नवभारत टाइम्स, 13 जनवरी 2007 : हम ज़रा सोचें कि यदि उच्चतम न्यायालय का फैसला उलटा होता तो क्या होता ? यदि 11 सांसदों को वह बरी कर देता तो क्या होता ? सबसे पहले तो संसद और न्यायालय के बीच तलवारें खिंच जातीं| लगभग वही दृश्य उपस्थित हो जाता जो लगभग 40 साल पहले लखनऊ में हुआ था| इससे भी बुरा यह होता कि संसद पर से जनता का विश्वास उठ जाता| लोग यह मानने लगते कि हमारे सांसद भ्रष्ट हैं| पैसे के गुलाम हैं| उन्हें आलू-बैंगन की तरह खरीदा-बेचा जा सकता है| अब छवि यह बन रही है कि इस देश में कुछ मर्यादाएं हैं| कुछ संयम-नियम हैं| कुछ कायदे-कानून हैं, जिनका उल्लंघन कोई नहीं कर सकता| यदि सांसद भी न्याय की गिरफ्त में आ सकते हैं तो अन्य शक्तिशाली लोगों पर शिकंजा क्यों नहीं कसा जा सकता ? दूसरे शब्दों में उच्चतम न्यायालय के इस फैसले ने कानून की महिमा बढ़ाई है|
कुछ लोगों का मानना है कि सांसद सस्ते में छूट गए| सदस्यता का छिनना भी कोई सजा है ? हत्या करनेवाले सिपाही से आप उसकी बंदूक धरवा लें, यह क्या सजा हुई ? सजा तो अलग से होनी चाहिए| याने कोई चाहे तो इन सांसदों पर रिश्वत खाने का मुकदमा चला सकता है| मुकदमे पर अदालत का फैसला क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन यहां कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है| जैसे किसी सांसद की सदस्यता छूटना कोई मामूली घटना नहीं है| सदस्यता के उसके विशेषाधिकार तो समाप्त होते ही हैं, उसके जीवन भर का पुण्य-नाश भी होता है| सार्वजनिक जीवन में की गई बरसों-बरस की साधना एक क्षण में ही नष्ट हो जाती है| भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है| भाजपा ने तो घोषणा कर दी है कि वह निष्कासित सांसदों को अगले चुनाव में टिकिट नहीं देगी| इस निर्मम घोषणा के पीछे शायद तर्क यह रहा हो कि इन्हें टिकिट दिया गया तो वे खुद तो हारेंगे ही, दूसरे उम्मीदवारों को भी हरवाएंगे| यह बड़ा यथार्थवादी रवैया है, अन्यथा क्या वजह थी कि अपने पांचों निष्कासित सांसदों को बचाने के लिए भाजपा ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था ? साम्यवादी पार्टियां काफी शोर मचाती रहीं| मानो उनके सांसद दूध के धुले हुए हैं| मानो वे और अन्य सभी सांसद राजा हरिश्चंद्र के अवतार हैं, (क्योंकि उन पर जाल नहीं बिछाया गया)| यदि उन पर भी जाल डाला गया होता तो क्या वे भी नहीं फंसते ? कौन नहीं फंसता ? लोकसभा अध्यक्ष तथा जो सांसद इस स्टिंग ऑपरेशन में नहीं फंसे, उन सबको यह अच्छी तरह पता था कि भारत की आम जनता का ख्याल उनके बारे में भी क्या है ? इसी ख्याल से अपनी रक्षा करने के लिए या अपनी छवि सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने अपने फंसे हुए साथियों पर कोई दया नहीं दिखाई| उन्हें यह भी पता था कि जो पकड़े गए हैं वे भ्रष्टाचार के समुद्र में तैरनेवाली छोटी-मोटी मछलियां हैं| जबकि बड़े-बड़े मगरमच्छ निरापद घूम रहे हैं| वे सड़क, बिजली, पानी में पैसा नहीं खाते| वे बोफोर्स, डब्ल्यूएमडी, ताबूतों, गैस पाइपलाइनों आदि में करोड़ों डकारते हैं| जो फंस गए, वे नौसिखिए और नादान थे| जो घाघ हैं, चालाक हैं, गले-गले तक डूबे हैं, उनपर कोई उंगली भी नहीं उठाता| क्या बिना भ्रष्टाचार किए कोई व्यक्ति आज भारत का सांसद बन सकता है ? इसी धब्बे को धोने की धुन में ग्यारह सांसदों को निकाल बाहर किया गया है|
