दैनिक भास्कर, 30 अप्रैल, 2005 : 2005 के बांडुंग और 1955 के बांडुंग में क्या फर्क है? इन 50 सालों में दुनिया ही बदल गई| अगर नहीं बदलती तो इस बांडुंग का धामका किसी परमाणु बम से कम नहीं होता| अभी बांडुग में 106 राष्ट्र मिले, भाषण हुए, घोषण भी हुई लेकिन वहॉं क्या हुआ और क्या नहीं, इसकी दुनिया को खास परवाह नही! 50 साल पहले एशिया और अफ्रीका के जो देश बांडुंग में मिले थे, उनकी संख्या 50 भी नहीं थी| सिर्फ 29 थी लेकिन उस सम्मेलन ने सारी दुनिया मे कॅंपकॅंपी दौड़ा दी थी| आइज़नहावर और डलेस की कोशिश थी कि नेहरु, नासिर, नाक्रूमा और सुकर्ण के नेतृत्व में एशिया और अफ्रीका कहीं सोवियत संघ के मोहरे न बन जाऍं| उन्होंने तुर्की, पाकिस्तान, फिलीपीन्स जैसे राष्ट्रों को पटटी पढ़ाई और ऐसे प्रस्ताव भी पारित करवा लिए अमेरिका के सैन्य-शिविरों का विरोध न हो लेकिन उस बांडुग ने ही अंततोगत्वा 1961 में गुट-निरपेक्ष आंदोलन को जन्म दिया|
क्या हम वर्तमान बांडुंग से आशा करें कि वह किसी नए आंदोलन को जन्म देगा? नए आंदोलन की विचारभूमि तो भारत ने अवश्य तैयार की है| लेकिन एशिया और अफ्रीका में आज कोई ऐसा देश या नेता नहीं है, जिसकी विश्व-छवि हो और जो तीसरी दुनिया को अपने पैरों पर खड़ा कर सके| बांडुंग सम्मेलन ने जो 9 सूत्री घोषणा की है, यदि उस पर अमल करना हो तो तीसरी दुनिया के देशों को सबसे पहले अमेरिका से टक्कर लेनी होगी, आपसी सहयोग बढ़ना होगा और अपनी आंतरिक व्यवस्थाओं को सुधारना होगा| यह ठीक है कि इन देशों के लिए भारत एक नमूना बन सकता है लेकिन अकेले भारत के पास शक्ति नहीं कि वह इन देशों को सामूहिक तौर पर एक साथ आगे बढ़ा सके| गुट-निरपेक्षता के ज़माने में भी ये देश एकजुट नहीं हो सके तो अब क्या होगें? उस समय तो दुनिया दो-ध्रुवीय थी| अब ध्रुव नीचे धॅंस गया है| केवल एक ध्रुव बचा है| वह है, अमेरिका| सारी दुनिया इसी जुगाड़ में लगी है कि इस एक मात्र ध्रुव के साथ अपनी गोटी कैसे बिठाऍं ? न भारत इसका अपवाद है न चीन ! अब न कोई माओ त्से तुंग है और न नेहरु ! अकेले भारत से क्यों उम्मीद की जाए कि वह अपने राष्ट्रहितों की हानि करके तीसरी दुनिया का ‘हीरो’ बने ? इसीलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के भाषण में उकेरी गई नए विश्व की रुप-रेखा तर्कसंगत होते हुए भी केवल रुप रेखा ही बनी रहेगी| उसे असली जामा पहनाने का आंदोलन कौन चलाएगा? वैश्वीकरण के नाम पर हम अमेरिका को अपने कंधों पर न लदने दें और तीसरी दुनिया के देश आपसी सहकार बढ़ाएं या ऊर्ध्व वैश्वीकरण की बजाय समतलीय वैश्वीकरण करें, यह कह देना जितना आसान है, उसे कर दिखाना उतना ही कठिन ळे| एशिया और अफ्रीका में क्या एक भी देश है, ऐसा जिसमें एक साथ दो देश जिंदा न हों, दो तरह की जिंदगियां न चल रहीं हों, सम्पन्नों और विपन्नों की खाइयां न हों| इस आंतरिक उपनिवेशवाद की ही कृपा है कि हर देश खुद को कितना ही क्रांतिकारी बताए, उसका सत्ताधारी भद्रलोक पश्चिम के साथ प्राणपण से जुड़ा हुआ है| वैश्वीकरण के साथ उसका नाभि-नाल संबंध है| पहले बांडुंग के ज़माने में तीसरी दुनिया का सबसे बड़ा शत्रु बाह्रय-उपनिवेशवाद था और इस दूसरे बांडंुग के ज़माने में उसका सबसे बड़ा शत्रु आंतरिक उपनिवेशवाद है| इस उपनिवेशवाद के खिलाफ कौन लड़ रहा है? चीन और ईरान जैसे देश, जो कभी अमेरिका को बड़ा शैैतान और सोवियत संघ को छोठा शैतान कहा करते थे, वे भी इसी प्रवाह में बहे जा रहे है| इस आंतरिक उपभोक्तावाद के पागलपन पर कौन लगाम लगाएगा ? जैसे अमेरिका सारी दुनिया में सबसे