जनसत्ता, 11 अप्रैल 2005: भाजपा की रजत जयन्ती पर अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी का यह दावा अब भी सही है कि भाजपा-जैसी कोई अन्य पार्टी नहीं है| उनका तर्क यह है कि शेष सभी पार्टियॉं टूट चुकी हैं लेकिन भाजपा जबसे बनी है, टूटी नहीं है| सही सलामत है| कॉंग्रेस कई बार टूटी, कम्युनिस्ट पार्टी भी 1964 में टूटी, जनता पार्टी के भी अनेक टुकड़े हो गए लेकिन क्या वजह है कि भाजपा और उसकी पूर्व अवतार जनसंघ कभी नहीं टूटी? जनसंघ और भाजपा में भी बगावतें हुईं लेकिेन वे बलराज मधोक, कल्याणसिंह, वीरेंद्र सकलेचा और शं.सिं. वाघेला बनकर रह गईं| वास्तव में जनसंघ और भाजपा इसीलिए नहीं टूटीं कि उनका मूलाधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है| संघ के स्वयंसेवक को अनुशासन उसकी जन्मघुट्टी में पिलाया जाता है| यदि यह सत्य नहीं होता तो भाजपा को उसके पहले मुम्बई अधिवेशन में ही टूट जाना चाहिए था, जब अटलबिहारी वाजपेयी ने ‘गांॅधीवादी समाजवाद’ को अपनी पार्टी का वैचारिक आधार बनाया था| गॉंधीवाद और समाजवाद, दोनों ही संघी काबे में कुफ्र की तरह थे लेकिन स्वयंसेवकों की पार्टी ने उसे बर्दाश्त किया| अनुशासन में बॅंधे स्वयंसेवकों ने बलराज मधोक जैसे प्रतिभा के सूर्य का भी अनुगमन नहीं किया| सच्चाई तो यह है कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर अब तक भाजपा में आज तक ऐसा एक भी नेता नहीं हुआ, जिसका कोई अपना जनाधार रहा हो| जनाधार तो अटलजी का भी नहीं है| वे जनपि्रय जरूर हैं लेकिन अगर वे किसी मुद्दे पर पार्टी छोड़ देते तो वे भी क्या बलराज मधोक नहीं हो जाते? अर्थात्र भाजपा ऐसी पार्टी है, जिसमें दलाधार ही जनाधार है| यदि किसी नेता का दलाधार हिल गया तो उसका जनाधार तो अपने आप ही खिसक जाएगा| इसीलिए बड़े से बड़ा नेता भाजपा या जनसंघ को तोड़ने की हिमाकत नहीं कर सका| और आज इसी कारण उमा भारती भी अधर में लटकी हुई है|
पार्टी के नहीं टूटने का एक कारण वैचारिक भी है| टूटें तो जाऍं कहॉं? समान विचारवाली कोई दूसरी पार्टी तो है नहीं| भाजपा-जनसंघ के नेता और कार्यकर्ता उसमें रहते हुए दूसरी पार्टियों पर इतने सीधे प्रहार करते हैं कि टूटकर उनसे चिपकना लगभग असंभव-सा हो जाता है| यह बात भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पर भी लागू होती है लेकिन फिर भी वह क्यों टूट गई? उसकी वजह अंदरूनी नहीं, बाहरी थी| रूस और चीन के झगड़े ने उसे तोड़ा| कुछ रुकम्मू बन गए और कुछ चीकम्मू ! भाजपा के सिर पर इस तरह का कोई बाहरी मालिक कभी सवार नहीं रहा| इसीलिए वह नहीं टूटी| यही उसकी अनन्यता है लेकिन यह कैसी अनन्यता है? क्या ऐसी है कि उस पर इठलाया जाए?
