Dainik Bhaskar, 27 May 2009 : हमारे पड़ोसी मुल्क नेपाल में माधव कुमार नेपाल के नेतृत्व में नई सरकार बन तो गई, लेकिन वह चलेगी कैसे? जहां तक संख्या का सवाल है, नई सरकार के पास जरूरत से ज्यादा बहुमत है। सरकार कायम रखने के लिए सिर्फ ३0१ सांसदों का समर्थन चाहिए, लेकिन उसे साढ़े तीन सौ का समर्थन प्राप्त है। इस गणित के हिसाब से देखें तो नई सरकार को कोई खतरा नहीं है। लेकिन कोरा संख्याबल ही काफी नहीं है।
संख्याबल तो माओवादियों के पास भी था। माधव कुमार नेपाल के पीछे जो संख्याबल है, वह बड़ा विचित्र सा है। स्वयं माधव कुमार नेपाल पिछले चुनाव में दो जगह से एक साथ हारे हैं। उनकी अपनी वैधता शून्य हो चुकी थी। इसके अलावा उनकी पार्टी, एकीकृत नेपाली कम्युस्टि पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नेपाल की सबसे बड़ी पार्टी बनकर नहीं उभरी थी। संविधान सभा के चुनाव में उनकी पार्टी को नेपाली मतदाताओं ने तीसरे स्थान पर धकेल दिया था। उनसे ज्यादा सीटें तो नेपाली कांग्रेस ने जीती थीं और सबसे ज्यादा माओवादियों ने।
यह कैसी विडंबना है कि तीन प्रमुख पार्टियों में, जो सबसे कम सीटें जीतने वाली पार्टी है, उसका नेता अब सरकार चलाएगा।
माधव कुमार नेपाल की सरकार को मधेसियाई पार्टियों का सहयोग भी मिल रहा है, लेकिन क्या उन्हें पता नहीं है कि यह सहयोग किसी आग के दरिया से कम नहीं है। क्या वे इसमें तैरकर पार हो सकते हैं ?
क्या माधव-सरकार मधेसियाई मांगों को पूरा कर सकेगी? माओवादी अगर नेपाल की गैर पहाड़ी पिछड़ी जातियों को नेपाली फौज में भर्ती करवाना चाहते थे तो मधेसी पार्टियां तराई के हिंदीभाषियों को भर्ती करवाना चाहती हैं। क्या नेपाल का सत्ता प्रतिष्ठान इस मांग को पचा पाएगा?
इसी मांग को लेकर ही माओवादियों की सरकार गिरी है। मधेसियों की मांगें तो और भी ज्यादा ‘खतरनाक’ हैं। वे स्वायत्तता भी चाहते हैं और नेपाल से अलग होने का अधिकार भी। क्या माधव कुमार नेपाल की सरकार इन प्रावधानों को नेपाली संविधान का हिस्सा बनवा पाएगी? यह सबको पता है कि अब तक मधेसियों की राजनीतिक मुठभेड़ सबसे ज्यादा किसी से हुई है तो नेपाली कांग्रेस और एमाले से ही हुई है।
यह असंभव नहीं कि संविधान सभा में जब इन मुद्दों पर टकराव होगा तो माओवादी दौड़कर मधेसियों के पक्ष में खड़े हो जाएं। ऐसी स्थिति में माधव कुमार नेपाल की इज्जत क्या रह जाएगी? नेपाली कांग्रेस और एमाले, दोनों मिलकर भी माओवादियों (एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी, माओवादी) से कम हैं।
यदि माओवादी चाहेंगे तो वे इस सरकार को आसानी से गिरा लेंगे। दूसरे शब्दों में नेपाल का ध्यान अब नया गणतांत्रिक संविधान बनाने में कम, राजनीतिक उठापटक पर ज्यादा केंद्रित रहेगा।
यह ठीक है कि माधव कुमार नेपाल एक योग्य राजनेता हैं और उनका व्यक्तित्व निष्कलंक है। वे भारत के मित्र भी हैं, लेकिन क्या यही तथ्य उनके गले का पत्थर सिद्ध नहीं होगा? इस समय नेपाल में मार्क्सवाद या माओवाद से ज्यादा जोरदार लहर राष्ट्रवाद की है। भारत विरोध ही नेपाली राष्ट्रवाद की पहचान है। माओवादियों ने सत्ता में आते ही राष्ट्रवाद की आग सुलगाई। पशुपतिनाथ के मंदिर से भारतीय पुजारियों की बर्खास्तगी का अंदरूनी अभिप्राय आखिर क्या था?
