Dainik Hindustan, 25 March 2010 : भारत में जो हैसियत कभी जवाहरलाल नेहरू की हुआ करती थी, वही नेपाल में गिरिजाप्रसाद कोइराला की थी। नेहरूजी के जमाने में अक्सर यह सवाल पूछा जाता था कि नेहरू के बाद कौन? लेकिन नेपाल में यह सवाल नहीं पूछा जा रहा है, क्योंकि गिरिजा बाबू ने अपनी बेटी सुजाता, अपने भतीजे सुशील कोइराला को जमा दिया था। नेपाल में अब असली सवाल यह है कि कोइराला के बाद क्या?
कोइराला के शून्य को भरने के लिए इस समय नेपाल के विभिन्न दलों में लगभग आधा दर्जन नेता उपलब्ध हैं लेकिन पिछले 20 वर्षो में गिरिजा बाबू ने नेपाल की राजनीति में जो भूमिका निभाई, वह अप्रतिम थी और अब वे ऐसे समय में महाप्रयाण कर गए हैं जबकि उनकी यह लंबी भूमिका अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचनेवाली थी। यदि गिरिजा बाबू कुछ माह और जीवित रह जाते तो शायद 28 मई की पूर्व निश्चित अवधि तक नेपाल का नया संविधान बनकर तैयार हो जाता और गणतांत्रिक नेपाल अपनी नई लीक पर चल पड़ता।
नेपाल का संविधान तो बना बनाया तैयार है। उसमें खास करना क्या है? सिर्फ नरेश की जगह राष्ट्रपति के अधिकारों और कर्तव्यों का एक छोटा-सा अध्याय जोड़ना है। लेकिन यह तभी हो सकता है जब माओवादी मान जाएं। माओवादियों का अपना सपना है। वे पहले दिन से ही नेपाल को सोवियत संघ या चीन की भांति साम्यवादी गणतंत्र बनाना चाहते हैं। वे फौज का माओवादीकरण करना चाहते हैं।
अपने 19 हजार छापामारों को नेपाली फौज का अभिन्न अंग बनाने पर आमादा हैं। वे भारत और चीन को एक ही पायदान पर खड़ा करना चाहते हैं। वे भारत और नेपाल के पारंपरिक संबंधों में गुणात्मक परिवर्तन करना चाहते हैं। जाहिर है कि माओवादियों को बहुमत तो मिला है लेकिन इतना नहीं कि वे अपनी मनमर्जी का संविधान नेपाल की जनता पर थोप सकें, वे अपनी इस कमी को मान चुके हैं।
नेपाल की वर्तमान संविधान सभा के ज्यादातर सदस्य इस माओवादी संरचना के विरुद्ध हैं लेकिन उनकी समस्या यह है कि माओवादियों की सहमति के बिना संविधान के कोई भी प्रावधान पारित नहीं हो सकते, क्योंकि उनके बिना दो-तिहाई बहुमत नहीं बनता है। इस गतिरोध को सुलझाने में अगर सबसे अधिक कोई सक्षम नेता थे तो वे कोइराला ही थे।
एक तो उनकी उम्र इतनी थी कि अन्य दलों के नेता उन्हें अपने पिता की तरह मानते थे और दूसरा, उनके अपने दल में वे सर्वेसर्वा थे ही। भारत भी उनकी बात बहुत ध्यान से सुनता था। उन्होंने अभी कुछ दिनों पहले ही तीनों प्रमुख दलों, नेपाली कांग्रेस, एमाले और माओवादी पार्टी के शीर्ष नेताओं की एक कमेटी बनाई थी, जिसका उद्देश्य पिछड़े डेढ़ साल से चले आ रहे गतिरोध को दूर करना था।
वह कमेटी तो अब भी काम करेगी लेकिन सबको मनाने-पटाने वाले नेता के अभाव में वह कहां तक सफल होगी। गिरिजा बाबू कई कारणों से इधर विवादास्पद भी हो गए थे लेकिन वे नेपाली राजनीति के भीष्म पितामह की तरह थे। उनकी अनुपस्थिति में नेपाली राजनीति में बिखराव का अंदेशा बढ़ गया है। बांध के टूट जाने पर नदी का जो हाल होता है, वह अब नेपाली राजनीति का हो सकता है।