अधिक बिजली, सबसे अधिक तेल, सबसे अधिक भोजन, सबसे अधिक कपड़ा और लगभग हर चीज़ सबसे अधिक इस्तेमाल करता है, वैसे ही राष्ट्रों के मुळी भर लोग भी इन्हीं अमेरिकियों के भाईबंद हैं| वे भी एशो-आराम की हर चीज़ पर कब्जा जमाए हुए हैं| उन्हें सीधे रास्ते पर कौन लाएगा ? हमारे बीच कोई गॉंधी, कोई खुमैनी, कोई हो ची मिन्ह नहीं है| बांडुंग की तोप से दागे गए गोले तीसरी दुनिया के मुह की मक्खियां भी नहीं उड़ा सकते| इसीलिए इस बांडुंग से किसी चमत्कारी परिणाम की आशा करना उचित नहीं है|
फिर भी समापन घोषणा के अनुसार यदि हर चार साल में एक बार सभी राष्ट्राध्यक्ष और हर दो साल में सभी विदेश मंत्री मिलते रहें तथा अन्य मंत्री और अफसर यथासमय परस्पर संपर्क करते रहें तो माना जाएगा कि गुट-निरपेक्ष सम्मेलन किसी न किसी रुप में जिंदा है| अब उसकी लड़ाई गुटों से नहीं, खुद से है| वह खुद को सुधारने में जुट जाए तो उसे अमेरिका से भी डरने या लड़ने की की जरुरत नहीं पड़ेगी| यदि तीसरी दुनिया के ये देश आपस में लड़ना बंद कर दें तो अमेरिका की चौधराहट खुद ही चौपट हो जाएगी| उससे हथियार कौन खरीदेगा ? हथियारों की खरीद पर जो पैसा खर्च होता है, वह देश के विकास पर खर्च पर होगा| विदेशी पूंजी के आगे घुटने टेकने की जरुरत नहीं होगी| वैश्वीकरण का रुप ऊंचा-नीचा नहीं, समतलीय अपने आप बन जाएगा|बांडुंग-घोषणा विश्व शांति और विश्व-सुरक्षा के लिए चिंतित तो बहुत दिखाई पड़ती है लेकिन उसने यह मॉंंग दबी जुबान से भी पेश नहीं की कि महाशक्तियां अपने परमाणु हथियार खत्म करें| उसने महाशक्तियों से कुछ भी कुर्बानी करने का आग्रह तक नहीं किया| गुट-निरपेक्ष सम्मेलनों के प्रस्तावों की तरह कुछ कागजी गोले भी बांडुंग ने नहीं दागे| जो कुछ चमकदार गोले दिखाई पड़ते हैं, वे भी साबुन के झाग की तरह हैं| कहीं ऐसा तो नहीं कि बांडुंग का यह पचासवां साल गुट-निरपेक्षता का श्राद्घ-समारोह बनकर रह जाए !
रह जाए तो रह जाए| फिलहाल हमारे प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री का बांडुंग जाना अपने में काफी सार्थक सिद्घ हुआ| नेपाल के राजा से अबोला टूटा | ढाका हमने इसीलिए नहीं होने दिया कि राजा से मिलना पड़ता| बांडुंग में नेपाल के राजा हमारे प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री से सिर्फ मिले ही नहीं, अपने लिए उन्होंने सैन्य-सहायता भी शुरु करवा ली| बांग्ला विदेश मंत्री को दक्षेस सम्मेलन बुलाने की हरी झंडी भी मिल गई| मुशर्रफ से दुबारा मुलाकात हुई और भारत-पाक भाषणों में सद्रभाव की गंगा वही| भारत के प्रधानमंत्री को एशिया का प्रतिनिधित्व करने का गौरव मिला, यह भी कम बड़ी बात नहीं| चीन और जापान के रहते इस तरह का अवसर मिलना असाधारण प्रतिष्ठा का प्रतीक है| भारत की आर्थिक प्रगति ओर लोकतांत्र्िाक व्यवस्था मणि-कांचन योग की तरह है| जो राष्ट्र भारत के प्रति शत्रुता और प्रतिद्वंदिता का भाव रखते हैं, वे भी इस मणि-कांचन योग पर मोहित हैं| 106 एशियाई-अफ्रीकी राष्ट्रों में से क्या आधा दर्जन भी ऐसे हैं, जहां आर्थिक प्रगति और लोकतंत्र हाथ में हाथ डालकर चल रहे हों ? इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि भारत तीसरी दुनिया का अधोषित नेता अपने आप बन जाए ! भारत की यह अनायास उपलब्धि उसे विश्व की महाशक्तिों की महफिल में बिठाने में काफी मददगार साबित होगी| यदि महाशक्ति की तौर पर भारत उभर आया तो फिर तीसरी दुनिया को अपने अंधकूप में से उबरने में ज्यादा देर नहीं लगेगी|
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