दैनिक भास्कर, 14 अप्रैल 2009 : हिंदुस्तान को खुद पर शर्म कब आएगी ? कितनी शन्नो अयूब मरेंगी, तब इस देश की नींद खुलेगी ? लाखों शन्नो रोज अंग्रेजी की प्राणलेवा चक्की में पिस रही हैं लेकिन उनकी कराह हमारे कानों तक नहीं पहुंचती, क्योंकि वे मरती नहीं है| बेचारी शन्नो मर गई, तभी देश को पता चला कि एक अंग्रेजी शब्द की स्पेलिंग गलत बोलने के कारण उसकी जान चली गई| हमारे हिंदी अखबारों और नेताओं ने इस मूल तथ्य पर कोई ध्यान नहीं दिया है| वे सिर्फ इसे शिक्षिका की ज्यादती कहकर निपटा रहे हैं| शन्नों के मॉ-बाप को कुछ मुआवजा देकर और शिक्षिका को नौकरी से हटाकर सब चुप हो जाएँगे| यह चुप्पी हत्यारे की चुप्पी है| शन्नो की हत्या के लिए हम सब जिम्मेदार हैं| शन्नो अकेली नहीं है| शन्नो की ही तरह पिछले साले नोएगा और वाराणसी के दो नौजवानों ने आत्महत्या की थी| उसका कारण भी अंग्रेजी ही थी|
शन्नो की छोटी बहन (प्रत्यक्ष गवाह), पिता अयूब और डॉक्टर जकी अहमद तीनों ने कहा है कि शन्नो की सजा मिलने का कारण अंग्रेजी है| इसमें शक नहीं कि कोई और शिक्षिका होती तो वह इतनी कड़ी सजा नहीं देती और इस शिक्षिका को भी क्या पता था कि इस सजा से शन्नो की मौत हो जाएगी लेकिन यहां विचारणीय मुद्दा यह है कि किसी भी शिक्षक या शिक्षिका के लिए अंग्रेजी इतना बड़ा मुद्दा क्यों है ? वे इतना बड़ा खतरा क्यों मोल लेते हैं ? इसका मूल कारण हीन-भाव है| स्वयं शिक्षक यह मान बैठे हैं कि जिसे अंग्रेजी नहीं आती, वह बिल्कुल निरक्षर है, अशिक्षित है, असभ्य है| वह इंसान होने के लायक भी नहीं है| वह जानवर है| अगर वह जानवर है तो उसके साथ जानवर-जैसा ही बर्ताव करो| शन्नो के मरने का कारण यही है| शिक्षकों को पता होता है कि जिन बच्चों को अंग्रेजी कमज़ोर होती है, उनके माता-पिता कौन होते हैं| वे गरीब, पिछड़े, छोटी जात, ग्रामीण और अल्पसंख्यक होते हैं| वे क्या कर लेंगे ? अगर उनके बच्चों को गालियॉं देंगे, मारेंगे-पीटेंगे और मार भी डालेंगे तो उनके लिए बोलनेवाला कौन है ? समाज में जो बोलनेवाले हैं, जिनके मुँह में जुबान है वे नेता हैं, उद्योगपति हैं, अफसर हैं, वकील हैं? डॉक्टर हैं, पत्र्कार हैं| उनके बच्चे भी अंग्रेजी से परेशान हैं लेकिन वे सब अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ते हैं| उनके बच्चों को कौन छू सकता है ? इन बच्चों से खुद शिक्षक डरे रहते हैं| शिक्षकों की मोटी तनख्वाहें, असीम सुविधाएं और सम्मान उन्हें अत्याचार करने से रोकते हैं|
लेकिन देश के सरकारी स्कूलों में करोड़ों बच्चों पर रोज़ बेइंतहा जुल्म होते हैं| बेजुबान बच्चे कुछ कह नहीं पाते| वे दुनिया के सबसे असहाय सर्वहारा हैं| इन सर्वहाराओं की सुध लेनेवाला इस देश में कोई नहीं| इन बच्चों से अगर आप उनकी पढ़ाई के बारे में बात करें तो आप दंग रहे जाएंगे| वे बताते हैं कि उन्हें जो पॉच-छह विषय पढ़ने पढ़ते हैं, उनके सबसेज्यादा समय अकेले अंग्रेजी पर लगाना पड़ता है| कुछ बच्चों ने मुझे बताया कि सारे विषयों पर हम जितना समय लगाते हैं, उससे भी ज्यादा अकेली अंग्रेजी पर लग जाता है| फिर भी नतीजा क्या होता है ? लाख रटने के बावजूद स्पेलिंग और ग्रामर की गलतियां रह जाती हैं| कक्षा में हमेशा नीचे देखना पड़ता है| मन में यह भाव भर जाता है कि हम बिल्कुल निकम्मे है| हम में कोई योग्यता ही नहीं है| हम किसी के नहीं है| यदि दूसरे विषयों में हमारे अच्छे नंबर आते हैं तो भी हमें उसको कोई श्रेय नहीं मिलता| बचपन में पैदा हुआ यह भाव पूरे जीवन को खोखला कर देता है| जिस भवन की नींव ही खोखली हो जाए, उसे आप कितना ऊंचा उड़ा सकते हैं ? 