NavBharat Times, 15 May 2004 : इस चुनाव में कौन जीता और कौन हारा, यह सबको पता है लेकिन इस इबारत में से क्या कोई अखिल भारतीय निष्कर्ष पढ़े जा सकते हैं? जी हॉं, पहला निष्कर्ष तो यही है कि इन चुनाव परिणामों ने नेतृत्व की अखिल भारतीयता भंग कर दी है| हम यह कहने की स्थिति में नहीं हैं कि फलॉं-फलॉं भारत का नेता है इसीलिए भाजपा के हारने और कॉंग्रेस के जीतने का श्रेय क्रमश: अटलबिहारी वाजपेयी और सोनिया गॉंधी के माथे नहीं मढ़ा जा सकता| यदि अटलजी मुद्दा होते तो भाजपा को सचमुच 300 सीटें मिलतीं क्योंकि समस्त लोकपि्रयता-सर्वेक्षणों में वे सदा सर्वोपरि रहे, नेहरू, इंदिरा, राजीव और नरसिंहराव की तरह वे किसी बदकिस्मती के शिकार भी नहीं हुए, वे लगभग बेदाग रहे, उन्होंने लगभग हर प्रांत में जमकर जनसभाऍं कीं, उन्हें महानायक सिद्घ करने के लिए सरकार और गठबंधन ने विज्ञापनों में करोड़ों रुपए बहा दिए, राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ की विजय के पंख भी उनकी पगड़ी में खोंस दिए गए लेकिन हुआ क्या? इन तीन प्रांतों के अलावा लगभग हर प्रांत में भाजपा-गठबंधन का सॅूंपड़ा साफ हो गया है| जहॉं थोड़ी-बहुत रंगत दिखाई पड़ी है, जैसे पंजाब, महाराष्ट्र और कर्नाटक में तो उसके कारण स्थानीय हैं| अखिल भारतीय नहीं| यदि अखिल भारतीय नेतृत्व का कुछ असर होता तो वह सबसे पहले उत्तर प्रदेश में दिखाई पड़ता, जहॉं से प्रधानमंत्री खुद दो लाख से अधिक वोटों से जीते हैं और जिसे उन्होंने सरकार-निर्माता प्रांत कहा है| इसके अलावा दिल्ली तो भाजपा की नाक थी| यदि किसी शहर पर प्रधानमंत्री का सबसे अधिक असर होता है तो वह उसकी राजधानी पर होता है लेकिन राजधानी के परिणामों ने भी यह सिद्घ कर दिया कि भारत, 21वीं सदी का भारत व्यक्ति-पूजा में विश्वास नहीं करता|
जो बात अटलबिहारी वाजपेयी पर लागू होती है, वही सोनिया गॉंधी पर भी लागू होती है| अटल बनाम सोनिया का अभियान तूल पकड़ता, उसके पहले ही ठप हो गया| सोनिया देशी है या विदेशी, यह मुद्दा भी उछल नहीं पाया| हालॉंकि सोनिया तूफान की तरह सारे देश में दौड़ रही थीं लेकिन चुनाव के अंतिम दौर में वे लगभग हाशिए में चली गई थीं| यदि उनमें कोई जादू था तो वह केरल, कर्नाटक और पंजाब के कॉंग्रेसी प्रांतों में क्यों नहीं चला? वह राजस्थान, म.प्र. और छत्तीसगढ़ जैसे भाजपाई प्रांतों में क्यों नहीं चला? हिमाचल और हरयाणा में कॉंग्रेस जीती लेकिन उसका कारण पिछले गठबंधनों का टूटना और नए गठबंधनों का बनना है| यही कारण तमिलनाडु में भी प्रभावी रहा| बिहार और महाराष्ट्र में भी स्थानीय कारण हावी रहे| आंध्र के महोत्सव के महानायक राजशेखर रेड्डी हैं, जैसे कि दिल्ली की दोहरी शतक का श्रेय शीला दीक्षित को है| इन चुनावी चमत्कारों में सोनिया की भूमिका है अवश्य, लेकिन उल्लेखनीय नहीं| यदि सोनिया-तत्व चमत्कारी होता तो कम से कम उस प्रांत में तो प्रकट होता, जिससे वे और उनका बेटा चुना गया है| इस प्रधानमंत्री-निर्माता प्रांत में कॉंग्रेस अब भी क्षेत्रीय दलों के पीछे क्यों घिसट रही है?