इठलाए जाने लायक क्या है, इसमें? दूसरी पार्टियां तो टूटीं, लेकिन यह पार्टी तो समाप्त ही हो गई| जनसंघ का नामो-निशान ही मिट गया| दीपक हमेशा के लिए बुझ गया| उसकी जगह कमल उग आया| ‘जनसंघ’ नाम में क्या बुराई थी? क्या यही बुरा था कि ‘जन’ के साथ ‘संघ’ जुड़ा हुआ था? नाम के लिए ‘संघ’ को हटा दिया लेकिन क्या संघ को कोई आज तक हटा पाया? सत्ता-सुख और संघ-संबंध की दुविधा 25 साल पहले उजागर होने लग गई थी| वह अब भी ज्यों की त्यों बनी हुई है| सत्ता में पहुॅंचते ही भाजपा संघ को भूलती है और सत्ता से हटते ही उसे संघ की याद आने लगती है| छह साल पहले केंद्र में सत्तारूढ़ होते ही – मंदिर, समान संहिता और धारा 370 – ये तीन संघपि्रय मुद्दे ताक पर चले गए और अब रजत जयंती के अवसर पर दुबारा ‘जड़ों तक लौटने’ का मंत्र जपा जा रहा है| क्या भाजपा नेताओं को पता नहीं है कि वे जड़ों तक लौटेंगे तो पेड़ का तना, डालियॉं और फूल-पत्ते-सब सूख जाएंगे? उनके गठबंधन में कौन शामिल होगा? दुबारा ‘अछूत’ होने की नौबत पैदा हो जाएगी| कोरी जड़ों को हरा रखकर भाजपा क्या पा लेगी? क्या वह स्वयं जड़ नहीं हो जाएगी? भाजपा के वर्तमान नेतृत्व की सबसे बड़ी दुविधा यही है|
इस दुविधा को दूर करने के संकेत भाजपा-अध्यक्ष के भाषण में दूर-दूर तक नहीं मिलते| राम-मंदिर, जनसंख्या-विस्फोट और बांग्लादेशियों की घुसपैठ – ये तीन मुद्दे उनके भाषण में से निकलते हैं लेकिन क्या ये मुद्दे पूरे देश को हिला सकते हैं? ये मुद्दे सिर्फ हिंदू जनता पर असर कर सकते हैं और उसके भी छोटे-से हिस्से पर ! शहरी लोगों और ऊंची जातियों के अलावा इन मुद्दों पर कौन खांडा खड़काने को तैयार होगा? इसके अलावा क्या ये बासी कढ़ी नहीं है? घिसे-पिटे मुद्दे, चाहे कितने ही अच्छे हों, उन्हें कितनी बार उछाला जाएगा? एक ही चेक कितनी बार भुनाया जाएगा? भाजपा न वर्ग-संघर्ष में विश्वास करती है और न ही जाति संघर्ष में| क्या मज़हबी-संघर्ष उसे अखिल भारतीय बना सकता है? वह गुजरात जरूर पा सकती है लेकिन उसे भारत खोना पड़ेगा| कॉंग्रेस इसीलिए अखिल भारतीय बन सकी थी कि गॉंधी ने उसे वर्ग, जाति और मज़हब से ऊपर उठाया था| उसे राष्ट्रीय संघर्ष की पार्टी बनाया था| रजत जयंती के अवसर पर अगर पार्टी ने सचमुच गहन चिंतन किया होता तो वह ऐसे मुद्दे लेकर सामने आती, जिनमें पूरे भारत को हिलाने की क्षमता होती| जब तक पूरे भारत को हिलानेवाले मुद्दे लेकर भाजपा सामने नहीं आती, वह अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती| केवल कुछ हिंदी प्रांतों में प्रमुख और कुछ अहिंदी प्रांतों में वह दोयम दर्जे की पार्टी बनी रहेगी| संसद में उसका कभी साधारण बहुमत भी नहीं होगा| ऐसी पार्टी अभी पचास साल और बाद में सौ साल तक भी नहीं टूटी तो भी उसकी बिसात क्या होगी? उससे बेहतर तो कॉग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियॉं होंगी, जो टूटने के बावजूद पूरे भारत पर राज कर सकेंगी| वे एक-दूसरे पर प्रहार भी करती रहेंगी और मिल-जुलकर राज भी करती रहेंगी| उनका अंत:करण उन पर बोझ नहीं बनेगा|
