नेपाल में राजशाही के बावजूद कम्युनिस्ट पार्टियां लंबे समय से सक्रिय हैं लेकिन उनमें कभी एकता नहीं रही। इस बार नेपाल की दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां न सिर्फ एक हो गई है बल्कि दोनों मिलकर नेपाल में राज भी कर रही है। ये पार्टियां हैं– एकीकृत मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टी (एमाले) और माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी। याने अब मार्क्स, लेनिन और माओ– तीनों नेपाल में एक हो रहे हैं।
इन दोनों पार्टियों की नेपाली संसद में जबर्दस्त ताकत है। कुल 275 सदस्यों में से 174 सदस्य इन पार्टियों के हैं। सरकार भी इन्हीं की है। मिली-जुली है। और जैसे कि प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने आशा व्यक्त की है, यदि उपेंद्र यादव का समाजवादी फोरम भी इनमें शामिल हो जाता है तो वामपंथियों का बहुमत 2/3 हो जाएगा। नेपाल में पिछले 10 साल में 10 सरकारें बन गईं और बिगड़ गईं। ओली और माओवादी नेता पुष्पकमल दहल प्रचंड भी इस बीच प्रधानमंत्री रह चुके हैं।
यदि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों का यह विलय सफल हो गया तो निश्चय ही नेपाल में स्थिरता और समृद्धि बढ़ेगी। 2015 के भूकंप ने हजारों लोगों के प्राण ले लिये थे और नेपाल की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया था। नेपाल की घेराबंदी से भी काफी नुकसान हुआ था। अब दोनों पार्टियों ने अपनी-अपनी संपत्ति का भी विलय कर लिया है। हसिया-हथौड़े को अपना निशान बनाया है और पार्टी-चुनाव होने तक ओली और प्रचंड, दोनों संयुक्त पार्टी अध्यक्ष बने रहेंगे। ओली ने कहा है कि अब दोनों पार्टियां जहाज की तरह चलेंगी, जिसमें दो पायलट एक साथ बैठेंगे। इसकी केंद्रीय समिति में 441 सदस्य होंगे। 200 माओवादी और 241 एमाले वाले। दोनों पार्टियों ने दिसंबर का चुनाव समान घोषणा-पत्र पर लड़ा था और पिछले साल अक्तूबर में ही उन्होंने घोषणा कर दी थी कि उनका विलय होगा।
इस नई पार्टी का नाम ‘नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी’ होगा। इस विलय का मैं स्वागत करता हूं हालांकि इन दोनों पार्टियों का मैंने किसी जमाने में डटकर विरोध किया था, शेर बहादुर देउबा, ओली और प्रचंड से हुई मेरी भेंटों में जब उन्होंने मुझसे पूछा कि आप हमारा इतना विरोध क्यों करते हैं तो मेरा सीधा-साधा जवाब यह था कि इसलिए कि आप अकारण ही भारत का विरोध करते हैं। उस बार भी ओली ने अपना चुनाव भारत-विरोध के आधार पर ही जीता है लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काठमांडो-यात्रा से कुछ अच्छे संदेश उभरे हैं। भारत की कूटनीति को अभी काफी सावधानी, चतुराई और उदारता की जरुरत है ताकि नेपाल चीन की गोद में बैठ जाने की गलती न करे।
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