ के लिए एक दस्तावेज़ तैयार किया जाए| 14वें दक्षेस की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यहभी है कि इस बार आपसी कटुता और संदेह का माहौल बहुत कम दिखाई दिया| दिल्ली आने के दो दिन पहले हामिद करज़ईने न्यूयॉर्क टाइम्स से कहा था कि पाकिस्तान अफगानिस्तान को अपना उपनिवेश बनाना चाहता है| इसी प्रकार पाकिस्तानीप्रधानमंत्र्ी ने हमेशा की तरह पहले इस्लामाबाद और फिर दिल्ली में भी राग-कश्मीर छेड़ दिया था| लेकिन अ्रन्य अनेकदक्षेस शिखर सम्मेलनों की तरह इस बार किसी भी द्वियक्षीय मसले ने तूल नहीं पकड़ा और न ही कोई बदमज़गी पैदा हुई| यहतथ्य इसलिए भी रेखांकित हुआ कि इस दिल्ली-दक्षेस में सदस्यों राष्ट्रों के ज्यादातर प्रतिनिधि एक-दूसरे से लगभग अपरिचितथे| दूसरे शब्दों में नए खिलाडि़यों ने भी अच्छा खेल खेला|
दक्षेस के वर्तमान अध्यक्ष और भारतीय प्रधानमंत्र्ी ने 2008 को ‘सुशासन‘ का वर्ष घोषित किया है| आशा की जानी चाहिए किबांग्लादेश और नेपाल में अगले कुछ माह में ही राजनीतिक स्थिरता आ जाएगी| दोनों देशों में चुनावों के बाद लोकपि्रय औरवैधानिकि सरकारें कायम हो जाएँगी| इसी प्रकार पाकिस्तान में भी कुछ हद तक लोकतंत्र् का दायरा बढ़ेगा| हम यह न भूलेंकि यूरोपीय संघ की सफलता का रहस्य यह भी है कि उसके लगभग सभी देशों में एक-जैसी लोकतांत्र्िक सरकारें थी| दक्षिण एशियाई देशों में शासन-पद्घतियों की विविधता के बावजूद अगर वे गरीबी-उन्मूलन, चिकित्सा, शिक्षा, भूख-निवारण, आवास, बाढ़-नियंत्र्ण आदि के संयुक्त और समग्र कार्यक्रमों को लागू करने में जुट जाँए तो छोटे-मोटे आपसी विवादों को हलकरने का वातावरण अपने आप बन जाएगा|
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