कोइराला की अनुपस्थिति में सबसे पहला दंगल तो नेपाली कांग्रेस में ही शुरू हो जाएगा। उनकी बेटी सुजाता कोइराला के विरुद्ध पार्टी के लगभग सभी नेता कमर कस लेंगे। कोइराला परिवार के बेटे सुशील और शेखर कोइराला भी सुजाता का साथ दें, यह आवश्यक नहीं। इसके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा सर्वोच्च पद के सबसे बड़े दावेदार हैं। गुटों में बंटी यह पार्टी पहले खुद को जोड़े, तब नेपाली राजनीति के दूसरे टुकड़ों को जोड़ पाएगी।
सत्तारूढ़ एमाले पार्टी की दशा बहुत अच्छी नहीं है। माधव कुमार नेपाल को कोइराला ने प्रधानमंत्री तो बनवा दिया था लेकिन कौन नहीं जानता कि माधव नेपाल पिछले चुनाव में दो जगह से लड़े और दोनों सीटें हार गए। उनकी पार्टी, ‘एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी’, तीसरे स्थान पर खिसक गई। फिर भी उसकी सरकार इसीलिए बनवा दी गई कि वह कोइराला के इशारे पर नाचती रहे।
यदि ऐसा नहीं होता तो सुजाता कोइराला को उप-प्रधानमंत्री पद कैसे मिलता? माधव नेपाल की सरकार इतनी कमजोर है कि यदि अभी नेपाली कांग्रेस का कोई गुट अपना हाथ खींच ले और मधेसियों को अपने साथ मिला ले तो इस सरकार को माओवादी जब चाहें, तब गिरा सकते हैं। नई सरकार बनाने के लालच में नेपाली कांग्रेस में फूट भी पड़ सकती है। कोइराला की अनुपस्थिति में नेपाली राजनीति की शतरंज उलट भी सकती है।
संकट की स्थिति में माधव नेपाल की सरकार नेपाली फौज का पल्ला पकड़कर तरने की कोशिश कर सकती है। 19 हजार माओवादियों को फौज में शामिल करने के सवाल पर फौजी नेतृत्व काफी भन्नाया हुआ है। आशा की जानी चाहिए कि नेपाल में किसी तरह का फौजी तख्ता-पलट या फौजी वर्चस्व कायम नहीं होगा। नेपाल में लोकतंत्र की मशाल का बुझना अत्यंत अशुभ होगा।
यह क्या कम बड़ी बात है कि पूर्व नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र और उनके बेटे पारस के कारनामों को नेपाल के लोग भूलने लगे हैं। ज्ञानेंद्र के समर्थकों ने राजनीति के दरवाजों पर दोबारा दस्तक दी है। उधर अपनी दुकान जमाने के लिए माओवादियों ने भारत-विरोधी लहरें फिर से उठानी शुरू कर दी हैं। इसलिए वर्तमान परिस्थितियों में भारत के नीति-निर्माताओं को काफी धैर्य से काम लेना होगा। यदि वे किसी भी पक्ष का विरोध करेंगे तो पूरे नेपाल में भारत विरोधी माहौल बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी।
जरा याद करें, प्रधानमंत्री के तौर पर भारत आए प्रचंड ने कैसी मैत्रीपूर्ण छवि पैदा की थी। सत्ता में आने के लिए भारत-विरोध लाभदायक हो सकता है लेकिन भारत-विरोध करके कोई भी दल या व्यक्ति नेपाल की सत्ता में बना नहीं रह सकता। यदि हम इस रहस्य को समझ लें तो हमारी नीति हस्तक्षेपवादी कतई नहीं होगी।
इस समय जरूरी है कि भारत-नेपाल की राजनीति को हम अपने स्वाभाविक प्रवाह में बहने दें ताकि वहां संविधान बन जाए और यह राष्ट्र लोकतंत्र की पटरी पर चल पड़े। यदि वह किसी अन्य पटरी पर चलना चाहे तो भी चले लेकिन जिस दिन भारत के लिए वह खतरा बनेगा, उस दिन भारत को अधिकार होगा कि वह अपने लोगों की रक्षा के लिए कठोरतम कार्रवाई करे।
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।
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