राष्ट्रीय सहारा, 20 अक्टूबर 2009 : ओबामा चाहते तो नोबेल पुरस्कार को अस्वीकार कर सकते थे, जैसे कि प्रसिद्घ फ्रांसीसी साहित्यकार ज्यां पाल सार्भ या वियतनामी बौद्घ भिक्षु थिच कुआंग दो ने कभी किया था| यदि वे ऐसा कर देते तो शायद उनकी हैसियत अमेरिका के राष्ट्रपति से भी ज्यादा हो जाती| अमेरिका के राष्ट्रपति-पद में चार चांद लग जाते| पिछले अमेरिकी राष्ट्रपतियों-रूजवेल्ट, वुडरो विल्सन और जिमी कार्टर से भी वे उंचे चढ़ जाते| इन अमेरिकी नेताओं को उनकी उपलब्धियों के लिए नोबेल मिला था, ओबामा को उनकी संभावनाओं के लिए मिल रहा है| ओबामा कह सकते थे कि मुझे चुनने के लिए मैं आपका आभारी हूं लेकिन अभी ज़रा प्रतीक्षा कीजिए| मेरी संभावनाओं को उपलब्धियों में बदलने दीजिए| संभावनाओं और उपलब्धियों का फासला बड़ा फिसलनभरा है| कहीं ऐसा न हो कि ओबामा और नोबेल, दोनों की जगहंसाई हो जाए| जितनी विनम्रता से ओबामा ने नोबल स्वीकार किया है, उससे भी ज्यादा विनम्रता से वे अस्वीकार कर सकते थे| वे वैसा करते तो नोबेल पुरस्कार का अपमान नहीं होता| जिस आशावादिता से प्रेरित होकर यह पुरस्कार दिया जा रहा है, वह ज्यों की त्यों कायम रहती|
लेकिन ओबामा के लिए यह पुरस्कार अब एक नया सिरदर्द बन सकता है| अब अमेरिका के राष्ट्रपति और नोबेल-विजेता में रोज़ टक्कर होगी| नोबेल-विजेता को दुनिया में शांति स्थापित करनी है और अमेरिकी राष्ट्रपति को दुनिया में अमेरिका की दादागिरी कायम करनी है| एक म्यान में ये दो तलवारें कैसे रहेंगी ? अमेरिका का सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान क्या यह बर्दाश्त कर सकता है कि ओबामा सारी दुनिया से अमेरिकी फौजें वापस कर ले ? इस प्रतिष्ठान की यह मजबूरी है कि वह फौजें भेजने के मौकों की तलाश करता रहता है| 1962 में क्यूबा पर, 1984 में निकारागुआ पर और 2005 में एराक़ में फौजें भेजने की क्या जरूरत थी ? इन राष्ट्रों ने अमेरिका के लिए कौनसा खतरा खड़ा कर दिया था ? इनके पहले अमेरिकी फौजों ने वियतनाम को क्यों रौंद दिया था ? जापान, सउदी अरब और रूस के पड़ौसी देशों में अमेरिका ने अपने फौजी अड्रडे अभी तक क्यों कायम किए हुए हैं ? क्या ओबामा की हिम्मत है कि 65 साल से बिछी इस अमेरिकी शतरंज को वे उलट दें ? वे चाहें तो भी वैसा नहीं कर पाएंगे| अमेरिकी राष्ट्रपति के नाते उन्हें सदा युद्घ का नगाड़ा पीटते रहना होगा|
अपने पिछले नौ माह के शासन काल में वे ऐसा क्या कर पाए हैं, जिससे यह आशा बंधे कि सचमुच अगले सवा तीन साल में वे शांति के मसीहा सिद्घ होंगे ? यह ठीक है कि उन्होंने सुरक्षा परिषद से परमाणु-अप्रसार और व्यापक निरस्त्रीकरण का प्रस्ताव पारित करवा लिया लेकिन निरस्त्र्ीकरण के ऐसे प्रस्ताव संयुक्तराष्ट्र महासभा कई बार पास कर चुकी है| निरस्त्रीकरण के जितने प्रस्ताव पारित होते है, परमाणु शस्त्रें की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती चली जाती है| आज कुल 23000 परमाणु शस्त्रें में से कितनों को नष्ट करने का संकल्प कितने राष्ट्रों ने किया है ? एक ने भी नहीं, खुद अमेरिका ने भी नहीं| याने ये प्रस्ताव कोरी बातों के अलावा क्या हैं ? पता नहीं कि ये कोरी बातें हैं या उसकी आड़ में कोई नई जालसाज़ी है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि इस प्रस्ताव की ओट में भारत-जैसे देशों को परमाणु-अप्रसार संधि (एनपीटी) पर दस्तखत करने के लिए मजबूर किया जाए ? यह ठीक है कि बुश के मुकाबले ओबामा परमाणु-अप्रसार के बड़े वकील मालूम पड़ते हैं लेकिन क्या उनकी जि़रह अमेरिका-जैसे राष्ट्रों के लिए यथास्थितिवादी और भारत-जैसे राष्ट्रों के लिए खतरनाक सिद्घ नहीं होगी ?