इन सांसदों को निकलवाने के लिए तत्पर तत्वों ने यह भी नहीं सोचा कि सांसदों के साथ जो कुछ हुआ, वह कोई स्वाभाविक घटना नहीं थी| बल्कि वह एक कृत्र्िम प्रकरण था| वह नाटक था| जिन्होंने नाटक रचाया, उन्होंने खुद चिल्ला-चिल्लाकर बताया कि वह नाटक था| संसद में सवाल पूछने के लिए रिश्वत लेने का नाटक ! क्या नाटक के पात्रें को सजा दी जाती है ? नाटकों में हत्या, बलात्कार, चोरी और रिश्वत क्या-क्या नहीं होता? यदि इन 11 सांसदों पर मुकदमा चले तो शायद अदालत खुद से यह जरूर पूछेगी कि उसे नाटक पर कोई फैसला देने का अधिकार है या नहीं ! उसे यह भी तय करना पड़ेगा कि यदि यह रिश्वत लेनेवाले को सजा देगी तो रिश्वत देनेवाले को सजा क्यों नहीं देगी ? भ्रष्ट होनेवाला बड़ा अपराधी है या भ्रष्ट करनेवाला ! यह कैसे हो सकता है कि रिश्वत देना तो नाटक माना जाए और रिश्वत लेना असली घटना ? दोनों कुकर्म एक ही प्रक्रिया के हिस्से हैं| स्टिंग ऑपरेशन, इसीलिए पत्र्कारिता नहीं है| वह साहसिक तो बिल्कुल भी नहीं है| वह नक़ली पत्र्कारिता है, ये बात दूसरी है कि इस नक़ली कर्म-कांड से भी भ्रष्टाचार का भाण्डाफोड़ होता है| असली पत्र्कारिता तो वह है, जो वास्तविक भ्रष्टाचार का भाण्डाफोड़ करे, जैसे कि बोफोर्स में हुआ था| डर यही भी है कि ‘स्टिंग ऑपरेशन्स’ के नाम पर कुछ नेताओं, व्यापारियों और पार्टियों को चुन-चुनकर बदनाम या ब्लेकमेल किया जाए| अदालतों को ‘स्टिंग ऑपरेशन्स’ के इस पहलू पर भी ध्यान देना होगा| स्टिंग ऑपरेशन फायदेमंद जरूर है, लेकिन क्या वह नैतिक है और वैधानिक भी है ?
फिलहाल, उच्चतम न्यायालय ने अपना ध्यान अपनी शक्तियों पर ज्यादा दिया है| निष्कासित सांसदों के बहाने उसने अपने खम ठोंक दिए हैं| उसने दोहरा दिया है कि भारत की संसद संप्रभु नहीं है| उसकी तुलना बि्रटिश संसद से नहीं की जा सकती| भारत में केवल संविधान ही संप्रभु है| संसद के किसी भी कानून या प्रस्ताव की समीक्षा करने का अंतिम अधिकार उच्चतम न्यायालय को है| इसी आधार पर उसने 11 सांसदों के निष्कासन का मुकदमा स्वीकार कर लिया, लेकिन उसने अपना फैसला काफी चतुराई से दिया| उसने संसद के निर्णय को सही बताया| सांसदों के निष्कासन को उसने संपुष्ट किया है| वह चाहती तो उसे गलत भी करार दे सकती थी, जैसा कि एक जज रवीन्द्रन ने किया है| लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने उच्चतम न्यायालय के फैसले पर खुशी जाहिर की है, जो स्वाभाविक है लेकिन उनका ध्यान एक अन्य बुनियादी कमी की तरफ जाना चाहिए था| वह है, हमारी संसद के विशेषाधिकारों का अभी तक अपरिभाषित रहना ! यदि संसद और विधानसभाओं के विशेषाधिकारों को धारा 105 और 194 के अंतर्गत स्पष्ट रूप से लिख दिया जाए और संहिताबद्घ कर दिया जाए तो न्यायपालिका और विधानपालिका के बीच होनेवाले गंभीर संघर्षों की संभावनाओं को समाप्त किया जा सकता है| न्यायमूर्ति रवीन्द्रन की राय इकलौती अलग राय है, लेकिन उसकी उपेक्षा करना अनुचित होगा| संसद अपने आंतरिक मामलों में सर्वोच्च रहे, यह सही है लेकिन वह निरंकुश हो जाए, यह गलत है| किसी भी लोकतंत्र् में चाहे संसद हो या सरकार हो या अदालत हो, उसे निरंकुश होने की स्वतंत्र्ता नहीं दी जा सकती| लोकतंत्र् के ये तीनों स्तंभ संप्रभु होने का दावा करते रहते हैं और अपनी सर्वोच्चता सिद्घ करने के लिए यदा-कदा खींचातानी भी करते हैं, लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उनमें से कोई भी एक या तीनों मिलकर भी संप्रभु नहीं हो सकते| लोकतंत्र् में केवल एक ही संप्रभु होता है और वह है जनता-जनार्दन !
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