रा. सहारा, 21 सितंबर 2007 : माओवादियों ने कोईराला सरकार से इस्तीफा क्या दिया, नेपाल को दुबारा चौराहे पर ला खड़ा किया है| अभी केवल चार माओवादी मंत्री ही सरकार से बाहर आए हैं| कोई आश्चर्य नहीं कि सारे माओवादी सांसद अपने पद से इस्तीफा दे दें| यों तो आज की नेपाली सरकार और संसद दोनों ही जनता द्वारा नहीं चुनी गई हैं| वे नेताओं के आपसी समझौंतों की उपज हैं लेकिन फिर भी यह माना जा रहा था कि यह अंतरिम और तदर्थ व्यवस्था एक संविधान सभा को जन्म देगी और नया संविधान बीमार नेपाल के लिए संजीवनी का काम करेगा| माओवादी इतनी जल्दी में हैं कि वे नए संविधान का इंतजार नहीं कर सकते| वे 22 नवंबर के चुनाव तक नहीं रूक सकते| उनकी माँग है कि संविधान सभा के चुनाव के पहले ही नेपाल को ‘गणतंत्र्’ घोषित कर दिया जाए और 22 नवंबर के चुनाव केवल सानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर हों| कोइराला सरकार ये दोनों माँगें मानने में असमर्थ है, इसीलिए माओवादियों ने दुबारा बगावत का झंडा उठा लिया है|
आखिर माओवादी राजवंश की समाप्ति की घोषणा तुरंत क्यों करवाना चाहते हैं? उन्हें ऐसी क्या जल्दी पड़ी है? हम यह न भूलें कि यह नामजद संसद पहले ही सर्वानुमति से राजवंश-विरोधी प्रस्ताव पारित कर चुकी है| उस प्रस्ताव में साफ़-साफ़ कहा गया है कि यदि नेरश शांति-प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हुए पाए जाँए तो नेपाल को ‘गणतंत्र्’ घोषित कर दिया जाएगा| नेपाल-नरेश अब भी नरेश जरूर हैं, लेकिन उनका हस्तक्षेप करना तो दूर रहा, उनका जीना भी दूभर हो गया है| उनकी ज़मीन-जायदाद छीन ली गई है, उनके भत्ते काट दिए गए हैं, उनके समस्त शाही अधिकार छीन लिये गए हैं वे मंत्रियों को शपथ तक नहीं दिला सकते, वे प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और सेनापति को अपने पास नहीं बुला सकते| वे नाम मात्र् के नरेश रह गए हैं| ऐसे में माओवादी क्यों भड़क गए हैं? वे अचानक अपनी माँग पर क्यों अड़ गए हैं?
वास्तव में राजवंश को खत्म करने का नारा देकर वे चुनाव जीतना चाहते हैं| राजवंश-विरोधी लहर ऊँची उठाकर वे उस पर सवार होना चाहते हैं| कोइराला-सरकार या सप्तपार्टी-गठबंधन माओवादियों की इस मांग के आगे घुटने टेक देगा तो माओवादी चुनाव को ले उड़ेगें| इसीलिए उन्होंने माओवादियों को सरकार से जाने दिया| लोकतंत्र्वादियों का आकलन यह है कि नेपाल की जनता अभी राजवंश को खत्म करने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है| नरेश ज्ञानेंद्र और उनके पुत्र् पारस निश्चय ही लोकपि्रय नहीं है लेकिन वे ही राजवंश हों, ऐसा भी नहीं है| स्वयं कोइरालाजी ने ज्ञानेंद्र के पौत्र् को सिंहासन पर बिठाने की बात कही थी| कोइराला-सरकार इस मुद्दे पर खुली राष्ट्रीय बहस करवाना चाहती है| वह कोई भी निर्णय जल्दबाजी में नहीं करना चाहती है| लेकिन माओवादियों का कहना है कि राजवंश और उनके समर्थक हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं| वे बेहद सक्रिय हैं| उन्होंने लोकतंत्र्वादियों के गढ़ में भी सेध लगा दी है| उन्होंने तराई के नेपालियों में इतनी तगड़ी घुसपैठ कर ली है कि माओवादी संगठन के दो टुकड़े कर दिए हैं| कल तक माओवादी लोगों की हत्या करते थे, अब लोग माओवादियों की हत्या करने लगे हैं| माओवादियों को अब समझ में आने लगा है कि वोट का रास्ता काफी कठिन है| पहले लोग बंदूक के डर के मारे उनका कहा मानते थे लेकिन अब उन्हें उन लोकतांत्रिक नेताओं से टक्कर लेनी होगी, जो चुनावबाजी के महापंडित हैं| उनके इस्तीफे उनकी घबराहट के सबूत हैं| अगर नरेश या राजवंश ने कोई तिकड़म की हो तो उसके ठोस प्रमाण उन्हें पेश करने चाहिए थे लेकिन इस्तीफे देकर उन्होंने सिद्घ कर दिया है कि वे कमज़ोर पड़ते जा रहे हैं|
