राष्ट्रीय सहारा, 6 जनवरी 2006 : नेपाल के माओवादियों ने फिर पुरानी राह पकड़ ली है| चार माह से चले आ रहे संघर्ष-विराम को उन्होंने समाप्त घोषित कर दिया है| उन्होंने न तो संयुक्तराष्ट्र, न नेपाल के राजनीतिक दलों और न ही भारत सरकार के अनुरोध को स्वीकार किया| वे अब मनमानी पर उतर आए हैं| यह अकारण नहीं है| इसके कई कारण हैं| पहला तो यह कि संघर्ष-विराम को माओवादी एकतरफा पा रहे थे| उन्होंने तो बंदूक के घोड़े पर से हाथ हटा लिया था लेकिन शाही फौजों का जहाँ भी बस चल रहा था, वे बंदूक के जोर पर आगे बढ़ रही थीं| माओवादियों का कहना है कि वे अगर साल भर इसी तरह हाथ पर हाथ घरे बैठे रहते तो उनकी 10 साल की सारी उपलब्धियाँ गारत हो जातीं| ताली दोनों हाथ से बजती है| दूसरा, नेपाल के सात राजनीतिक दलों के साथ नवंबर में जो 12 सूत्री समझौता हुआ था, वह भी सिर्फ घोंघा-गति से आगे बढ़ रहा था| माओवादी और राजनीतिक दल मिलकर कोई जबर्दस्त जन-आंदोलन की लहर खड़ी नहीं कर सके| प्रकारान्तर से नेपाल-नरेश के ही हाथ मजबूत हो रहे थे| तीसरा, माओवादियों को आशा थी कि अन्तरराष्ट्रीय शक्तियाँ इस बीच नेपाल-नरेश का टेंटुआ कस देंगी लेकिन उन्हें निराशा ही हाथ लगी| यह ठीक है कि भारत, अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों ने नेपाल-नरेश को मिल रही सैन्य-सहायता पर थोड़ा ब्रेक लगाया लेकिन चीन ने बड़े पैमाने पर सहायता शुरू कर दी| पश्चिमी राष्ट्रों में यह सुगबुगाहट शुरू हो गई कि यदि नेपाल-नरेश को रामभरोसे छोड़ दिया गया तो नेपाल में एकतरफ माओवादियों का वर्चस्व बढ़ जाएगा और दूसरी तरफ चीन का ! माओवादियों ने यह सूंघ लिया कि अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा की हवाएँ शीघ्र ही उनके खिलाफ़ बहनेवाली हैं| इसलिए उन्होंने दुबारा खड्रगहस्त होने का संकल्प कर लिया|
माओवादियों ने सभी पक्षों की अपील को दरकिनार किया है| इसका नतीजा क्या यह नहीं होगा कि वे अकेले पड़ जाएँगे? अब नेपाल के राजनीतिक दलों से भी उनके रिश्ते खराब होते चले जाएँगे| भारत ने अभी तक उनके खिलाफ कोई मोर्चा नहीं खोला है| भारत हिंसा और बल-प्रयोग की निंदा बँधे-बँधाए शब्दों में करता रहा है लेकिन उसने नेपाल के माओवादियों को श्रीलंका के तमिल टाइगरों की श्रेणी में नहीं रखा है| उसने माओवादियों से लड़ने के लिए फौज भेजना तो दूर रहा, सीधे शस्त्र् भी नहीं दिए हैं| इतना ही नहीं, माओवादियों से भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों और यहाँ तक कि सरकारी तंत्र् ने भी संपर्क किया था| यदि भारत बीच में नहीं पड़ता तो माओवादियों और राजनीतिक दलों के बीच शायद कोई समझौता हो ही नहीं पाता| दोनों पक्षों के नेता लगातार भारत आते-जाते रहे, गुप-चुप मिलते रहे और नरेश-विरोधी व्यूह-रचना करते रहे| जहाँ तक भारत का सवाल है, उसने नरेश, माओवादियों और राजनीतिक दलों के प्रति अपना रवैया निष्पक्ष ही रखा, हालाँकि माओवादियों ने कई बार भारत को अपना दुश्मन घोषित किया है और नरेश ने भारत से किए गए वायदे तोड़े हैं| भारत आज भी मानता है कि नेपाल