R Sahara, 25 March 2005 : विनोबा भावे की प्रेरणा से 1975 में नागरी लिपि परिषद् की स्थापना हुई थी| 1974 में विनोबाजी ने वर्धा में देश के चुने हुए हिंदीप्रेमियों का सम्मेलन किया था, उसमें जैनेद्रजी, भवानी बाबू, श्री मन्नारायणनजी, प्रो. शेरसिंह, शंकरदयालसिंहजी आदि अनेक सज्जन थे| उनमें सबसे छोटा मैं ही था| परिषद् को बने तीस साल हो गए, इसके ज्यादातर संस्थापक सदस्य दिवंगत हो गए लेकिन परिषद् का काम उस तरह आगे नहीं बढ़ा, जैसा कि विनोबा चाहते थे| विनोबाजी ने कहा था कि भारत में नागरी को समस्त भाषाओं की वैकल्पिक लिपि बनाना है| उनकी दृष्टि में नागरी का आंदोलन भूदान-आंदोलन से भी अधिक बड़ा है| वे कहते थे कि भूदान को लोग सिर्फ 100-50 साल तक याद करेंगे जबकि नागरी-आंदोलन चार-पॉंच सौ साल बाद भी याद किया जाएगा| नागरी को वे जोड़-लिपि कहते थे| सब भाषाऍं अपनी लिपि पकड़े रहें लेकिन साथ में नागरी भी चलाऍं| ऐसा होने पर समस्त भाषाओं की एकता बढ़ेगी और भारत मजबूत होगा| नागरी ही नहीं, नागरी भी चलाऍं|
अब वास्तव में नागरी आंदोलन चलाने का समय आ गया है| भारत सरकार 1 मई से सारे भारत में अंग्रेजी की नंबर प्लेटें अनिवार्य कर रही है| यह पिछली सरकार का शुरू किया हुआ सदाशयतापूर्ण और साथ ही मूर्खतापूर्ण कार्य है, जिसे नई सरकार पूरा करना चाहती है| वाहनों पर अंग्रेजी के संख्या-पट लगाने का काम सदाशयतापूर्ण इसलिए है कि इसके पीछे मन्शा अच्छी है| मन्शा यह है कि सारे भारत में एकता हो और एकरूपता हो| देश के एक कोने से दूसरे कोने तक जानेवाले वाहनों की पहचान आसानी से हो जाए| इस लक्ष्य की प्राप्ति जिस तरीके से की जा रही है, वह मूर्खतापूर्ण इसलिए है कि अंग्रेजी जाननेवाले इस देश में सिर्फ तीन-चार प्रतिशत हैं| ड्राइवरों, कंडक्टरों और पुलिसवालों में तो एक प्रतिशत भी नहीं हैं| अर्थात्र अंग्रेजी के संख्यापट भारत की एकता नहीं, गुलामी और असुविधा के प्रतीक बन जाएंगे| कम्प्यूटरीकृत संख्या-पट बेहद महंगे भी होंगे| इनकी बजाय सारे देश में देवनागरी अक्षरों में संख्यापट बनें तो राष्ट्रीय एकता सुदृढ़ होगी और भाषाई समरसता भी बढ़ेगी| हमारा सुझाव इतना ही है कि अहिंदी प्रांतों में स्थानीय लिपि के अक्षरों का भी प्रयोग किया जाए| यही व्यवस्था नामपटों और दुकानपटों के लिए होनी चाहिए| यदि यह व्यवस्था सारे देश में लागू हो जाए तो करोड़ों लोग कुछ ही हफ्तों में हिंदी सीख जाएंगे और हिंदी-भाषी लोग अपनी सखी भाषाओं से परिचित होने लगेंगे| जो काम सारी दुनिया में हिंदी सिनेमा ने किया है, उसे नागरी के नामपट और संख्यापट आगे बढ़ाएंगे|
मेरे इस निवेदन को इस बार 30वें नागरी लिपि सम्मेलन ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है| देश भर से आए प्रतिनिधियों ने हाथ उठाकर संकल्प किया है कि वे एक मई से अंग्रेजी नामपटों और नंबरपटों को पोतने का अभियान चलाएंगे| नागरी लिपि परिषद्र के महामंत्री डॉ. परमानंद पांचाल और अध्यक्ष श्री सी.वी. चारी ने विशेष उत्साह दिखाया है| ये डॉ. पांचाल वही हैं, जो राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह के हिंदी अधिकारी थे और जिनके आग्रह पर ज्ञानीजी अनिवार्य अंग्रेजी का खुल्लमखुल्ला विरोध करते थे| सी.वी. चारीजी तेलुगुभाषी हैं और पक्के गांधीवादी हैं| वे पुराने अंग्रेजी हटाओ आंदोलन में हमारे साथ रहे हैं| कई वर्षों पहले उन्हांेने हैदराबाद में मेरे व्याख्यान भी आयोजित किए थे|
एशियाकीआर्याई-एकता
