राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने इस वर्ष दशहरे पर जो भाषण दिया, उसमें ज्यादा ध्यान जनसंख्या के मुद्दे पर गया। उसकी चर्चा सबसे ज्यादा हुई। इस मुद्दे को लोगों ने ज्यादा तूल दिया कि उन्होंने अल्पसंख्यकों की बढ़ती आबादी पर आक्षेप क्यों किया? यह आक्षेप तो इसीलिए किया जाता है कि भारत-विभाजन के वक्त मजहबी संख्या-बल के तर्क के तीर सबसे ज्यादा छोड़े गए थे। यहां असली सवाल यह है कि देश में सबसे ज्यादा किनकी जनसंख्या बढ़ रही है? सबसे ज्यादा बच्चे किनके पैदा होते हैं? क्या आपने पढ़े-लिखे और संपन्न पति-पत्नी के छह-छह आठ-आठ बच्चे होते हुए कहीं देखे हैं ? नहीं। (two child policy RSS)
ये बच्चे होते हैं— गरीबों, ग्रामीणों, मजदूरों, अशिक्षितों के परिवारों में। जाहिर है कि ऐसे लोगों में सबसे ज्यादा लोग वे हैं, जो पिछड़े हैं, अल्पसंख्यक हैं, मेहनतकश हैं। देश के मुसलमान इसी वर्ग में आते हैं। जो मुसलमान संपन्न हैं, पढ़े-लिखे हैं, शहरी हैं, क्या उनके घरों में दर्जन-आधा दर्जन बच्चे आपने कभी देखे हैं? यह मामला जाति और मजहब का नहीं, गरीबी और अशिक्षा का है। भारत में यों तो जनसंख्या की रफ्तार पहले के मुकाबले घटी है, खासतौर से मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों, जैनों और बौद्धों की। लेकिन इसके बावजूद लगभग सवा दो करोड़ लोग हर साल बढ़ जाते हैं।
इस समय भारत की जनसंख्या 140 करोड़ को छू रही है। शीघ्र ही भारत चीन से आगे निकलने वाला है। इस समय भारत में जनसंख्या घनत्व काफी ज्यादा है। दुनिया की कुल जनसंख्या की 15 प्रतिशत आबादी भारत में रहती है और उसके पास दुनिया की कुल 2.4 प्रतिशत जमीन ही है। यदि जनसंख्या-नियंत्रण की कोई स्पष्ट नीति नहीं बनी और आर्थिक विकास की रफ्तार जैसी अभी है, वैसी ही रही तो कुछ ही वर्षों में भारत भुखमरी और बेरोजगारी का अड्डा बन सकता है। इसीलिए अब जरुरी है कि अब दो-बच्चों की नीति भारत सरकार सख्ती से लागू करे।
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इस कानून में हिंदू-मुसलमान और सवर्ण-शूद्र का कोई भेद नहीं किया जाना चाहिए। जो परिवार दो बच्चों से ज्यादा पैदा करें, उनकी समस्त सरकारी विशेष सुविधाओं पर रोक लगाने में कोई हर्ज नहीं है। परिवार-नियोजन के उपकरणों का मुफ्त वितरण किया जाए। इन कदमों से भी ज्यादा जरुरी यह है कि मेहनतकश लोगों की शिक्षा और आमदनी बढ़ाने पर ज्यादा जोर दिया जाए। यदि सरकार इस समस्या की अनदेखी करती रही तो देश के लिए इसके परिणाम बहुत गंभीर होंगे। अस्थिरता फैलेगी, अपराध बढ़ेंगे और जनसंख्या में अनुपात बिगड़ने पर जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति तूल पकड़ेगी। भारत के टुकड़े 1947 की तरह चाहे न हों लेकिन अंदर ही अंदर वह कई टुकड़ों में बंट चुकेगा।
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