Nai Dunia, 17 May 2005 : नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र को हुआ क्या है? वे कितने दुश्मन एक साथ खड़े कर रहे हैं? नेपाल के माओवादियों और लोकतंत्रवादियों से तो वे पहले से ही जूझ रहे हैं| अब उन्होंने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं कि भारत भी उनके विरुद्घ हो जाए| भारत जैसा आदर्श पड़ौसी किस देश को मिलता है| नरेश ने जब आपात्काल थोपा तो भारत को धक्का जरूर लगा लेकिन उसने इसे इसी तरह झेला, जैसे कि वह नेपाल का आंतरिक मामला हो| भारत और नेपाल का इतिहास और भूगोल ऐसा है कि उनके आंतरिक मामलों को पारस्परिक बनते देर नहीं लगती| बिना पारपत्र और वीज़ा के लाखों नेपाली भारत में रहते और काम करते हैं, हजारों नेपाली भारतीय फौज के जवान हैं और भारतीय फौज के सेवा-निवृत्त नेपालियों को भारत हर माह करोड़ों रु. पेंशन भेजता है| नेपाल की फौज को 500 करोड़ की लागत से भारत ही आधुनिक बना रहा है| नेपाल की फौज, व्यापार और आवागमन का सारा दारोमदार भारत पर ही है| नेपाल भूवेष्टित राष्ट्र है| चारों तरफ ज़मीन से घिरा है| यदि भारत घेराबंदी कर दे तो नेपाल का जिंदा रहना मुश्किल हो जाए|
इन सब तथ्यों के बावजूद जब नरेश ने आपात्काल थोपा तो भारत ने सिर्फ अपनी नाराज़ी ज़ाहिर की और शस्त्र-सप्लाय को स्थगित किया| बंद नहीं किया| केवल शस्त्र नहीं भेजे, क्योंकि वे लोकतांत्रिक शक्तियों के विरुद्घ इस्तेमाल हो सकते थे| भारत ने आवागमन और यातायात पर रोक नहीं लगाई| कोई ऐसा काम नहीं किया, जिससे नेपाल की जनता को किसी प्रकार की असुविधा हो या नेपाल-नरेश की राजनीतिक स्थिति बिगड़े| भारत ने अच्छे पड़ौसी की मर्यादा को खूब निभाया, इसके बावजूद कि उसके राजदूत को नरेश ने मिलने का मौका भी कई हफ्तों नहीं दिया| भारत सरकार बार-बार यही दोहराती रही कि वह नेपाल के भवन को दो खम्भों पर खड़ा हुआ देखना चाहता है| वे हैं, सीमित राजतंत्र और बहुदलीय लोकतंत्र ! इशारे से भी भारत ने कभी यह नहीं कहा कि नेपाल का राजतंत्र अवांछनीय है या नरेश को बदला जाए या राजमहल के विरुद्घ कोई हिंसक या अहिंसक कार्रवाई शुरू की जाए | इतना ही नहीं, भारत के प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री ने जकार्ता में नेपाल-नरेश से भेंट भी कर ली| वे चाहते तो इस भेंट को टाल सकते थे या नरेश को टका-सा जवाब दे सकते थे| इस तरह का रवैया नरेश पर काफी भारी पड़ता| नेपाल के अंदर और बाहर उनका वज़न घटता| वे कमजोर हो जाते लेकिन नरेश ने भी कमाल किया| जकार्ता में शस्त्र-सप्लाय का आश्वासन मिलते ही पहले तो उन्होंने उसका अखबारों मे ढोल पीट दिया और दूसरे ही दिन पूर्व प्रधानमंत्री देउबा को उनके घर से आधी रात गिरफ्तार कर लिया| यह ठीक है कि उन पर राजनीतिक नहीं, आर्थिक (भ्रष्टाचार) दोष मढ़ा गया| यह नेपाल के लोकतंत्र पर ही नहीं, उन सहनशील भारतीयों के मुंह पर भी तमाचा था, जो शस्त्र-सप्लाय का समर्थन करते रहे और माओवादियों के मुकाबले नरेश का पक्ष लेते रहे| चीन से लौटते ही नरेश ने अन्य नेताओं, पत्रकारों और बुद्घिजीवियों के विरुद्घ भी अभियान तेज कर दिया| उन्होंने भारतीय प्रधानमंत्री और विदेश मंत्री को भी पसोपेश में डाल दिया| नरेश के आश्वासन की वजह से उन्होंने शस्त्र-सप्लाय दुबारा चालू करने की बात कही थी| नरेश ने आपात्काल तो उठा लिया लेकिन उसके सारे प्रावधान अब भी निर्ममतापूर्वक लागू किए जा रहे हैं| वे यह आंखमिचौनी किसके साथ खेल रहे हैं? क्या वे अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी नहीं मार रहे हैं?