लेकिन भाजपा का अंत:करण अपने ही बोझ से दबा जा रहा है| रजत जयंती बल्कि स्वर्ण जयन्ती (50 साल) के इस अवसर पर इस बोझ को उतारने का कुछ प्रयत्न होता तो लगता कि भारत सचमुच दो-धु्रवीय राजनीति की तरफ बढ़ता जा रहा है| जिसे आडवाणीजी दो-ध्रुवीय राजनीति कह रहे हैं, वह दो-धु्रवीय नहीं, दो बहुधु्रवीय राजनीति है| एक धु्रव में अनेक छोटे-मोटे ध्रुव ! कब छोटा धु्रव मोटा हो जाए और कब मोटा, छोटा हो जाए, कुछ पता नहीं| पहली अटल सरकार में शेर ने पॅूंछ को नहीं, पूंछ ने शेर को मरोड़ दिया| जयललिता भाजपा को ले बैठी| अब भी कॉंग्रेसियों को कम्युनिस्ट कब चित कर देंगे, कुछ पता नहीं| इसमें शक नहीं कि छह साल तक भाजपा ने गठबंधन के मृच्छकटिक (मिट्टी की गाड़) को चलाकर यह बता दिया है कि वाणी में चाहे वे उग्र हिन्दुत्वादी हैं लेकिन कर्म में वे सहिष्णु हिन्दू ही हैं| घालमेल की सरकार होने के बावजूद शासन-संचालन कुल मिलाकर बुरा नहीं रहा लेकिन बहुत चमत्कारी रहा हो, ऐसा भी नहीं है| यही हाल वर्तमान सरकार का भी है| 21वीं सदी के भारत के लिए यह शुभ नहीं है| यदि भारत को सचमुच महाशक्ति बनना है, भारत से दरिद्रता का उन्मूलन होना है और शोषणरहित राष्ट्र बनना है तो उसकी राजनीति को या तो दो-धु्रवीय होना होगा या अध्यक्षात्मक होना होगा| या तो पूरे भारत में दो दल हों या फिर अमेरिका की तरह राष्ट्रपतीय प्रणाली हो| इस तरह की कोई संभावना भाजपा ने व्यक्त नहीं की| अध्यक्षीय भाषण और 24 पृष्ठीय कार्य-योजना पुस्तिका से यह पता नहीं चलता कि भावी भारत के बारे में भाजपा का नक्शा क्या है? दोनों दस्तावेजों में यह तो बार-बार कहा गया है कि भाजपा को फलॉं-फलॉं लोगों और इलाकों में फैलना है, लेकिन कैसे फैलेंगे, यह नहीं बताया गया है| जितना जोर अल्पसंख्यकवाद, बांग्ला घुसपैठियों और एतिहासिक कुकर्मो के विरुद्घ लगाया गया है, यदि उतना गरीबों, ग्रामीणों, उपेक्षितों आदि के लिए लगाया जाता तो माना जाता कि भाजपा नए इलाकों और नए लोगों में अपनी जड़ें जमाने पर आमादा है| भाजपा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा तो लगाती है लेकिन वह यह नहीं बताती कि संस्कृति का अर्थ क्या है? संस्कृति की रक्षा के क्या-क्या उपाय हैं, वह यह भी नहीं बताती| संस्कृति की रक्षा के लिए उसके कार्यकर्ता क्या करें और सरकार क्या करे, यह भी स्पष्ट नहीं है| हिंदी को तो वह बिल्कुल भूल ही गई है| सबसे अधिक निष्ठावान कार्यकर्ताओं की फौज भाजपा के पास है लेकिन उसके पास कोई काम नहीं है, सिवाय इसके कि वह भी कॉंग्रेसियों की तरह सत्ता का छींका गिरने का इंतज़ार करती रहे| पार्टी-अध्यक्ष ने कार्यकर्ताओं को कुछ रचनात्मक कार्यों के लिए प्रेरित जरूर किया है लेकिन उन्हें वे आंदोलनात्मक दिशा नहीं दे पाए हैं|
