R Sahara, 09 Jan 2005 : श्री ज्योतींद्रनाथ दीक्षित से पहली भेंट आस्ट्रिया की राजधानी वियना में 1969 में हुई थी। वे हमारे दूतावास में प्रथम सचिव थे। भारतीय दूतावास का बोर्ड लगा देखा तो मैं अचानक अंदर चला गया। दीक्षित जी ने सम्मानपूर्वक बिठाया और कॉफी पिलाई। हिंदी में बात की और ‘धर्मयुग` का ताजा अंक खोलकर मेरे सामने रख दिया। उन्होंने कहा कि आज सुबह ही अफगानिस्तान पर आपका लेख पढ़ा। पिछले कई अन्य लेखों का भी जिक्र किया और मुझसे ‘स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़` का हाल पूछने लगे। उनके और मेरे कई प्रोफेसर समान ही थे। दीक्षित जी की हिंदी से मैं चकित था। एक तो मलया जी और फिर विदेश मंत्रालय के अफसर! हिंदी में सहूलियत उन्हें इसलिए भी थी कि उनकी मां श्रीमती रत्नमयी पिल्लई वर्धा से जब दिल्ली आईं तो बच्चे छोटे थे। वे यहां अच्छी हिंदी सीख गए। वे स्वयं रामेश्वरी नेहरू के आग्रह पर हरिजन-सेवा और हिंदी प्रचार के लिए दिल्ली आई थी। दिल्ली में सीताचरणजी दीक्षित से उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। सीताचरणजी गांधी जी के पत्रों में काम कर चुके थे। वे अक्सर ‘नवभारत टाइम्स` में मिलने आया करते थे। सादगी की प्रतिमूर्ति थे। धोती, कुर्ता, गांधी टोपी और चप्पल! उनका सचित्रा परिचय ‘हिंदी पत्राकारिता : विविध आयाम` में भी छपा है। मुझे कई वर्षों तक यह पता ही नहीं चला कि हमारे मित्रा जे.एन. दीक्षित और सीताचरणजी का क्या संबंध है। जे.एन. दीक्षित के छोटे भाई नरेंद्र दीक्षित पी.टी.आई. में मेरे साथी थे और मेरे पास ही बैठते थे। दीक्षित जी जब अपने भाई से मिलने आते तो कॉफी वे मेरे कमरे में बैठकर पीते थे।
यह संयोग की बात है कि जिन देशों में मेरी सक्रिय रूचि रही, उन्हीं देशों में वे राजदूत भी रहे। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और श्रीलंका! अफगानिस्तान में उनकी नियुक्ति के समय कुछ विवाद उठ खड़ा हुआ, उनके अपने पारिवारिक कारणों से। नरसिंहराव जी विदेश मंत्री थे। दीक्षित जी को थोड़ी गलतफहमी हो गई। एक दिन मैं जैसे ही राव साहब के कमरे से निकला, उन्होंने मुझे रोककर साफ शब्दों में अपनी खीज भी प्रकट कर दी। खीज स्वाभाविक थी, क्योंकि वे पहली बार राजदूत बन रहे थे और सारा मामला कई महीनों लटकता रहा। उन्होंने कहा, ”आपको काबुल जाना है, आप जाएं लेकिन मुझे अधर में क्यों लटका रखा है?` उनको मैंने जब सारी बात बताई तो वे शांत तो हुए लेकिन यह भी बोले कि ”मैं आप पर भरोसा तभी करूंगा, जब यह काम हो जाएगा।“ वे यथार्थवादी और निडर जो थे।
तीनों देशों में जिन वर्षों में वे राजदूत रहे, मुझे काफी सक्रिय रहना पड़ा। उन देशों के नेताओं से अक्सर मिलना होता था। लेकिन शर्त यह होती थी कि अपने प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री के अलावा किसी को भी कुछ न बताया जाए। राजदूत और विदेश सचिव को भी नहीं। दीक्षित जी को पता चलता तो शिकायत जरूर करते लेकिन उन्होंने गांठ कभी नहीं बांधी। संयोग ऐसा हुआ कि जब नरसिंहराव जी प्रधानमंत्री बने तो दीक्षित जी विदेश सचिव बने। हम लोगों को उन दिनों लगभग रोज ही मिलना होता था या बात करनी पड़ती थी। राजा दिनेश सिंह विदेश मंत्री बने, उसके कुछ दिन बाद ही उन्हें लकवा हो गया। अत: हम तीनों अक्सर शाम को राजा साहब के धर पर ही मिला करते थे। इतने वर्षों के साहचर्य में मैंने यह देखा कि दीक्षित जी अत्यंत प्रतिभाशाली और दूरंदेश अफसर थे। कर्मठ इतने थे कि उन्हें हम जो भी काम