Dainik Bhaskat (Bhopal), 13 July2011: जिस अनिष्ट की आशंका थी, वही हुआ। भारत-अमेरिका परमाणु सौदे की असलियत अब सामने आती चली जा रही है। भारत और अमेरिका, दोनों ही एक-दूसरे को ठगने की कोशिश कर रहे थे। अब दोनों एक-दूसरे को कोसने लगेंगे।
संबंधों के इस नए दौर की शुरुआत परमाणु सप्लायर्स ग्रुप के एक ताजा फैसले से हुई है। 24 जून को हॉलैंड में हुई इस 46 राष्ट्रीय समूह की बैठक ने अपनी नई नियमावली घोषित कर दी है। उसके अनुसार उसका कोई भी सदस्य किसी भी राष्ट्र को परमाणु संवर्धन और पुर्नसशोधन की न तो कोई तकनीक दे सकेगा और न ही कोई उपकरण, जब तक कि वह राष्ट्र दो शर्ते पूरी न करे। एक तो यह कि वह राष्ट्र परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) का सदस्य हो और दूसरी, उसकी समस्त परमाणु भट्टियों व सुविधाओं पर पूर्ण अंतरराष्ट्रीय निगरानी लागू हो।
ये दोनों ही शर्ते भारत नहीं मानता है। यानी अब भारत परमाणु अछूत घोषित हो गया है। जो भी राष्ट्र इस ग्रुप के सदस्य हैं, वे भारत को अब परमाणु संवर्धन और पुर्नसशोधन के उपकरण व तकनीक नहीं बेच सकेंगे। भारत को यह सजा बिना किसी अपराध के दी जा रही है।
जब सितंबर 2008 में इसी समूह ने भारत को उक्त छूट दी थी, तब भी भारत इन दोनों शर्तो को नहीं मानता था। इंदिरा गांधी ने 1974 में जब पोखरण का अंत:स्फोट किया और जब अटलबिहारी वाजपेयी ने 1998 में परमाणु विस्फोट किया तो पांचों परमाणु संपन्न राष्ट्रों ने भारत पर दबाव डाला कि वह परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर करे, लेकिन भारत डटा रहा। भारत की इस दृढ़ता को बर्दाश्त करते हुए ही तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने मनमोहन सिंह सरकार के साथ परमाणु सौदा किया था।
इस सौदे के तहत माना गया कि भारत की विशेष स्थिति है। परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत किए बिना भी वह परमाणु क्लब का छठा सदस्य बन सकता है। उसे परमाणु सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनाने का आश्वासन भी दिया गया। भारत ने अपने परमाणु संयंत्रों को भी दो हिस्सों में बांट दिया। सैन्य और असैन्य! असैन्य संयंत्रों पर उसने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा अभिकरण की पूर्ण निगरानी की शर्ते भी मान लीं। इसी आधार पर सौदा संपन्न हो गया।
अब भारत को मजबूर किया जा रहा है कि वह परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करे और उसके सैन्य संयंत्रों पर भी अंतरराष्ट्रीय निगरानी स्वीकार करे। यानी वह अपने परमाणु खस्सीकरण के दस्तावेज पर आंख मींचकर दस्तखत कर दे। अगर वह ऐसा नहीं करेगा तो ताजा चेतावनी यह है कि अमेरिका, फ्रांस, रूस, ऑस्ट्रेलिया, नाइजीरिया जैसे देश उसका परमाणु बहिष्कार करेंगे। दूसरे शब्दों में वह भारत-अमेरिका सौदा बिल्कुल निर्थक सिद्ध हो जाएगा, जिसके कारण भारत दुनिया का छठा परमाणु संपन्न राष्ट्र बनने वाला था।
परमाणु सप्लायर्स ग्रुप ने सितंबर 2008 में भारत को विशेष छूट इस आधार पर दी थी कि परमाणु अप्रसार के मामले में भारत का आचरण सर्वथा उत्तम रहा है। भारत ने पाक की तरह न तो चोरी से बम बनाए और न ही किसी देश को चोरी-चोरी परमाणु तकनीक या उपकरण बेचे। अब भारत ने ऐसा क्या कर दिया कि ग्रुप ने अपना रवैया एकदम उलट दिया?