इसी तरह ओबामा अफगानिस्तान में क्या करेंगे, यह उन्हें खुद पता नहीं है| नौ माह निकल गए, लेकिन वे यह तय नहीं कर पाए कि वे अफगानिस्तान में आगे बढ़ें या पीछे हटें| उनके द्वारा नियुक्त सेनापति मेककि्रस्टल कहते हैं कि 40 हजार जवान और भेजो जबकि उनके उप-राष्ट्रपति जो बाइडन तथा अमेरिकी लोग कहते हैं कि अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाओ| ओबामा वहां अपनी फौज बढ़ाएं या घटाएं, इसके लिए वे पूर्ण स्वतंत्र् और समर्थ हैं लेकिन शांति का नोबेल पुरस्कार उनके पांव की बेड़ी बन गया है| यदि वे फौज बढ़ाएंगे तो सारी दुनिया कहेगी कि यह कैसे शांति का मसीहा है और वे फौज घटाएंगें तो वे अपने राष्ट्रपति-पद की छवि चौपट करेंगे| अब उन्हें अपने हर कदम के लिए अतिरिक्त सफाई पेश करनी होगी| अब तक वे अमेरिकी कांग्रेस के प्रति जिम्मेदार थे, अब उन्हें विश्व-जनमत को भी जवाब देना होगा| अनेक अमेरिकी विश्लेषकों का मानना है कि ओबामा यदि दुबारा राष्ट्रपति चुने गए तो भी अमेरिका को वे अफगानिस्तान से नहीं निकाल पाएंगे| अफगानिस्तान पर उनका लंबा विभ्रम और उनके सलाहकारों की योग्यता के आधार पर माना जा सकता है कि ओबामा अफगान दल-दल में धंसते चले जाएंगे|
यही हाल एऱाक और फलस्तीन का है| इन दोनों क्षेत्रें में भी ओबामा सिर्फ गाल बजा रहे हैं| एराक़ में न हिंसा रूक रही है और न ही कोई स्वस्थ व्यवस्था उभर रही है| फलस्तीनियों को न्याय मिलना तो दूर रहा, गाजा पट्रटी में इस्राइली बस्तियां बढ़ती चली जा रही है| अभी-अभी इस्राइल ने फलस्तीनियों के विरूद्घ जो युद्घ छेड़ा था, उसमें उसने अगणित युद्घ अपराध किए थे लेकिन ओबामा-प्रशासन ने अभी तक अपनी जुबान नहीं हिलाई है| जिसे शांति का नोबेल-पुरस्कार मिले, वह नेता शांति के लिए यदि जबानी जमा-खर्च भी नहीं कर सके तो उसके क्या कहने ? इसी तरह ओबामा ने ईरान के बारे मे बुश की तरह खम नहीं ठोके और बातचीत की शुरूआत की लेकिन ताज़ा खबर यह है कि ईरान के भूमिगत शस्त्रगार को ध्वस्त करने के लिए ओबामा-प्रशासन ने एक 15 टन के बम का प्रावधान किया है, जिसमें 2400 किलो विस्फोटक होंगे| इस बम की सिर्फ तैनाती पर 50 करोड़ डॉलर खर्च किए जा रहे हैं| ओबामा ने काहिरा विश्वविद्यालय के अपने भाषण में इस्लामी जगत से नया नाता जोड़ने की जुगत जरूर बिठाई लेकिन तालिबान के प्रवक्ता ने ओबामा को अधिक हिंसक और अधिक आक्रामक घोषित किया है| ग्वांटेनामो की कुख्यात जेल को भी, वे अपने वादे के मुताबिक, खत्म करने में सफल नहीं हो पाए हैं| इसी प्रकार अमेरिकी समाज को भी अहिंसक बनाने में अभी उन्होंने कोई उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया है| अमेरिका में जितनी हिंसा होती है, दुनिया के किसी देश में नहीं होती| अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक-राष्ट्र है| ओबामा ने अभी तक कोई ऐसा प्रेरणादायक कदम नहीं उठाया है कि औसत अमेरिकी अपने उपभोक्तावाद में कोई कटौती करें| आशा की जानी चाहिए कि ओबामा इस दिशा में भी कुछ ठोस कदम उठाएंगे| नोबेल-पुरस्कार ने ओबामा को अमेरिका का ही नहीं, विश्व का महान नेता बनने की चुनौती दे दी है| देखें, क्या करते हैं, ओबामा ? उनके साथ पूरी सहानुभूति और उन्हें पूरी शुभकामनाएं!
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