सत्तारूढ़ होते ही प्रचंड के भारत नहीं, चीन जाने का अर्थ आखिर क्या था? और सेनाध्यक्ष रुक्मांगद कटवाल की बर्खास्तगी और वापसी को भी माओवादियों ने भारत के मत्थे मढ़ा है। माओवादियों का यह प्रचार नेपाल की जनता के गले उतरे बिना नहीं रहेगा।
दूसरे शब्दों में माधव कुमार नेपाल की सरकार को नेपाली लोग नेपाल की नहीं, भारत की सरकार मानेंगे। वे उसे कठपुतली सरकार की संज्ञा देंगे। माओवादी इस तथ्य का लाभ उठाने से क्यों चूकेंगे? उनके शहीदाना तेवर, जबरदस्त संगठन और प्रचंड नेतृत्व माधव कुमार नेपाल की नींद हराम किए बिना नहीं रहेगा।
नेपाल के लोग तब तक पूर्व माओवादी प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ के अतिवाद को शायद भूल चुके होंगे। प्रचंड से कोई पूछे कि आपने अपने नौ माह के राज में नेपाल के लिए क्या किया? कोई ऐसे नौ काम गिनाइए, जिन्हें नेपाल की जनता १क्-२क् साल तक याद करे। संविधान-निर्माण का काम कितना आगे बढ़ा? आम आदमी की कठिनाइयां कहां तक दूर हुईं?
और सबसे बड़ी बात, सेनाध्यक्ष रुक्मांगद कटवाल को बर्खास्त करने की ऐसी कौन-सी जरूरत आन पड़ी थी? क्या कटवाल फौजी तख्तापलट करने वाले थे? जाहिर है कि ऐसी कोई आशंका नहीं थी। वे यूं भी इस सितंबर मेंसेवानिवृत्त होने वाले ही थे। उनका दोष यही था कि वे नेपाली फौज में माओवादियों का प्रवेश नहीं होने दे रहे थे। वे सरकार की आज्ञा का अनुसरण नहीं कर रहे थे। कटवाल के इस रवैए से एमाले के नेता भी सहमत नहीं थे, लेकिन कटवाल को बर्खास्त करने से वे सहमत होते तो मंत्रिमंडल के फैसले का समर्थन करते।
एक अर्थ में माओवादी सरकार ने कटवाल को अपने दम पर बर्खास्त किया और उसे अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया। राष्ट्रपति रामबरन यादव ने कटवाल को बहाल कर दिया तो प्रचंड ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। बैठे-बिठाए उन्होंने अपनी सरकार गिरा ली। प्रचंड यह भूल गए कि जनवरी 2008 में उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं के सामने क्या कहा था।
उनका वह टेपांकित भाषण अब जगजाहिर हो गया है कि उन्होंने माओवादी सैनिकों की संख्या तीन गुना बढ़ा दी और 19 हजार माओवादियों को नेपाली सेना में घुसाने के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधि इयान मार्टिन को पटा लिया। ऐसे में कटवाल के अड़ियलपन को गलत कैसे कहा जाए?
प्रचंड का यह कहना भी सही नहीं है कि नेपाल में राजनीति पर फौज हावी हो गई है। राष्ट्रपति यादव आदेश जारी नहीं करते तो कटवाल की बहाली कैसे होती? यादव फौजी हैं क्या? वास्तव में प्रचंड ने जुआ खेला। सेनापति के साथ धींगामुश्ती की, यानी उन्होंने फौज से कहा कि आ बैल, सींग मार! नेपाल बच गया।
अब भारत को दोष देना बेकार है। भारत के हस्तक्षेप से काठमांडू की छाती पर फौज बैठ जाती तो सचमुच बुरा होता। खुद प्रचंड ने बार-बार कटवाल को काटने के पहले भारत से समर्थन क्यों मांगा? भारत समर्थन दे देता तो उसे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं माना जाता।
भारत ने अतिवाद का समर्थन नहीं किया तो इसे ‘हस्तक्षेप’ माना जा रहा है। सच्चई तो यह है कि भारत ने माओवादियों को नहीं गिराया। माओवादियों ने अपने को खुद गिराया। उम्मीद है कि वे अब नेपाल को गिराने में नहीं जुटेंगे।
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