R Sahara, 22 Feb 2005 : आपात्काल कहीं भी थोपा जाए, भारत में या नेपाल में, उसका डटकर विरोध होना चाहिए| इसीलिए नेपाल के आपात्काल का वह पार्टी भी विरोध कर रही है, जिसने खुद भारत में कभी आपात्काल थोपा था| भारत का आपात्काल नेपाल के आपात्काल से ज्यादा बुरा था, क्योंकि यहॉं वह एक व्यक्ति की कुर्सी बचाने के लिए थोपा गया था और वहॉं वह एक संस्था का निकम्मापन सिद्घ करने के लिए थोपा गया है| शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री के तौर पर विफल रहे और उनके पहले सात अन्य प्रधानमंत्रियों का इतिहास भी सराहनीय नहीं रहा| इसीलिए देउबा के ध्वस्त होने पर नेपाल के राजनीतिक आसमान में न कोई घटा छाई और न कोई बिजली कड़की| भारत में कुछ फुलझडि़यॉं जरुर छूट रही हैं| देउबा की बर्खास्तगी से लोकतंत्र का हनन कैसे हुआ, यह समझ में नहीं आता| क्या देउबा कोई लोकपि्रय प्रधानमंत्री थे? क्या वे चुनकर आए थे? वे नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र की जेब के रुमाल थे| नरेश की जेब में तरह-तरह के रुमाल पडे़ रहते हैं| बिष्ट, चॉंद, देउबा, श्रेष्ठ, गिरि आदि-आदि| जब जिसकी जरूरत होती है, उसे जेब से निकाला और तमाशबीनों के आगे फहरा दिया| जरूरत खत्म हुई तो उसे झटक दिया और जेब में डाल लिया| ये शेर बहादुर देउबा वही हैं, जिनकी सलाह पर नरेश ने संसद भंग की थी| देउबा दो बार प्रधानमंत्री रहे| उन्होंने संसद को पुनर्जीवित क्यों नहीं किया? चुनाव क्यों नहीं करवाए? नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता और देउबा के उप-प्रधानमंत्री ने चुनाव का विरोध क्यों किया? नरेश ने देउबा को चुनाव न करवाने के आरोप में ही हटाया है| यह थोथा बहाना है लेकिन ऐसा बहाना है, जो लोकतंत्रवादी दिखाई पड़ता है| नरेश चुनाव के साथ खड़े हैं और लोकतंत्रवादी उसके विरुद्घ ! कैसी हास्यास्पद स्थिति है? नरेश ने लोकतंत्रवादियों के चाकू से उन्हीं की जेब काट ली|
यह शुद्घ जेबकतरी है| यदि नहीं होती तो चुनाव करवाने के लिए नरेश तीन साल की मोहलत क्यों लेते? आपात्काल ठोकते समय उन्होंने अपने लिए तीन साल की मोहलत मॉंग ली और बेचारे देउबा को तीन महीने भी नहीं दिए| देउबा अप्रैल 2005 में चुनाव करवाने के लिए प्रतिश्रुत थे लेकिन उन्हें एक फरवरी को ही चलता कर दिया गया| देउबा पर ऑंसू बहाने के लिए नेपाल में कोई भी उपलब्ध नहीं है, सिर्फ उनके पार्टी-कार्यकर्ताओं के अलावा| आश्चर्य यही है कि ज्ञानेंद्र ने आपात्काल थोप दिया| आपात्काल की क्या जरूरत थी, समझ में नहीं आता? नेपाल के प्रमुख राजनीतिक दल तो ज्ञानेंद्र के घर की मुर्गियॉं बन चुके हैं| इस मुर्गी को मसलें या उस मुर्गी को, क्या फर्क पड़ता है? ज्ञानेंद्र-जैसे नरेश के दरबार में जो दल प्रधानमंत्री-पद की अर्जियॉं लेकर खड़े रहते हैं, पता नहीं उनसे वे क्यों डर गए? शायद उन्हें कुछ दूसरा डर सता रहा है| यह डर वैधता का हो सकता है| महल में हुए रक्तपात से उपजी अफवाहों ने अभी नए नरेश का पीछा नहीं छोड़ा है और उनके सुपुत्र और वारिस राजकुमार पारस के कारनामों ने अचानक मिले सिंहासन को निरापद नहीं होने दिया है| इस मन में बैठे चोर ने ज्ञानेंद्र को गलत काम के लिए प्रेरित किया| मानव अधिकारों का उल्लंघन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन, नेताओं की गिरफ्तारी और पुलिसिया आतंक ने नरेश की छवि को आहत किया है| भारत ही नहीं, बि्रटेन, अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्रों ने भी उनके कदम की निंदा की है| उनके इस कदम ने राष्ट्रों का ध्यान माओवादी खतरे से हटा दिया है| इस अर्थ में नरेश, नेपाल का नुकसान कर रहे हैं| दुनिया की नज़र में माओवादी आतंकवाद पीछे चला गया है और नरेशवादी आपात्काल आगे आ गया है| जैसे ही ज्ञानेंद्र आपात्काल हटाऍंगे, तनाव घट जाएगा| लोकतंत्रवादी नेता भारत से नेपाल लौटकर भी क्या कर लेंगे? 