सौंपते थे, वे उसे अंजाम देकर ही दम लेते थे। जिस दिन राष्ट्रपति नजीबुल्लाह को काबुल में गिरफ्तार किया गया, दिल्ली में छिपे अफगान मुजाहिदीन ने यहां अफगान दूतावास को घेर लिया। वे अफगान राजदूत और उनके परिवार की हत्या पर आमादा थे। राजदूत अहमद सरवर नजीबुल्लाह के साढू भाई थे। नजीब के बच्चे भी उनके साथ थे। सरवर ने रात 12 बजे मुझे फोन किया। मैंने प्रधानमंत्री को जगाया। वे तिरूपति में थे। उन्होंने कहा कि आप केबिनेट सेक्रेटरी या फॉरेन सेक्रेटरी से सहयोग लें और अफगान राजदूत के परिवार को बचाएं। केबिनेट सेक्रेटरी किंकर्तव्यविमूढ़ और हतप्रभ हो गए। मैंने दीक्षित जी के घर फोन किया। दीक्षित जी की पत्नी ने बताया कि वे तोक्यो से अभी लौटे हैं। हवाई अड्डे से जैसे ही वे घर पहुंचते हैं, मैं बात करवाती हैं। दीक्षित जी से बात हुई। उन्होंने, ”अब आप निश्चिंत होकर सोइए। मेरी जिम्मेदारी है।` सुबह 8 बजे राजदूत सरवर ने अशोक होटल से फोन किया कि ‘हम बच गए। हम सुरक्षित हैं।` ऐसी एक नहीं, अनेक घटनाएं हुईं। हर चुनौती में दीक्षित जी हमेशा खरे उतरे।
इधर सेवा-निवृत्ति के बाद उनसे सेमिनारों में अक्सर भेंट हो जाया करती थी। चार-पांच साल पहले जब मैंने ‘भारतीय विदेश नीति परिषद` की स्थापना की तो वे उसके न्यासी सहर्ष बने लेकिन उन्होंने कहा कि आप अध्यक्ष बनें तो ही मेरा नाम रखें। परिषद् के कार्यक्रमों में हम कई बार साथ ही बोले। इस बीच विदेश नीति पर वे अखबारों में जमकर लिखते रहे। वे हिंदी के अखबार भी देखते थे। कई बार फोन करके मुझे बधाई देते थे। कांग्रेस में झिझकते-झिझकते शामिल हुए। पूछते थे कि मैंने ठीक किया या नहीं? मैं कहता था, अब डटे रहिए। हिलिए मत! संयोग ऐसा कि कांग्रेस की सरकार बनी और वे प्रधानमंत्राी के सुरक्षा सलाहकार बन गए। इस बीच हुई मेरी चारों विदेश यात्रााओं की जानकारी उन्हें विस्तार से थी। उन्हें अफसोस रहता था कि वे अखबारों के लिए लिख नहीं पाते थे। मेरे लेख भी यदा-कदा पढ़ते थे। दो-तीन बार उन्होंने खुद ही कहा कि यह पद ऐसा है कि लाख अच्छा काम करें, श्रेय नहीं मिलता और जरा-सी चूक हो जाए तो सब पीछे पड़ जाते हैं। वे बार-बार कहते थे कि अब मैं सत्तर का हो रहा हूं। बुढ़ा रहा हूं। वे पहले से काफी नरम हो गए थे। एक-दो पुस्तकें और लिखना चाहते थे लेकिन कहते थे, इस नए पद के कारण बिलकुल भी समय नहीं मिल पाता। इस बीच जब भी लंबी मुलाकातें हुईं, उन्होंने विदेश मंत्री नटवर सिंह के कुछ बयानों से ईमानदाराना असहमति तो व्यक्त की लेकिन उसमें कभी भी असम्मान या दुरभिसंधि की गंध दूर-दूर तक नहीं थी। वे एक देशभक्त और निष्ठावान अफसर थे। विदेश नीति के मामले में प्रधानमंत्राी प्रतिदिन उनसे परामर्श करते थे। नटवर जी के बाद वर्तमान विदेश नीति के कर्णधार वे ही थे। अफगानिस्तान और श्रीलंका में हमारी विदेश नीति से उन दिनों वे पूर्णतया सहमत नहीं थे लेकिन राजदूत के नाते उन्होंने उसका निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ किया। हमारे विदेश सचिवों में एक से बढ़कर एक अफसर हुए हैं लेकिन ज्योतींद्रनाथ दीक्षित का स्थान इसलिए असाधारण माना जाएगा कि दक्ष कूटनीतिज्ञ होने के साथ-साथ वे प्रतिभाशाली विचारक और प्रभावशाली लेखक भी थे। उनके कूटनीति-कर्म को जितना याद किया जाएगा, उससे ज्यादा उनके विदेश-नीति चिंतन, विश्लेषण और लेखन को याद किया जाएगा। भारत के सुदक्ष विदेश सचिवों में उनका स्थान अग्रणी माना जाएगा।
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