नया इंडिया, 16 दिसंबर 2013: दिल्ली प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति क्या सिद्ध कर रही है? क्या यह नहीं कि सभी दलों और सभी नेताओं की प्राथमिकता का केंद्र दिल्ली की जनता नहीं, बल्कि वे स्वयं हैं? चुनाव-परिणाम आए हफ्ता भर हो गया और सरकार बनी नहीं। दिल्ली बिना सरकार के ही चल रही है। यदि सभी दल इसी तमाशे में लगे रहे तो अगले चुनाव तक याने अगले छह महिने तक दिल्ली बिना सरकार के चलती रहेगी। जनता की चुनी हुई सरकार के बजाय एक नामजद व्यक्ति, जिसे हम महामहिम उप राज्यपाल कहते हैं, प्रशासन करेंगे। दिल्ली देश का दिल है। उसका यह हाल हमारे नेतागण आखिर क्यों कर रहे हैं? क्या यह लोकतंत्र का मजाक नहीं है?
आप चाहें तो दिल्ली की जनता के माथे यह दोष मढ़ दें कि उसने ही तो त्रिशंकु विधान सभा दी है। अब वह अपने किए को भुगते। यह तर्क बोदा है। वोट डालने वाले को क्या पहले से पता होता है कि उसका वोट पाने वाले उम्मीदवार की पार्टी को बहुमत मिलेगा या अल्पमत? सिर्फ बहुमत का ख्याल करके वोट डाले जाएं तो यह मतदान के अधिकार का मजाक होगा। इसलिए चुनाव का जो भी निर्णय आया है, उसे सहर्ष स्वीकार करके दलों को आगे बढ़ना चाहिए।
आगे बढ़ने या सरकार बनाने की बजाय तीनों प्रमुख दल कबड्डी खेलते नजर आ रहे हैं। सबसे पहला दांव कांग्रेस ने मारा। ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन की घोषणा कर दी याने शिवाजी ने अफजल खान की पीठ बघनखों से चीर देने की तैयारी कर ली। क्या ‘आप’ वाले लोग इतने बुद्धू हैं कि वे इस ‘जहर की पुड़िया’ को निगल लेंगे? ‘आप’ ने भी नया पैंतरा मारा। उसने भाजपा और कांग्रेस के सामने अपनी 18 शर्ते रख दी और पूछा कि क्या आप बिना शर्त समर्थन करेंगे? दोनों पार्टियां कह रही हैं कि प्रभुजी, आप उल्टी गंगा क्यों बहा रहे हैं? लोग समर्थन देने के लिए शर्तें लगाते हैं और आप समर्थन लेने के लिए शर्त लगा रहे हैं? ऐसा भी कभी होता है? उसका मतलब साफ है। ‘आप’ की सरकार बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। ‘आप’ को पता है कि उसने सरकार बनाई नहीं कि उसका भट्टा बैठ जाएगा। अगले मध्यावधि लोकसभा चुनाव में कहीं की भी नहीं रहेगी। इस डरावनी संभावना से बचने के लिए ‘आप’ ने अभी बहुत ही ‘नायाब’ पैंतरा मारा है।
‘आप’ के लिए सबसे अच्छा विकल्प यही है कि वह स्वयं सरकार में नहीं रहे लेकिन अपना समर्थन सबसे बड़े दल ‘भाजपा’ को दे। अपने घोषणा-पत्र की व्यावहारिक शर्तों को लागू करवाए, वरना जब चाहे समर्थन वापस ले ले। दिल्ली की जनता की सेवा का संकल्प अगर सर्वोपरि है तो तीनों दल मिलकर एक संयुक्त सरकार क्यों नहीं कायम करें? यह एक कठिन आदर्श है। इसका पालन वे ही कर सकते हैं, जिनके लिए जनता आगे है और खुद पीछे हैं। लेकिन हमारे नेता तो सत्ता और भत्ता के खातिर राजनीति में हैं। उनके लिए सेवा गौण है। जिस दिन सेवा से सत्ता और सत्ता से सेवा की राजनीति शुरू होगी, कोई दूसरा ही भारत हमारे सामने होगा।
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