भारत सरकार आखिर कब तक उनका साथ देगी? कम्युनिस्ट पार्टियों ने शस्त्र-सप्लाय के विरुद्घ खूंटा गाड़ दिया है| यदि एकाध सहयोगी-पार्टी और मैदान में आ गई तो मनमोहन सरकार मजबूर हो जाएगी| उसे न केवल शस्त्र-सप्लाय बंद करनी पड़ेगी बल्कि नेपाल के विरुद्घ कुछ कठोर कदम उठाने होंगे? वैसा होने पर आम जनता की परेशानी और बेचैनी बढ़ेगी लेकिन उसकी पूरी जिम्मेदारी नरेश पर होगी| अर्थात्र नरेश ज्ञानेंद्र अपनी टेक पर डटे रहे तो वे माओवादियों और लोकतंत्रवादियों के अलावा नेपाल की जनता और भारत को भी अपने विरुद्घ लामबंद कर लेंगे| उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत का जो रवैया होगा, उसका सीधा असर अमेरिका, बि्रटेन और यूरोप पर भी पड़ेगा| यह ठीक है पाकिस्तान और चीन को खुश करने के लिए ज्ञानेंद्र किसी भी हद तक जाना चाहेंगे लेकिन ये दोनों राष्ट्र नेपाल की खातिर शेष राष्ट्रों से अपने संबंध क्यों बिगाड़ना चाहेंगे| यह विकल्प ज्ञानेंद्र के बड़े भाई के लिए उस समय भी खुला हुआ था, जब भारत ने घेराबंदी की थी और काठमांडो में जनोत्थान हुआ था| यदि 15 साल पहले नेपाल-नरेश को घुटने टेकने पड़े तो अब तो स्थिति और भी विषम है| स्वयं ज्ञानेंद्र को अपनी वैधता के संकट का सामना करना पड़ रहा है और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां पहले जितनी प्रतिद्वंद्वात्मक नहीं हैं|
शस्त्रों के जोर पर नरेश न तो माओवादियों का मुकाबला कर सकते हैं और न ही लोकतंत्रवादियों का ! यदि नरेश का मान रखते हुए भारत लगातार सशस्त्र सहायता करता रहा तो भारत की इज़्जत लोकतंत्रवादियों की नज़र में भी गिर जाएगी| नरेश की खातिर भारत अपनी इज़्जत क्यों गिराएगा? क्या नरेश दीवार पर उभरती नई इबारत भी नहीं पढ़ पा रहे हैं? माओवादियों और लोकतंत्रवादियों के बीच हाल ही में शुरू हुआ सम्वाद कहीं राजतंत्र का विदाई-गीत न बन जाए| नेपाल के राजनीतिक दलों की एकता अपने आप में उपलब्धि है| उसका अगला तार्किक कदम यही हो सकता है कि वे माओवादियों से हाथ मिलाएं| अगर यह संभव हो गया तो प्रचंड जनोत्थान को कौन रोक सकता है? क्या नरेश को यह अंदाज नहीं कि इस बार जो आंधी उठेगी, वह राजतंत्र को अपने साथ उड़ा ले जाएगी| नरेश ज्ञानेंद्र जब तक हिंसक माओवादियों को मारेंगे, दुनिया ताली बजाती रहेगी लेकिन जब वे काठमांडो के निहत्थे प्रदर्शनकारियों के खून से अपने हाथ रंगेंगे तो उनके अंध-समर्थकों की रूह भी कॉंपने लगेगी| इसके पहले कि माओवादी और लोकतंत्रवादी आपस में हाथ मिलाएं, नरेश को चाहिए कि वे लोकतंत्रवादियों की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाएं| उनका दोस्ती का हाथ सिर्फ एक दिशा में बढ़ेगा तो उनके लिए दोस्ती के हजार हाथ कई दिशाओं से आगे बढ़ जाएंगे|
Leave a Reply