वास्तव में भारत ने कोई भी आपत्तिजनक काम नहीं किया। पिछले तीन साल से स्थिति ज्यों की त्यों है। फिर भी अब सारा मामला क्यों गड़बड़ा रहा है? इसके मूल में नीयत की खोट है। मनमोहन सरकार समझ रही थी कि अमेरिकी सरकार को करोड़ों-अरबों डॉलर का लालच देकर वह अपने लिए परमाणु छूट खरीद लेगी। कर्ज में दबे अमेरिका को लगा कि भारत को अपनी पुरानी भट्टियां टिकाकर अगर उसे अरबों डॉलर हाथ लग जाएं तो वह हाथ साफ क्यों न करे?
दोनों ने परमाणु सौदा करते वक्त जरूरत से ज्यादा चालाकी दिखाई। समझौते के दर्जनों ड्राफ्ट बने और उनमें असंख्य संशोधन किए गए। जिस अंतिम मसौदे पर दोनों ने दस्तखत किए, उसके भी अलग-अलग अर्थ लगाए। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 17 अगस्त 2006 को संसद में घोषणा की कि ‘हम यह पक्का करेंगे कि भारत से सारे प्रतिबंध हटा लिए जाएं।’ अप्रैल 2006 में तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने सीनेट में कहा कि ‘अमेरिका भारत को वैसी (सैन्य उपयोग) तकनीक बिल्कुल निर्यात नहीं करेगा।’
राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने ‘123 समझौते’ को पारित करते हुए सीनेट से कहा था कि भारत के साथ जो समझौता हुआ है, वह शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा के बारे में हुआ है। अमेरिका ने भारत के साथ ‘123 समझौता’ किया, लेकिन अपने लिए ‘हाइड एक्ट’ पास कर लिया, जो इस समझौते को रद्द भी कर सकता है और इसमें फेरबदल भी कर सकता है। ‘हाइड एक्ट’ पास करके बुश ने अमेरिकी कांग्रेस और जनता को पटाने की कोशिश की। बुश ने उनके गले यह बात उतार दी कि भारत को परमाणु दृष्टि से अब नख-दंतहीन बना दिया गया है। यदि वह अब परमाणु शस्त्रास्त्र बनाने की सोचेगा तो हमने उसके सिर पर तलवार लटका दी है।
अब क्या किया जाए? यदि भारत अमेरिका, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन जैसे देशों को दोटूक शब्दों में बता दे कि उनके साथ हुए सभी परमाणु सौदे रद्द कर दिए जाएंगे तो वे निश्चय ही सप्लायर्स ग्रुप पर दबाव डालेंगे। अमेरिका, फ्रांस और रूस तीनों देशों की अब तक की प्रतिक्रियाएं गोलमोल ही हैं। यदि ये सारे देश मिलकर भारत को छठे परमाणु शक्ति संपन्न देश की मान्यता न दें तो भारत को इन राष्ट्रों के सौदों को रद्द करने में जरा भी नहीं झिझकना चाहिए।
अनेकानेक प्रतिबंधों के बावजूद आज भारत अपने प्रयत्नों से परमाणु राष्ट्र बना है तो वह भविष्य में भी खुद ही आगे बढ़ सकता है। यों भी जापानी हादसे के बाद दुनिया के राष्ट्र परमाणु ऊर्जा को दूर से ही नमस्कार कर रहे हैं। इसके अलावा सरकार आज तक सिद्ध नहीं कर पाई है कि अन्य वैकल्पिक ऊर्जाओं के मुकाबले परमाणु ऊर्जा सस्ती और सुरक्षित है। जिस परमाणु ऊर्जा की खातिर मनमोहन सिंह ने गठबंधन तोड़ लिया था, अगर अब उसकी मृगमरीचिका से बच निकलने का अवसर अपने आप पैदा हो रहा है तो उसे अपने हाथ से फिसलने क्यों दें? परमाणु मोहभंग अपने आप हो रहा है तो उसे होने क्यों न दें?
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