Dainik Bhaskar(BHOPAL), 09 March 2011 : आज सारा देश सदमे में है। वर्तमान सरकार की प्रतिष्ठा जितनी तेजी से पेंदे में बैठती जा रही है, आज तक किसी सरकार की नहीं बैठी। चीनी हमले और बोफोर्स के वक्त भी देश को धक्का लगा था, लेकिन दोनों प्रधानमंत्रियों की बाती बुझते-बुझते दो-ढाई साल लग गए थे। आज तो ऐसा लग रहा है, जैसे कोई जगमगाता बल्ब अचानक फ्यूज हो गया है। लोग पूछ रहे हैं कि इतने स्वच्छ प्रधानमंत्री की सरकार इतनी भ्रष्ट कैसे हो सकती है? वे इसी सवाल को जब उलटकर पूछते हैं तो वह और भी प्राणलेवा बन जाता है। वे पूछते हैं, इतनी भ्रष्ट सरकार का प्रधानमंत्री स्वच्छ कैसे हो सकता है? जिसकी छत्रछाया में भ्रष्टाचार फल-फूल रहा हो, उसे आप क्या कहेंगे?
इसमें शक नहीं कि आजकल सीरियल ब्लास्ट की तरह एक के बाद एक घोटाले सामने आते चले जा रहे हैं। पिछले छह माह में इतने घोटाले सामने आ गए हैं कि उन्होंने पिछले साठ साल के घोटालों को पीछे छोड़ दिया है। वर्तमान सरकार के ज्ञात घोटालों की राशि का कुल जोड़ अब तक की सभी सरकारों के घोटालों की राशि से कहीं ज्यादा है। यदि इस राशि में उस राशि को भी जोड़ लिया जाए, जो स्विस बैंकों में जमा है तो अगले 10-15 साल तक भारत के किसी भी नागरिक को कोई भी टैक्स देने की जरूरत नहीं है। यह राशि इतनी बड़ी है कि इसके मुकाबले अंग्रेजों द्वारा की गई भारत की लूट भी छोटी मालूम पड़ती है।
अब तक देश यह समझ रहा था कि प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह आखिर क्या कर सकते हैं? वे तो गठबंधन सरकार के प्रधानमंत्री हैं। स्वयं डॉ सिंह ने यह बात कई बार कही है। वे सहयोगी पार्टियों के मंत्रियों को पकड़ लेते या बर्खास्त कर देते तो उनकी सरकार गिर जाती! लेकिन भ्रष्टाचार क्या सिर्फ द्रमुक के ए राजा तक ही सीमित था? उच्चतम न्यायालय ने केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस के मामले में सीधे प्रधानमंत्री पर आक्षेप किया है। थॉमस जैसे विवादग्रस्त अफसर को सतर्कता आयुक्त बनाना मामूली भूल नहीं है। यह जघन्य अपराध है। यह अपराध भी तब किया गया, जबकि विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने लिखकर चेता दिया था। सुषमा की आपत्ति को निरस्त करते हुए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने थॉमस को ऐसे पद पर नियुक्त कर दिया, जिसका काम देश के सारे भ्रष्टाचारियों पर निगरानी रखना है। जिस व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है, वह देश के भ्रष्टाचारियों पर निगरानी रखेगा, यह तय करने वाले नेताओं को अपने पदों पर बने रहने का कितना नैतिक अधिकार रह गया है? क्या वे इस लायक हैं कि उन्हें ऐसे या इनसे भी ज्यादा महत्वपूर्ण निर्णय करने दिए जाएं? गठबंधन की किस सहयोगी पार्टी ने थॉमस की नियुक्ति के लिए आपको मजबूर कर दिया था? गठबंधन की कौन-सी ऐसी पार्टी है, जो आपको स्विस बैंकों से भारतीय पैसा वापस लाने को मना कर रही है?