इसमें शक नहीं कि भाजपा की लगभग एक-चौथाई सीटें घटी हैं और कॉंग्रेस की उतनी ही बढ़ी हैं और इस घट-बढ़ का श्रेय क्षेत्रीय दलों को है लेकिन इसके बावजूद प्रधानमंत्री अखिल भारतीय दल का नेता ही बनेगा, क्योंकि कॉंग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और उसका गठबंधन भी| जरा सोचें कि अगर कॉंग्रेस गठबंधन में नहीं बंॅधी होती, अगर करुणानिधि, लालू, शरद पंवार, तेलंगाना समिति, सुखराम वगैरह का टेका नहीं लगा होता तो क्या कॉंग्रेस भाजपा से आगे निकल पाती? क्षेत्रीय बेसाखियों के बिना क्या वह दिल्ली के सिंहासन पर पहॅुंच पाती? कल्पना कीजिए कि करुणानिधि, मायावती, चौटाला, फारुक अब्दुल्ला आदि अब भी साथ होते तो क्या भाजपा की इतनी दुर्दशा होती? दूसरे शब्दों में यह मानना पड़ेगा कि आगामी कई वर्षों तक अखिल भारतीयता के दिन लद गए| अब बड़े नेताओं और बड़े दलों को छोटे नेता और छोटे दल चलाऍगे| शेर पूंछ को नहीं, पूंछ शेर को हिलाएगी| सोनिया गॉंधी का हरकिशनसिंह सुरजीत के घर दौड़े जाना आखिर किस प्रवृत्ति का सूचक है| वाजपेयी के माथे पर एक चंद्रबाबू नायडू सवार था, सोनिया के माथे पर अब लगभग आधा दर्जन नायडू कूदते रहेंगे| दोनों अखिल भारतीय दलों को अब अपने पंजों पर नहीं, घुटनों पर चलने के लिए मजबूर होना पड़ेगा| पिछले दो चुनावों ने भाजपा को जो पाठ सिखाया था, वह अब कॉंग्रेस को भी सिखा दिया है| कॉंग्रेस का यह दर्प टूट गया है कि वह अकेली ही सरकार बनाएगी| भाजपा को साढ़े छह साल की हुकूमत के बाद अब यह अहंकार सताने लगा था कि वह सहयोगियों के बिना भी सरकार बना सकती है| यह एहसास उसे ले डूबा| पता नहीं, वह दिन कब आएगा जबकि दिल्ली के तख्त पर कोई दल अपने दम पर विराजमान होगा| गठबंधन सरकारें अस्थिरता और निर्बलता की प्रतीक नहीं हैं, यह पिछले साढ़े छह वर्षों के इतिहास ने सिद्घ कर दिया है लेकिन इतिहास का एक दूसरा सबक भी है| वह यह कि अखिल राष्ट्रीय दल के अभाव में कभी-कभी अत्यंत शक्तिशाली राष्ट्र भी बिखर जाते हैं| जैसे कि सोवियत संघ बिखर गया| कम्युनिस्ट पार्टी वह मजबूत रस्सा था जिसने 15-20 राष्ट्रीयताओं को जमकर बॉंध रखा था| जनता और सरकार के बीच वह सबल सेतु था| उसके टूटते ही विश्व महाशक्ति कहलानेवाला राष्ट्र भुने हुए पापड़ की तरह चूर-चूर हो गया| गठबंधनों के जरिए दिल्ली हथियाना और अखिल भारतीय नौकरशाही के जरिए शासन के पॉंच साल काट लेना एक बात है और 100 करोड़ लोगों को एकसूत्र में बॉंधकर राष्ट्र की तरह चलाना दूसरी बात है|
