NavBharat Times, 28 Jan 2004 : आदमी को सुधारे बिना समाज को सुधार लेने का सपना कितना मनमोहक है| मुंबई का ‘विश्व सामाजिक मंच’ क्या इसी सुनहले सपने के सम्मोहन में नहीं फॅंस गया है ? यह सम्मोहन पूरे पश्चिमी चिन्तन की प्रेत-बाधा है| मार्क्सवाद और पूंजीवाद, चाहे एक-दूसरे के शत्रु होने का कितना ही शंखनाद करें, वे हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू| दोनों मानकर चलते हैं कि समाज की परिस्थिति बदल दो तो मनुष्य की मनस्थिति अपने आप बदल जाएगी| परिस्थिति बदलने पर दोनों का जोर इतना ज्यादा है कि वे समाज को भी भूल जाते हैं| उसकी जगह वे राज्य को बिठा देते हैं| वे समझते हैं कि या तो राज्य हथिया लो या राज्य का विरोध करो तो समाज बदल जाएगा| बहिरंग बदलेगा तो अंतरंग भी बदलेगा| यही धारणा ‘विश्व सामाजिक मंच’ के मूल में दिखाई पड़ती है|
राज्य को हथियाना मार्क्सवाद का मूल मंत्र रहा है| अपने मंत्र के मुताबिक तंत्र को खड़ा करने में मार्क्सवाद सफल भी हुआ| रूस, चीन, पूर्वी यूरोप और क्यूबा तक आधी दुनिया लाल हो गई लेकिन यह लाली सिर्फ सत्तर साल में ही काफूर क्यों हो गई| सोवियत संघ बिखर गया, पूर्वी यूरोप का रंग-परिवर्तन और चीन का लिंग-परिवर्तन हो गया| आदमी जैसे पहले था वैसा ही बना रह गया| क्रांति ने उसे छुआ तक नहीं| वह कहीं बाजू से बह गई| क्रांति नया इंसान नहीं गढ़ सकी| परिस्थिति बदली लेकिन मनस्थिति ज्यों की त्यों बनी रही| सत्ता के जोर पर नई दुनिया खड़ी करनेवाले योद्घा अनाथ हो गए| विश्व सामाजिक मंच जैसी संस्थाऍं इन्हीं सज्जनों का बृहद्र अनाथालय बन गई हैं| मार्क्स की विधवाओं के लिए विलाप का इससे बेहतर मंच कौनसा हो सकता है ? सोवियत संघ द्वारा पोषित ‘विश्व शांति सम्मेलन’ के भाषणों और प्रस्तावों की प्रतिध्वनियॉं क्या मुंबई सम्मेलन में नहीं गॅूंज रही थीं ? जिन्होंने मध्य एशिया और पूर्वी यूरोप को दबोचनेवाले सोवियत साम्राज्यवाद पर कभी उंगली तक नहीं उठाई, वे एराक़ और अफगानिस्तान पर चुल्लुओं ऑंसू बहा रहे थे| वे भूल गए कि पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों जुड़वॉं बहनें हैं| यह दोनों डायनें आदमी का खून पीती हैं| समाज को भरने के नाम पर वे आदमी को खाली करती हैं और समाज की बजाय वे राज्य के खूनी शिकंजे को फौलादी बनाती हैं|
राज्य का खूनी शिकंजा आजकल पूंजीवादी दैत्य के इशारे पर काम कर रहा है, इसमें शक नहीं है लेकिन बेचारे भूतपूर्व मार्क्सवादी क्या करें ? उनका यंत्र तो टूट चुका है| सोवियत तिजोरियों से बहनेवाली साधनों की सरिता सूख गई| इसीलिए अब वे केवल मंत्रजाप के अलावा क्या कर सकते हैं ? इसीलिए मुंबई के मजमे में अमेरिका के विरुद्घ कोरे विष-वमन का वातावरण बना हुआ था| कोरा इसलिए कि