स्वामी इंद्रवेश और अग्निवेश ने जैसे ही सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा पर अधिकार किया, इस गौरवशाली संस्था में प्राणों का संचार हो गया है| देश भर से आए सैकड़ों आर्य समाजी विद्वानों और कार्यकर्ताओं ने संकल्प लिया है कि वे ईरान से इण्डोनेशिया तक फैले हुए क्षेत्र में सांस्कृतिक और आर्थिक एकता का अभियान चलाएंगे| ऐसा संकल्प आर्य समाज के सवा सौ साल में पहली बार लिया गया है| आखिर आर्य समाज को क्या पड़ी है कि वह इन डेढ़ करोड़ लोगों को एक करने का संकल्प करे? अलग-अलग मज़हबों, भाषाओं, रूप-रंगों, रीति-रिवाजों और रुचियों वाले लोगों में एकता के संचार का ठेका आर्यसमाज क्यों लेना चाहता है? मेरा तर्क यह है कि इस कार्य को यदि आर्यसमाज अंजाम नहीं देगा तो कौन देगा? यह आर्यसमाज का सर्वोपरि कार्य होना चाहिए| आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना केवल आर्यसमाजियों, केवल हिंदुओ, केवल भारतीयों और केवल दक्षिण एशियाओं के लिए नहीं की है| मनुष्य मात्र के लिए की है| उन्होंने कहा है, ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम’ अर्थात्र सारे विश्व को आर्य बनाओ| सारा विश्व आर्य जब बनेगा, तब बनेगा लेकिन एशिया का वह हिस्सा तो आसानी से बन सकता है, जो हजारों वर्षों से भारत के साथ सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टि से जुड़ा रहा है| ईरान से लेकर इंडोनीशिया तक के देश चाहे जिस धर्म को मानते हों और चाहे जो भाषा बोलते हों, सांस्कृतिक दृष्टि से वे आर्य ही हैं| बौद्घ, पारसी, हिंदू, ईसाई, इस्लाम आदि मज़हबों के आने के पहले से इन देशों के लोग आर्य-जगत के अभिन्न अंग रहे हैं| उनकी भाषा, उनके रीति-रिवाज, जीवन-दृष्टि भी लगभग एक-जैसी है| इसी व्यापक सांस्कृतिक नींव को बृहत्तर एशियाई एकता का आधार बनाया जाएगा| ईरान के शाह की उपाधि ‘आर्य मेहर’ थी और इंडोनीशिया का राष्ट्रीय पक्षी गरुड़ है| अफगानिस्तान में वेदा नाम की लड़कियॉं और कनिष्क नाम के लड़के मिलते हैं| पठान लोग अपने सरनाम ‘आर्य’, ‘मंगल’ और ‘खरोष्ट्री’ रखते हैं| इंडोनीशिया में सुकर्ण, मेघावती, सुउत्तमो जैसे नाम मिलते हैं| श्रेष्ठतम मुसलमान अपने बच्चों को रामायण और महाभारत पढ़ाते हैं| थाईलैंड के राजा की उपाधि ‘राम’ है| ‘राम प्रथम’, ‘राम द्वितीय’ आदि| ऐसे आर्य-क्षेत्र को एक करना आर्य समाज का ही कर्तव्य है|
फिक्की सभागार में आयोजित सम्मेलन ने संकल्प लिया है कि महर्षि दयानंद के ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्र’ के लक्ष्य का प्रारंभ वे दक्षेस (सार्क) के देशों से करेंगे| मज़हब, भाषा, भोजन आदि के भेदों को भुलाकर यदि आर्य समाज एशियाई एकता का प्रयास करेगा तो भारत की एकता तो अपने आप बलवान हो जाएगी| इसी सम्मेलन में आर्य समाज ने देश में साम्प्रदायिकता-विरोधी सम्मेलन हर साल आयोजित करने का संकल्प भी लिया है|
भारत-पाक प्रेम-बाढ़
भारत और पाकिस्तान के बीच लोगों की आवाजाही इतनी बढ़ गई है कि दोनों के दूतावासों की नींद हराम है| आखिर कितने लोगों को रोज़ वीज़ा दिया जा सकता है| लगता है, आवाजाही की बाढ़ आ गई है| जन-सैलाब, जनता का ज्वार, जन-आवागमन इतना तेज हो गया है कि क्रिकेट मेच भी फीका पड़ गया है| जनरल मुशर्रफ की माताजी, भाई और बेटे की भारत-यात्रा से अखबारों के मुखपृष्ठ रंगे हुए हैं| राजघाट से एक बड़ा जत्था पाकिस्तान की पैदल-यात्रा पर रवाना हो गया है| दोनों देशों की जनता की इस प्रेम-बाढ़ में नेताओं की आवाज़े पता नहीं कहां डूब गई हैं| कश्मीर पर मुशर्रफ ने क्या कहा, सियाचिन पर नटवर क्या बोल रहे हैं और श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस पर गीलानी क्यों झींक रहे हैं, किसी को कुछ परवाह नहीं है| भारत-पाक के बीच वही माहौल बनता जा रहा है, जो 15 साल पहले दो जर्मनियों के बीच बन रहा था|
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