जहॉं तक नेताओं का प्रश्न है, भाजपा-अध्यक्ष ने कांग्रेस के वंशानुगत और विदेशी मूल के नेतृत्व का मामला फिर से उठाया है लेकिन खुद भाजपा का क्या हाल है? अटलजी कहते हैं कि वे ऊब गए है| आडवाणीजी की सेहत अभी ठीक है लेकिन उनकी भी एक सीमा है| पहली पंक्ति से डॉ. मु.म.जोशी पता नहीं क्यों बाहर हो गए हैं| दूसरी पंक्ति में दंगल ही दंगल है| वैंकय्रया , सुषमा, जेटली, प्रमोद, उमा, राजनाथ सिंह, नरेंद्र मोदी पता नहीं कितने शेर एक साथ दहाड़ रहे हैं| ज़रा मार्क्सवादी पार्टी को देखिए ! 90 वर्षीय सुरजीत का ताज प्रकाश कारत के सिर पर आ रहा है लेकिन ज़रा-सी खुसफुसाहट भी नहीं है| याने भाजपा का हाल कॉंग्रेस से भी बदतर है| कॉंग्रेसियों को पता है कि उनका मालिक कौन है लेकिन भाजपाई नहीं जानते कि पॉंच साल बाद उनकी नाव का खेवनहार कौन होगा? राष्ट्रयी , प्रांतीय और स्थानीय स्तर पर सत्ता की खींच-तान शुरू हो गई है| याने पहले मैं, फिर पार्टी और देश रामभरोसे ! कॉंग्रेसियों और भाजपाइयों में क्या अंतर रह गया है? उनका रहन-सहन, खान-पान, चाल-चलन सब एक-जैसा हो गया है| दोनों दल प्रबंधकीय राजनीति के बंधक होते जा रहे हैं| दोनों दल पॉंच-सितारा संस्कृति के प्रेमी बन गए हैं| दोनों दलों में विचार शून्यता का बोलबाला है| आचारशून्यता भी एक-जैसी है| दोनों दल सत्तारूढ़ होते ही अपनी लगाम नौकरशाहों के हाथों थमा देते हैं| इसे दो-ध्रुवीय राजनीति कहें कि एकध्रुवीय ! सिर्फ टोपियॉं अलग-अलग हैं, चेहरा तो एक ही है| इस मुकाम पर पहुंचने में कॉंग्रेसियों को सवा सौ साल लगे और जनसंघियों को 50 साल ! यह रफ्तार अच्छी है| कॉंग्रेस पीछे-पीछे और भाजपा आगे-आगे ! शाबाश भाजपा !!
ये दोनों पार्टियां एक ही सिक्के के दो पहलू बन गई हैं| जैसे अमेरिका में डेमोक्रेट और रिपब्लिकन और बि्रटेन में लेबर और कंसर्वेटिव ! इसमें भी कोई खास बुराई नहीं है| चिंता की बात केवल यही है कि पूरे भारत में एक भी पार्टी अखिल भारतीय नहीं है| भारत-जैसा विशाल राष्ट्र पैबंद लगी चादर-जैसा हो गया है| भारत को जोड़नेवाली ताकत केवल नौकरशाही रह गई है, राजनीतिक दल नहीं| सोवियत संघ से अधिक सुदृढ़ नौकरशाही और फौज दुनिया के किस देश में थी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के बिखरते ही सोवियत साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया| यह अजूबा है कि भारत की पैबंद लगी चादर फट नहीं रही लेकिन भारत का यह दुर्भाग्य है कि कॉग्रेस डूब रही है और भाजपा उभर नहीं पा रही है| दोनों पार्टियॉं नहीं जानतीं कि उनकी बैसाखियॉं कैसे छूटेंगी| इसे किनारा नहीं मिल रहा है और उसको कश्ती नहीं मिल रही है|
Leave a Reply