अमेरिकी पैसे से अपनी संस्था चलाओ, उसी के टिकिट पर मुंबई आओ, पांॅचसितारा होटलों में टिको, दारू और मुर्गा उड़ाओ और फिर डकार भी न लो, यह कैसे हो सकता है ? डकार मारो और खिसको ! अगर मुंबई सम्मेलन डकारमारू नहीं होता तो कम से कम अमेरिकी नागरिकों से अपील करता कि वे बुश की फौज का बहिष्कार करें, अमेरिकी फौज एराक़ जाने से मना करें और खुद मुंबइया क्रांतिकारी एक अपनी टुकड़ी लेकर एराक़ जाऍंगे और लड़ेंगे| ‘विश्व सामाजिक मंच’ के नाम में सामाजिक शब्द तो है लेकिन इस शब्द का कोई अर्थ है भी या नहीं ? समाज को सक्रिय करने का कोई आह्रवान मुंबई-जमावड़े से क्यों नहीं निकला ? केवल राज्य का विरोध, वह भी जबानी जमा-खर्च करने से क्या होगा ? अमेरिका की पाचन-शक्ति अत्यंत प्रदीप्त है| इस तरह के विरोधों को वह वियतनाम के ज़माने से हजम करने का आदी हो चुका है| विरोधों की इन बौछारों का वह हार्दिक स्वागत करता है क्योंकि इनसे उसके जि़रह-बख्तर चमक उठते हैं|
यह नहीं माना जा सकता कि मुंबई में जमा हुए लाख-सवा लाख लोगों की चिंता का एकमात्र विषय अमेरिका ही रहा होगा| सैकड़ों समानांतर संगोष्ठियों में हजारों कार्यकर्ताओं और विचारकों ने नई दुनिया या दूसरी दुनिया के अपने-अपने सपने पेश किए होंगे| पता नहीं किसी ने मार्क्स और एंजल्स की तरह कोई ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ या गांधी की तरह ‘हिंद स्वराज’ या प्लेटो की तरह अपने ‘रिपब्लिक’ का नक्शा पेश किया या नहीं| अगर किया होता तो वह अब तक छुपा नहीं रहता| इसका एक अर्थ यह भी है कि सौ-सवा-सौ देशें से आए हजारों लोगों ने मुंबई में अपना-अपना दुखड़ा रोया होगा| टुकड़ों में बॅंटे दुखड़ों से कोई रौद्र-राग उत्पन्न नहीं होता| इसीलिए इस विकेंदि्रत विश्व आंदोलन का संदेश भी विकीर्ण ही है| इसका संदेश चाहे विकीर्ण हो और सामूहिक कर्म चाहे शून्य हो, इस सम्मेलन ने एक विलक्षण सामूहिक सहानुभूति तो अवश्य जगाई है| दुनिया के लाखों लोगों का यह तो पता चला है कि वे अकेले नहीं हैं| अन्य लोग भी लड़ रहे हैं| मुद्दे अलग-अलग हैं लेकिन जूझने का माद्दा एक-जैसा है| मुंबई अधिवेशन ने कोई एक प्रस्ताव जारी नहीं किया, यह फिलहाल ठीक हो सकता है लेकिन सारी दुनिया में चल रही इन हजारों बगावतों का कोई सिलसिलेवार तथ्यात्मक विवरण उपलब्ध करवाया जाता तो दुनिया का काफी भला होता| मुंबई के जमावड़े में जो सबसे उल्लेखनीय घटना हुई, वह है, ‘मुंबई प्रतिरोध 2004′ नामक आंदोलन का उठ खड़े होना| यह लगभग भारतीयों का आंदोलन है| इसमें अनेक तपे हुए और मंजे हुए लोग जुड़े हैं| अगर यही लोग एकजुट होकर कोई भारतव्यापी आंदोलन छेड़ दें तो उसके विश्व-व्यापी बनने के काफी संभावनाऍं हैं|