2005 का वक्त वह नही है, जो 1990 में था| अब राजनीतिक दलों के सामने एक नहीं, दो-दो शत्रु हैं| एक तरफ माओवादी हैं और दूसरी तरफ नरेश हैं| एक तरफ गन-तंत्र है और दूसरी तरफ राजतंत्र है| नेपाल की जनता किसका साथ देगी? बंदूक का या राजा का? क्या नेपाल के नेता नेपाली जनता की दुविधा को भॉंप नहीं पा रहे? क्या वजह है कि नरेश के आपात्काल के विरुद्घ प्रचंड जनोत्थान नहीं हुआ? नेपाल-नरेश क्या ईरान के शाह से भी बड़ा तानाशाह है? ईरान में वास्तविक जनोत्थान मैंने अपनी ऑंखों से देखा है| दौड़ते हुए नरभक्षी टैंकों के आगे कूदकर प्राण न्यौछावर करनेवाले नौजवानों ने शाह को ईरान से भगाया| उनका नेतृत्व वे लोग नहीं कर रहे थे जो “हजूर का दरबार मा अर्जी लियेरा आको छौं” कहते रहते हैं| लोकतंत्रवादी अब भी अपना मॅुंह सिए हुए हैं| न छिपते हैं, न सामने आते हैं| उनसे अच्छे तो माओवादी हैं, जो राजतंत्र के खिलाफ खुल्लमखुल्ला खांडा खड़काते हैं|
नेपाल की राजनीति त्रिकोणात्मक हो गई है| माओवादी, लोकतंत्रवादी और नरेश ! इन तीन भुजाओं में नरेश नामक भुजा सबसे मजबूत है| ढाई सौ साल से उसका दबदबा चला आ रहा है| निरंतरता बनी हुई है| ऐसी निरंतरता बर्मा या अफगानिस्तान या ईरान में भी नहीं रही| नेपाल की फौज स्वामिभक्त है| इसीलिए नरेश की भुजा इस्पात की भुजा है| माओवादी आरोप लगाते हैं कि नरेश और लोकतंत्रवादी मिलकर हमें खत्म करना चाहते हैं और लोकतंत्रवादी आरोप लगाते हैं कि नरेश और माओवादियों में अंदरूनी सॉंठ-गॉंठ है| वे मिलकर लोकतंत्र को निर्मूल करना चाहते हैं| याने नेपाल की तीन में से दो शक्तियॉं एक-दूसरे को खत्म करने के लिए तीसरी शक्ति से सॉंठ-गॉंठ कर रही हैं लेकिन तीसरी शक्ति याने नरेश को खत्म करने के लिए शेष दो शक्तियॉं – माओवादी और लोकतंत्रवादी आपस में मिलने को तैयार नहीं हैं| इधर लोकतंत्रवादी नेताओं ने जब दिल्ली में पत्रकार परिषद की तो वे इस सवाल पर हकलाने लगे कि आप राजतंत्र को उखाड़ना चाहते हैं या नहीं?
नेपाली लोग तो अपने राजतंत्र के बारे में मौन हैं लेकिन भारत के अनेक कलमवीर राजतंत्र का गला घोंटने के लिए अंधेरे में तीर चला रहे हैं| ये कलमवीर नेपाल में राजतंत्र के विरोधी हैं और भारत में वंशवाद के चारण-भाट हैं| पता नहीं, कैसे लोकतंत्रवादी हैं, ये? ये लोग भारत सरकार को मजबूर कर रहे हैं कि वह नेपाल को मिल रही अन्तरराष्ट्रीय सैन्य-सहायता को बंद करवाए| भारत सरकार उनके शब्द-जाल में नहीं फंस रही है| वह यथार्थवादी है| वह जानती है कि यदि सैन्य-सहायता बंद हुई तो माओवादी काठमांडो पर चढ़ बैठेंगे| नेपाल अभी नरेश के मत्थे है, फिर वह भारत के मत्थे पड़ जाएगा| इस बीच नेपाल में चीन और पाकिस्तान का वर्चस्व भी बढ़ जाएगा| लोकतंत्र भारत को अत्यंत पि्रय है लेकिन नेपाल भारत का प्रांत नहीं है| दूसरे देशों पर लोकतंत्र थोपने के लिए हम अपनी फौज क्यों भेजें? अपने लोकतंत्र के लिए अगर नेपाली खुद लड़ें तो भारत पीछे नहीं रहेगा लेकिन पड़ौसी देशों में लोकतंत्र लाने का भूत हम पर सवार हो गया तो हमें पाकिस्तान, बर्मा, मालदीव और भूटान जैसे मित्र-देशों पर भी अपनी फौजें लादनी होंगी| आपात्काल हटाने के लिए नरेश को विवश करना बिल्कुल सही है लेकिन फौजी सहायता रोक कर माओवादियों को मजबूत करना कहॉं तक ठीक है? यह लोकतंत्र की कैसी सहायता है?
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