61 साल की भारत की शिक्षा का भवन कितना शक्तिशाली है, इसका अदाज़ आपको इसी बात से लग सकता है कि हर साल 11 करोड़ बच्चे हमारी प्राथमिक शालाओं में भर्ती होते हैं और बी.ए. तक पहुंचते-पहुंचते उनकी संख्या सिर्फ 30-35 लाख रह जाती है| 95 प्रतिशत बच्चों का क्या होता है ? वे आगे पढ़ते क्यों नहीं है ? वे क्यों भाग खड़े होते हैं ? इसका कारण गरीबी वगैरह तो है ही, लेकिन सबसे बड़ा कारण है, अंग्रेजी की थुपाई| अंग्रेजी की अनिवार्यता बच्चों को प्रतिदिन दम घोटती है, उनमें हीनता का संचार करती है, और उनके दिलो-दिमाग को निराशा से भर देती है| वे जानते हैं कि वे कितनी ही मेहनत करें, वे अंग्रेजी में फेल हो जाएंगे| हायर सेकेन्डरी बोर्ड के आंकड़े बताते है कि सबसे ज्यादा अगर किसी विषय में बच्चे फेल होते हैं तो अंग्रेजी में होते है| जो बच्चे किसी तरह पास हो जाते हैं, उन्हें पता होता है कि उन्हें नौकरी नहीं मिलेगी, क्योंकि उनकी अंग्रेजी कमजोर है और भारत में हर अच्छी नौकरी पाने के लिए अंग्रेजी अनिवार्य है| अगर बी.ए. पास करके भी चपरासी या खलासी की नौकरी ही करनी है तो पढ़ाई बेकार है| क्यों समय और पैसा बेकार किया जाए ? दूसरे शब्दों में अंग्रेजी के कारण भारत में शिक्षा का विस्तार नहीं हो रहा है, संकोच हो रहा है|
अंग्रेजी की अनिवार्य पढ़ाई पर केंद्र और राज्य की सरकारें, जितना पैसा बर्बाद करती हैं, यदि उतना पैसा नौजवानों को काम धंधे सिखाने पर खर्च किया जाता तो आज भारत, अमेरिका, चीन और यूरोप से आगे निकल जाता| भारत में मुश्किल से डेढ़-दो सौ काम-धंधों का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है जबकि उन्नत देशों में लगभग तीन हजार धंधो का ! हम यह मानकर चलते है कि अंग्रेजी बच्चों को सर्वगुणसम्पन्न बना देगी| अगर वह आ गई तो सब कुछ आ गया| कुछ और सीखने की जरूरत नहीं है| हम यह भूल गए कि विभिन्न विषयों की शिक्षा और काम-धंधों की प्रशिक्षा के लिए भी सबसे अच्छा माध्यम स्वभाषा होती है| यदि कुछ बच्चों को अंग्रेजी सिखाना आवश्यक है तो उन्हें दस-बारह साल तक अंग्रेजी की चक्की में क्यों पीसा जाए ? कोई भी विदेशी भाषा छह माह में बहुत अच्छी तरह सीखी जा सकती है| मैंने जर्मन, रूसी और फारसी स्वयं इसी तरह सीखी है| अंग्रेजी की जरूरत कितने लोगों को हो सकती है ? मुश्किल से चार-पॉंच लाख लोगों को, जिन्हें ज्ञान-विज्ञान में उच्च शोध करना है, पश्चिमी देशों से व्यापार करना है, वैदेशिक कूटनीति चलानी है या पश्चिमी देशों में रहकर नौकरियॉं करनी हैं| पॉच लाख लोगों का पेट भरने के लिए जो बहू 100 करोड़ लोगों का आटा गूंध ले, उसे कौन पागल नहीं कहेगा ? यह पागलपन पिछले 61 साल से चल रहा है| इसे कौन रोकेगा ? हमारे नेता और राजनीतिक दल इस पागलपन के सबसे बड़े शिकार हैं| उनसे ज्यादा आशा नहीं की जाती| उनकी बला से, कोई शन्नो मरे, उनका क्या बिगड़ रहा है| उन्हें कोई शर्म नहीं आती| यह काम हिंदुस्तान के करोड़ों नौजवानों को करना होगा| अंग्रेजी या किसी विदेशी भाषा के विरूद्घ नहीं, उसकी अनिवार्यता के विरूद्घ, उसके एकाधिकार के विरूद्घ, उसकी प्राणलेवा भूमिका के विरूद्घ|
(लेखक देश में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के सूत्र्धार हैं और अनेक देशी-विदेशी भाषाओं के जानकर हैं)
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