जाहिर है कि मुंबई में जो लोग जमा हुए थे, वे सब मार्क्स की विधवाऍं नहीं थे| उनमें फिलीपीन्स, नेपाल, भूटान, श्रीलंका, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका के छापामार भी थे, पश्चिमी और एशियाई राष्ट्रों के जाने-माने विचारक, क्रांतिकर्मी और समाजसेवी भी थे| एक अर्थ में सारी दुनिया के सब तरह के लोग थे| इन सब लोगों को किसी एक परिभाषा में बॉंधना असंभव ही था| अगर ये लोग वैश्वीकरण के विरोधी थे तो कमसे कम उसके खिलाफ कोई ठोस अभियान ही चला देते लेकिन कैसे चला देते ? स्वयं विश्व सामाजिक मंच क्या है ? क्या वह स्वयं वैश्विक नहीं है ? मुंबई पहॅुंचनेवालों में ज्यादातर तो वे ही हैंं, जो वैश्वीकरण की सन्तान हैं या उससे पग-पग पर लाभान्वित होते हैं| उनमें से शायद ही कोई ऐसा हो, जिसके दिल में गॉंधी बैठा हो| भारत के जो तथाकथित ‘गांधीवादी’ इन मसलों पर अपनी कलम और जुबान चलाते हैं वे वामपंथियों से एक कदम आगे हैं| दूसरी दुनिया के इस आंदोलन को राह दिखाने का दायित्व उनका ही है लेकिन वे भी मार्क्स के इसी सिद्घांत का अनुकरण करते हुए-से लगते हैं कि दूसरों को बदलो, खुद को बदलने की कोई जरूरत नहीं है| इसके अलावा तीसरी दुनिया के बुद्घिजीवियों का बर्ताव अब भी गुलामों-जैसा है| गोरे मालिकों और उनकी भाषा-संस्कृति की दहशत उनके दिल में गहरी बैठी हुई है| मुंबई-जमावड़े पर इस दहशत की छाप साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रही थी| जैसे हमारे डॉक्टर-इंजीनियर पश्चिमी देशों में जाकर उनकी व्यावसायिक कुलीगीरी करते हैं, वैसे ही हमारे बुद्घिजीवी उनकी बौद्घिक कुलीगीरी करते हैं| वैश्वीकरण का यह सबसे खतरनाक रूप है| यों भी वैश्वीकरण का परमपूर्ण विरोध युक्तिसंगत नहीं लगता, फिर भी हमारे ज्यादातर बुद्घिजीवी उसका इसीलिए विरोध करेंगे, क्योंकि अमेरिका में वह एक फैशन बन गया है| मुंबई से अगर बौद्घिक एवं भाषाई उपनिवेशवाद के विरुद्घ कोई जोरदार आवाज़ उठती तो तीसरी दुनिया में उसका स्वागत होता| अंग्रेजी के वैश्वीकरण के विरुद्घ क्या मुंबई में एक भी जुबान हिली ? कौनसा वैश्वीकरण स्वीकार्य है और कौनसा अस्वीकार्य, बहस का असली मुद्दा यही है| फिलहाल वस्तुओं के वैश्वीकरण से पश्चिम को फायदा है और व्यक्तियों के वैश्वीकरण से भारत को लेकिन यह स्थिति भी पल्टा खाएगी| सॉफ्टवेयर और दवाइयों के क्षेत्र में भारत और उपभोक्ता माल के क्षेत्र में चीन भी आगे बढ़ रहा है| सारी दुनिया मुनाफे और भोगवाद में फॅंसी जा रही है| अगर प्रबुद्घ लोग कोई दूसरी दुनिया गढ़ना चाहते हों तो उन्हें स्वीकार और बहिष्कार के अतिवादों के बीच से कोई व्यावहारिक रास्ता निकालना होगा| रास्ते के लिए मनुष्य नहीं, मनुष्य के लिए रास्ता बनाना होगा|
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