गठबंधन धर्म की अपनी मजबूरियां हैं, लेकिन क्या गठबंधन धर्म राजधर्म से भी बड़ा है? गठबंधन का डर बिल्कुल निराधार है। यदि सचमुच कोई सच्चा नेता आज प्रधानमंत्री होता तो गठबंधन पद्धति को इस समय वह जड़-मूल से उखाड़ फेंकता। यदि आज से तीन-चार माह पहले ही राजा को गिरफ्तार कर लिया जाता तो क्या होता? द्रमुक गठबंधन से निकल जाती। उसी वक्त गठबंधन तोड़कर चुनाव करवा दिए जाते तो अकेली कांग्रेस को 350 से ज्यादा सीटें मिलतीं। मनमोहन सिंह इतिहास पुरुष बन जाते, लेकिन उन्होंने जो रास्ता चुना, वह उन्हें इतिहास का पुरुष बना देगा। कैसी विडंबना है इस समय गठबंधन का जो संकट है, वह भ्रष्टाचार के कारण नहीं है, सीटों के बंटवारे के कारण है। हमारी पार्टियों को भ्रष्टाचार की चिंता नहीं है, कुर्सी की चिंता है।
ए राजा, इसरो और थॉमस के मामलों में प्रधानमंत्री ने कहा है कि वे कहीं आंशिक दोषी हैं और कहीं पूर्ण दोषी! इतना कह देना काफी है क्या? विपक्ष की नेता प्रधानमंत्री की इस विनम्रता पर मुग्ध हैं तो ये उनका आपसी मामला है। लेकिन जरा देश के करोड़ों लोगों से पूछिए, अपनी ही पार्टी के लोगों से पूछिए और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं से भी पूछिए। सब के सब ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। प्रधानमंत्री का चेहरा आजकल जब टीवी चैनलों पर दिखाई पड़ता है तो उनकी तरफ देखने की बजाय जरा दर्शकों के चेहरों की तरफ देखिए। आप दंग रह जाएंगे। उनके चेहरों पर सहानुभूति नहीं, जुगुप्सा के भाव तैर रहे होते हैं। स्वयं प्रधानमंत्री दया के पात्र-से दिखाई पड़ते हैं। असहाय, निरुपाय, परम कारुणिक! ऐसा क्यों हो रहा है?
इसलिए कि मनमोहन सिंह नेता नहीं हैं, केवल अर्थशास्त्री हैं। और उससे भी ज्यादा वे नौकरशाह हैं। यदि वे नेता होते तो भ्रष्टाचार पर टूट पड़ने का स्वर्णिम अवसर क्यों गंवा देते? उन्होंने भारत-अमेरिका परमाणु सौदा करवाने के लिए अपनी सरकार खतरे में डाल दी, लेकिन भ्रष्टाचार पर हमला बोलने के लिए वे कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहते? यदि वे भ्रष्टाचार पर हमला बोलेंगे तो प्रकारांतर से देश के नेताओं पर ही हमला बोलेंगे। ये वे ही नेता हैं, जिन्होंने एक अ-नेता को देश की गद्दी पर बिठाया और टिकाया हुआ है? भला, सेठों को अपने मुनीम से डरने की क्या जरूरत? पक्ष व विपक्ष दोनों चाहते हैं कि मनमोहन टिके रहें। यदि वे रहेंगे तो नेताओं का कोई बाल बांका नहीं कर सकता। भ्रष्टाचार बढ़ता चला जाएगा, जांच कमेटियां भत्ते खाती रहेंगी और सरकार इतनी बदनाम हो जाएगी कि बिना कुछ किए हुए ही सांपनाथ की जगह नागनाथ आ बैठेंगे। विपक्ष की भी चांदी है। दोनों हाथों में लड्डू हैं।
भ्रष्टाचार के विरुद्ध अगर इस समय कोई खड्गहस्त है तो वह सिर्फ न्यायपालिका और खबरपालिका ही हैं। कार्यपालिका और विधानपालिका तो मिलीभगत में शामिल हैं। अदालतों और अखबारों की भी अपनी सीमा है। वे सिर्फ राय प्रकट कर सकते हैं। भ्रष्टाचार का उन्मूलन यदि कोई करेगा तो वह भारत की जनता ही करेगी। ऐसी जनता जो नेताओं और राजनीतिक दलों के काबू से बाहर है। जो स्वयं भ्रष्ट नहीं है और भ्रष्टाचार जिसके लिए सिर्फ खबर नहीं है। यह वह जनता है, जो सांपनाथ की जगह नागनाथ को बिठाकर खुश नहीं होगी। वह उस पूरी व्यवस्था को उलट देगी, जो भ्रष्टाचार की जननी है। देश को उसी घड़ी का इंतजार है।
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