का हित राजशाही और लोकतंत्र्, दोनों को सुरक्षित रखने मैं ही है| वर्तमान सत्तारूढ़ काँग्रेस-दल की यह मजबूरी है कि उसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का समर्थन लेना पड़ रहा है| वह इसलिए भी माओवादियों के प्रति कठोर रवैया नहीं अपना सकता है| भारत की नेपाल-नीति जितनी आज दुविधाग्रस्त है, पहले कभी नहीं रही| यह ठीक है कि नेपाल के राजनीतिक दलों के प्रति सभी भारतीय दलों और सरकार की भी गहरी सहानुभूति है लेकिन सिर्फ उन दलों के भरोसे नहीं रहा जा सकता| ये नेपाली दल न तो राजशाही का खुलकर विरोध करते हैं और न ही वे नरेश ज्ञानेंद्र द्वारा थोपे गए आपात्काल को ध्वस्त कर पाए| माओवादियों और उनके बीच पुराना बैर चला आ रहा है| अपने शुरूआती दौर में माओवादियों ने शाही फौज से भी ज्यादा इन दलों के कार्यकत्ताओं की पिटाई की| इन दलों के नेता माओवादियों से इतने भयभीत रहते हैं कि वे अपने चुनाव-क्षेत्रें में भी नहीं जाते| वे या तो काठमाड़ों रहते हैं या दिल्ली आ जाते हैं| यदि ये राजनीतिक दल वैसा आंदोलन भी चला पाते, जैसा कि उन्होंने 15-20 साल पहले पूर्व-नरेश के विरूद्घ चलाया था तो भारत शायद उनके पीछे अपनी पूरी ताकत लगा देता| भारत को डर यह है कि यदि वह इन राजनीतिक दलों के खातिर नेपाल में सैन्य-हस्तक्षेप करेगा तो आम जनता उसके विरूद्घ हो जाएगी| भारत को लोकतंत्र् के रक्षक नहीं, नेपाल-भक्षक के रूप में देखा जाएगा| यह मामला देसी-विदेशी का बन जाएगा| श्रीलंका में भारत पहले ही दूध से जल चुका है, अब वह इसीलिए छाछ को फूँक- फूंककर पी रहा है| यही वजह है कि नरेश के अधिनायकवादी रवैए के बावजूद भारत ने उनके साथ बातचीत के दरवाज़े बंद नहीं किए हैं| नरेश अपने कौल पर डटे हुए हैं| टस से मस नहीं हो रहे हैं| 8 फरवरी को वे स्थानीय निकायों के चुनाव करवा रहे हैं| भारत का विदेश मंत्रलय विलक्षण धैर्य का परिचय दे रहा है|
लेकिन माओवादी हिंसा के कारण धैर्य का यह बाँध टूट सकता है| भारत को दो-टूक नीति अपनाने के लिए विवश होना पड़ सकता है| भारत सरकार को अपनी कम्युनिस्ट पार्टियों को भी मनाना पड़ेगा| यदि भारत दो-टूक नीति की घोषणा करेगा तो नेपाल की जनता भी उसका साथ देगी| वह हिंसा से तंग आ चुकी है| 12 हजार से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं| नेपाल की अर्थ-व्यवस्था डावाँडाल हो गई है| गाँवों से भाग-भागकर लोग शहरों मैं जमा हो रहे हैं| पर्यटन-उद्योग खटाई में पड़ता जा रहा है| फौज का खर्च कई गुना बढ़ गया है| नेपाल में फैला आतंक का साम्राज्य भारत के अनेक प्रांतों तक पहुँच सकता है| यदि नेपाल में हिंसा बढ़ गई तो बांग्लादेश की तरह लाखों शरणार्थियों को पालने का बोझ भी भारत के कंधों पर आ पड़ेगा| भारत उदासीन नहीं रह सकता| पश्चिमी राष्ट्रों की नज़रें भी भारत पर टिकी हुई हैं| वे भारत का समर्थन करेंगे| इसके पहले कि नेपाल गृह-युद्घ में उलझ जाए, भारत को अपनी नीति सुपरिभाषित करनी होगी और क्षेत्रीय महाशक्ति के अपने दायित्य को निभाना होगा|
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