22 April 2005 : सर संघचालक श्री कुप्प.सी. सुदर्शन ने चलते-चलते जो कुछ कहा, उससे भाजपा की राजनीति में भूकम्प-सा आ गया| पत्रकार-जगत तो सूनामीग्रस्त हो गया| लगा कि जैसे हमारी कॉंग्रेस और सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में कभी दंगल हुआ करते थे, वैसे ही संघ परिवार के नेता आपस में लड़ पड़ेंगे लेकिन हल्की-सी जवाबी बयानबाजी के बाद जो तूफान थमा है, वह एक पृथक राजनीतिक संस्कृति का परिचायक है| अटलजी और आडवाणीजी चाहते तो सुदर्शनजी पर पलटकर वार कर सकते थे| दोनों ही उनसे वरिष्ठ स्वयंसेवक हैं लेकिन सुदर्शनजी तो सरसंघचालक हैं याने सर्वोच्च हैं| गोलवलकरजी को सारे स्वयंसेवक ‘पूज्य’ बोला करते थे| ‘पूज्य’ शब्द का मान इन दोनों नेताओं ने भी रखा| आडवाणीजी ने तुरंत नागपुर फोन करके पूछा कि ‘वे इस्तीफा दे दें क्या?’ और अटलजी ने कहा कि बदनामी से मरना भला ! इस विनम्रता का परिणाम क्या हुआ? सुदर्शनजी चुप रह गए और जयपुर में उन्होंने अटल-सरकार की उपलब्धियॉं एक, दो, तीन, चार कहकर गिनाईं| इसी प्रकार उमा भारती पर किया गया कटाक्ष भी गंभीर था| उमा के बड़े भाई ने प्रतिवाद भी किया लेकिन उमा ने कह दिया कि ‘सुदर्शनजी मेरे लिए भगवान की तरह हैं|’ उमा ने इस बात को बहस का मुद्दा नहीं बनाया कि वह पिछले जन्म में संन्यासिनी रही होगी लेकिन इस जन्म में उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि ‘असंस्कृत’ है| किसी पार्टी के सर्वोच्च नेताओं में इतनी अधिक सहनशीलता का उदाहरण दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं मिलता| नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि देशों की पार्टियों के टुकड़े नेताओं के अहंकार के कारण ही हुए| इस अर्थ में भाजपा नेताओं की पार्टी नहीं है| यह मूलत: कार्यकर्ताओं की पार्टी है| इसमें व्यक्तिवाद नहीं, सामूहिकतावाद चलता है| इस तरह की पार्टियों में आत्मकेंदि्रत व्यक्तिवादियों और विलक्षण प्रभा-मंडलवालों के लिए जगह नहीं होती|
डॉ. विष्णुकांत शास्त्री
डॉ. विष्णुकांत शास्त्री चाहे संघ और भाजपा के सक्रिय सदस्य रहे हों, उनके आकस्मिक निधन की खबर ने उन सबको हिला दिया, जो उन्हें जानते थे| उनके भक्तों में मार्क्सवादी पार्टी के कई सांसद भी थे, जो उनकी शव-यात्रा में शामिल थे| शास्त्रीजी हिन्दी के प्रकांड पंडित थे, असाधारण वक्ता थे और उच्च कोटि के मनुष्य थे| वे हिमाचल और उ.प्र. के राज्यपाल रहे, सांसद और विधायक रहे, बंगाल की भाजपा के अध्यक्ष रहे और भाजपा की दुबारा सरकार बनती तो शायद वे राष्ट्रपति भी बन जाते| इतनी योग्यता और ख्याति के बावजूद उनकी विनम्रता और शिष्टता में कोई परिवर्तन नहीं आया| उनसे परिचय हुए लगभग पैंतीस साल बीत गए| वे डॉ. धर्मवीर भारती के साथ युद्घ के दौरान बांग्लादेश गए थे और उन्होंने एतिहासिक यात्रा-वृतांत धर्मयुग में लिखे थे| उनसे दिल्ली और कलकत्ता में कई बार भेंट होती थी| संसद के केंद्रीय कक्ष में