उनकी कमज़ोरी का सबूत इस तथ्य से भी मिलता है कि पहले उन्होंने संविधान सभा के लिए होनेवाले मतदान में सामान्य मतदान और सानुपातिक मतदान के मिलवाँ रूप को स्वीकार किया था लेकिन अब वे केवल सानुपातिक मतदान-प्रणाली की माँग कर रहे हैं| उन्हें डर है कि ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ वाले सामान्य मतदान में वे बुरी तरह पराजित हो जाएँगे| दूसरे शब्दों में वे कोइराला से कह रहे हैं कि उन्हें तो बाजी हर कीमत पर जीतनी ही है| इसीलिए अब खेल के नियम बदलिए| कोइराला सरकार या सप्तपार्टी गठबंधन खेल के नियम क्यों बदलें? वे भी तो मैदान में हैं| वे अपनी आत्महत्या का मार्ग प्रशस्त क्यों करें?
माओवादियों को अपने भविष्य की चिंता तो सता ही रही है, वे अपने वर्ततान से भी असंतुष्ट हैं| उन्हें मंत्रिमंडल में चार स्थान दिए गए थे लेकिन उनमें से एक भी महत्वपूर्ण नहीं है| उन्हें गृह, वित्त, रक्षा, विदेश सभी प्रमुख मंत्रलयों से वंचित रखा गया था| जो मंत्रलय उन्हें दिए गए थे, उनसे न तो वोट बनते हैं न पैसे बनते हैं| फायदा कुछ नहीं, नुक्सान ही नुक्सान! न तो उनके लोगों को नौकरशाही में कोई ऊँचे पद मिले और न फौज में! फौज उनके विरूद्घ पहले से है ही! ज्यादतर हथियार भी उनके पास से निकल गए हैं, हालांँकि नरेश-समर्थकों का कहना है कि माओवादियों ने अभी अपने दो-तिहाई हथियार छिपाकर रखे हुए हैं| डर यही है कि यदि माओवादी 22 नवंबर के संविधान सभा के चुनाव का विरोध करेंगे तो उसकी तार्किक परिणति यह होगी कि वे उसमें भाग भी नहीं लेंगे| तो क्या वे अब आखिरकार दुबारा हथियार उठाएँगे? क्या नेपाल दुबारा खून के दरिया में नहाएगा?
नेपाल के माओवादियों को पता है कि यदि वे दुबारा हथियार उठाएँगे तो नेपाल का बहुमत उनके विरूद्घ हो जाएगा| अन्तर्राष्ट्रीय बिरादरी भी उनके विरूद्घ होगी| भारत, अमेरिका और चीन-जैसे राष्ट्र उनके समर्थक कभी नहीं रहे| यदि उन्होंने हिंसक रास्ता अपनाया तो इस बार वे बुरी तरह से मारे जाएँगे| उनके कार्यकर्ताओं को सत्ता का चस्का भी लग चुका है| माओवादियों में अब दो धाराएँ पैदा हो गई है| एक धारा बैलेट के ज़रिए राज करना चाहती है और दूसरी बुलेट के! माओवादियों की इस खंडित मानसिकता का लाभ लोकतांत्रिकों और नरेशवादियों को अवश्य मिलेगा| माओवादियों ने अपने आपको लोकतांत्रिक प्रक्रिया से अलग करके खुद का नुक्सान किया है| वे यह भूल रहे हैं कि हथियार चलाने और जुबान चलाने के खेलों के नियम अलग-अलग हैं| लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सफल होने के लिए सहिष्णुता, धैर्य और दूरदृष्टि का महत्व सबसे अधिक होता है| तुनुकमिजाजी उन्हें कहीं का नहीं रहने देगी| वे लोकतांत्रिकों के साथ जुड़े रहते तो वे सचमुच नेपाल को ‘गणतंत्र्’ बनवा सकते थे| अब माओवादियों और लोकतंत्र्वादियों का मन-मुटाव नेपाल-नरेश के हाथ मजबूत करेगा|
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