भारत जैसे राष्ट्र में अखिल भारतीय दल और अखिल भारतीय नेता के उभार के लिए विचारधारा और अखिल भारतीय मुद्दों, दोनों की जरूरत है| ऐसी विचारधारा और ऐसे मुद्दे जो जात, भाषा, मजहब, आर्थिक हैसियत – सभी के आर-पार हो जाऍं| जहॉं तक विचारधारा का प्रश्न है, अब उसका लगभग अवसान हो गया है| कॉंग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीतियॉं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं| जहॉंं तक मंदिर, कश्मीर, समान संहिता आदि का प्रश्न है, शासनारूढ़ भाजपा और कॉंग्रेस की नीति भी एक-जैसी ही हैं| हिन्दुत्व आदि का मुद्दा भाजपा ने दरी के नीचे सरका दिया, यह मलाल संघ परिवार को है| इस विचारधारात्मक मुद्दे को भाजपा दुबारा उठाएगी या नहीं, यह उसे तय करना है लेकिन यह भी तय हो चुका है कि जिस पार्टी को सम्पूर्ण भारत पर राज करना है, वह किसी वर्ग-विशेष, जात-विशेष या मजहब-विशेष को अपना सैद्घांतिक आधार नहीं बना सकती| इसीलिए इस चुनाव में तथाकथित विचारधारा अपने आप ताक पर चली गई|
विचारधारा न सही, मुद्दे को आधार बनाने की पूरी कोशिश की गई | विकास का मुद्दा ! दो नए शब्द उभरे| फील गुड और शाइनिंग इंडिया| ये दोनों शब्द अंग्रेजी भाषा के है| इनका प्रामाणिक हिन्दी अनुवाद अभी तक उपलब्ध नहीं है| 100 करोड़ लोगों को पटाने के लिए ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया जिन्हेंे पॉंच करोड़ लोग भी नहीं समझते| भाजपा जैसी पार्टी से यह भूल कैसे हुई? इसलिए कि उसका नेतृत्व ऐसे लोगों से घिर गया, जो इंडियावाले लोग हैं| उनका भारत से कुछ लेना देना नहीं| फील गुड भी इंडियावालों का प्रपंच है| कौन हैं, ये लोग? ऊॅंची जात, शहरी, सम्पन्न और अंग्रेजी दॉं ! इनकी संख्या 10-15 करोड़ से ज्यादा नहीं| शेष 85-90 करोड़ लोगों को कौनसा फील गुड हुआ? उन्हें महापथों पर अपनी कारें नहीं चलानी हैं, उनके पास कंम्यूटर और मोबाइल नहीं हैं, वे आयातित माल नहीं खरीद सकते, उन्हें छुट्टी मनाने विदेश नहीं जाना है और ये ही वे लोग हैं जो जमकर वोट देते हैं| फीलगुड वाले वोट की लाइन में लगना अपनी तौहीन समझते हैं| इन्हीं फीलगुडवालों की मेहरबानी चंद्रबाबू नायडू और एस.एम. कृष्णा पर हुई है| फीलगुड के जाल में जो भी फॅंसा, वह काम से गया| जो गलती सोनिया गॉंधी कर सकती थी, वह अटलबिहारी वाजपेयी ने कर दी| भारत की जनता को सलाम कि जिसने नेताओं को अंतिमक्षण तक अपनी नब्ज पर हाथ नहीं रखने दिया| उसने बड़े-बड़े चुनाव सर्वेक्षकों और राजनीतिक विश्लेषकों को धराशायी कर दिया| कुर्सी पानेवाले नेता अपने मॅुंह मिया मिट्ठू बनने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन इस बार जनता ने अपना वोट खुद को दिया है, न तो किसी दल को दिया है, न किसी नेता को दिया है और न ही किसी मुद्दे को दिया है|
Leave a Reply