हम लोग अक्सर साथ बैठते थे| एक-दो बार प्रवास और व्याख्यान भी साथ-साथ हुए| उन्हें सुनना अपने आप में एक अनुभव होता था| मेरे लिए तो वे पूज्य ही थे लेकिन उनकी विनम्रता के कारण मैं हमेशा असमंजस में पड़ जाता था| पिछले माह डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के एक कार्यक्रम में वे दिल्ली पधारे| मैं जैसे ही पहॅुंचा, वे उठकर खड़े हो गए| मैंने कहा, आप मुख्य अतिथि हैं, मेरे पूज्य हैं, कृपया बिराजिए| वे नहीं माने| मुझे उनके सामने से जल्दी ही खिसकना पड़ा| उनके बचपन के मित्र श्री लक्ष्मीनिवास झुनझुनवाला बहुत विह्रवल थे| लक्ष्मीनिवासजी की गिनती इस समय देश के बड़े उद्योगपतियों में होती है| वे और विष्णुकांतजी प्राथमिक शाला में साथ-साथ पढ़ते थे| लक्ष्मीनिवासजी ने बताया कि उस समय उनकी परिस्थिति ठीक नहीं थी लेकिन विष्णुकांतजी संपन्न परिवार के थे| कई वर्षों तक विष्णुकांतजी लक्ष्मीनिवासजी का खाना अपने साथ रोज़ लाया करते थे| सत्तर साल से यह दोस्ती चली आ रही थी|
अंग्रेजीकीडायन
कर्नाटक में अभी-अभी फौज की भर्ती परीक्षा हुई| 4126 जगह थी लेकिन 3361 भरी गई| लगभग 600 जगह खाली रह गईं, क्योंकि परीक्षार्थी अनुत्तीर्ण हो गए| वे अनुत्तीर्ण क्यों हुए? मूलत: अंग्रेजी के कारण ! जो पास हुए, उनमें भी लगभग 2000 रो-धोकर पास हुए ! ऐसा क्यों हुआ? अंग्रेजी के कारण ! तीन जवानों – शिवानंद, गुरुराज और तुकाराम – ने बताया कि वे परीक्षा के हर पर्चे में पास हुए लेकिन अंग्रेजी के अनिवार्य पर्चे को समझ ही नहीं पाए तो जवाब क्या देते? बिल्कुल फेल हो गए| ये जवान गॉंवों के हैं| उनकी शारीरिक सुदृढ़ता, देशभक्ति, बौद्घिक कुशाग्रता, साहसिकता, कठोरता – किसी भी गुण में कोई कमी नहीं है| फौज के किसी श्रेष्ठ जवान में जो कुछ होना चाहिए वह सब कुछ उनमें है लेकिन उन्हें अंग्रेजी नहीं आती, इसीलिए उनके सारे गुणों पर पानी फिर गया| अंग्रेजी की डायन सारे गुण कच्चे चबा गई| इससे बढ़कर अन्याय क्या हो सकता है? इससे बढ़कर गुलामी क्या हो सकती है?
इस गुलामी से मुक्त होने के दो ही तरीके हैं| एक तो यह कि हम अपने बच्चों को पूर्ण गुलाम बना दें| जन्मघुट्टी में ही गुलामी पिला दें| पहली कक्षा से ही उन पर अंग्रेजी थोप दें, जैसा कि बंगाल, पंजाब, बिहार आदि करना चाहते हैं या फिर भर्ती परीक्षाओं में अंग्रेजी को एच्छिक कर दें| यदि हम पहला विकल्प अपनाऍंगे तो राष्ट्र के तौर पर भारत अगले तीस-चालीस साल में खत्म हो जाएगा अगर हम दूसरा विकल्प अपनाऍंगे तो हमें अपनी संपूर्ण भाषा-नीति पर पुनर्विचार करना होगा| मातृभाषाओं और राष्ट्रभाषा को जोरदार ढंग से आगे बढ़ाना होगा| अन्तरराष्ट्रीय माध्यम के तौर पर अंग्रेजी समेत कुछ अन्य भाषाओं में महारत हासिल करनी होगी| अगर हम ऐसा कर सकें तो अमेरिका, बि्रटेन, फ्रांस, चीन, जापान आदि की तरह हम प्रथम श्रेणी के राष्ट्र शीघ्र ही बन सकते हैं|
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