नवभारत टाइम्स, 26 अगस्त 2010 : परमाणु-हर्जाने को लेकर पक्ष और विपक्ष में चली खींचातानी के दोनों पहलू हैं| वह अच्छी भी रही और बुरी भी ! बुरी इसलिए कि सारी बहस का केंद्र बन गए, सप्लायर ! याने परमाणु भटि्टयाँ या पुर्जे या तकनीक या सेवाएं देनेवाले देश या कंपनियॉं ! जबकि असली मुद्रदा यह है कि भारत परमाणु-बिजली बड़े पैमाने पर कैसे पैदा करे और इस प्रकि्रया में कोई दुर्घटना हो जाए तो लोगों को उचित हर्जाना कैसे दिया जाए| ऐसा लगा कि हमारी सरकार परमाणु-सप्लायरों के हितों की रक्षा के लिए कटिबद्घ है और विपक्ष सप्लायरों को फंसाने पर आमादा है| पक्ष और विपक्ष, दोनों ही ‘तू डाल-डाल तो मैं पात-पात’ की चाल चल रहे हैं|
यदि सरकार ने कहा कि परमाणु-हर्जाने की राशि 500 करोड़ होना चाहिए तो कम्युनिस्टों ने मांग की कि वह 10 हजार करोड़ होनी चाहिए| क्यों होनी चाहिए ? क्योंकि अमेरिका में इतनी ही है| 10 हजार करोड़ की राशि का औचित्य क्या है, यह बताने की कोशिश किसी ने नहीं की| हमारे कम्युनिस्टों को अमेरिका से पुरानी खुंदक निकालनी है, इसलिए उन्होंने यह मोटा आंकड़ा सरकार के सिर पर दे मारा| वे यों भी भारत-अमेरिकी परमाणु-सौदे के खिलाफ हैं| वह यह भूल गए कि यदि उनकी बात मान ली जाती तो 10 हजार करोड़ का बोझ अपनी सरकार पर ही गिरता| यह पैसा सरकार कहां से लाती ? आखिरकार जनता की जेब ही कटती| लेकिन वे कहते हैं कि जिनसे अरबों-खरबों का परमाणु-माल हम खरीद रहे हैं, उनकी जेब ही हम क्यों न काटें ? दुर्घटना का कारण कुछ भी हो, दोष उन्हीं के मत्थे मढ़ा जाए| इस शर्त पर परमाणु-राष्ट्र तो क्या कोई छोटी-मोटी कंपनी आपको साइकिल भी नहीं बेचेगी|
अच्छा हुआ कि सरकार ने भाजपा का सुझाव मान लिया| उसने अपने मूल-विधेयक में दो सुधार कर लिय| हर्जाने की राशि को 500 करोड़ से बढ़ाकर 1500 करोड़ कर दिया और हर्जाने के दावे की अवधि 10 साल से बढ़ाकर 20 साल कर दी| सरकार ने बुद्घिमत्ता और लचीलेपन का परिचय दिया और भाजपा ने विपक्ष की स्वस्थ भूमिका निभाई| लेकिन सरकारी अफसरों ने ज़रा अतिरिक्त चतुराई दिखा दी| उन्होंने विधेयक के अनुच्छेद 17 बी में दो ऐसे संशोधन कर दिए, जिनके कारण सप्लायरों के दोषी होने के बावजूद बच निकलने का पूरा इंतजाम हो गया| एक जगह ‘और’ शब्द जोड़ दिया गया और दूसरी जगह ‘जान-बूझकर’ जोड़ दिया गया| ये दोनों संशोधन उन्होंने अपनी तरफ से किए| ये दोनों शब्द ‘विज्ञान और तकनीक की स्थायी संसदीय समिति’ के दस्तावेज़ में कहीं नहीं थे| इन दोनों शब्दों को जोड़ने का लक्ष्य एकदम स्पष्ट है| वह यह कि सप्लायर का अगर कोई दोष हो तो भी उस पर कोई जिम्मेदारी न आए| उसकी जगह सिर्फ ‘आपरेटर’ (भारत) हर्जाना भरे| किसी भी अदालत में यह कैसे सिद्घ किया जा सकता है परमाणु-सप्लायर ने जो संयंत्र् या पुर्जे दिए हैं, वे ‘जान-बूझकर’ खराब दिए हैं| ऐसा कोई क्यों करेगा ? क्या भारत पाकिस्तान से परमाणु-पुर्जे खरीद रहा है ?
सरकार इन शब्दों को हटाने पर राजी हो गई है| यह अच्छी बात है लेकिन यदि एक भारतीय अखबार और भाजपा के एक-दो जागरूक सांसद उक्त ‘चतुराई’ को पकड़ने से चूक जाते तो क्या होता ? सप्लायरों को पूरी छूट मिल जाती| अब उन पर यह दबाव तो बना रहेगा कि भारत को जो चीज़ भी सप्लाय की जाए, वह बेहतरीन होनी चाहिए और उसके रख-रखाव और संचालन पर भी उन्हें ध्यान देना होगा| इय प्रसंग का दुखद पहलू यह है कि हमारे परमाणु-ऊर्जा विभाग ने जो ‘चतुराइयाँ’ कीं, उन्हें हमारी सरकार ने या तो अनदेखा किया या यह सब कुछ उसी के इशारे पर किया गया| यह ठीक है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की नवंबर में होनेवाली भारत-यात्र के पहले यह विधेयक पास करवाना जरूरी है और ऐसा कानून भी नहीं बना देना है कि उसे देखते ही सारे परमाणु सप्लायर भाग खड़े हों| आज ज्यादातर सप्लायर कंपनियां भारतीय ही हैं| इसके अलावा कुछ ही वर्षों में खुद भारत महत्वपूर्ण सप्लायर बन जाएगा| विपक्ष ने जो संशोधन करवाए हैं, उनके कारण सप्लायरों के सिर पर हर्जाने की तलवार लटकने लगी है, ऐसा भी नहीं है| दुर्घटना की जिम्मेदारी किसकी है, यह किसी के फतवे से तय नहीं होगा| जिम्मेदारी तो अदालतें ही तय करेंगी| इसके अलावा हमारा कानून जो भी कहे, अदालत तो उसे ही मानेगी, जो समझौता सप्लायर और ऑपरटेर के बीच हुआ है| इस तरह के सभी समझौते संसद के पटल पर नहीं रखे जा सकते, इसलिए इस वक़्त कोई ऐसा प्रावधान भी होना चाहिए कि समस्त परमाणु-समझौते खुले में हों| गोपनीय न हों| इसके अलावा विधेयक का मूल पाठ पढ़ने पर यह ध्वनि भी निकलती है कि परमाणु-सयंत्रें को चलाने का एकाधिकार मानो हमेशा सरकार के पास ही रहेगा| अभी तो यह वस्तुस्थिति है लेकिन ऐसा कब तक चलता रहेगा ? गैर-सरकारी पहल के बिना क्या 21 वीं सदी के भारत की बिजली-आपूर्ति का लक्ष्य पूरा हो सकेगा ?
यह हर्जाना-विधेयक इस मायने में बेहतर है कि भोपाल की तरह मुआवज़े के लिए लोगों को कोर्ट की शरण में नही जाना पड़ेगा| वह उन्हें तत्काल मिलेगा| लेकिन यहां प्रश्न यह भी है कि 1500 करोड़ को मुआवजे की अधिकतम राशि क्यों कहा गया है ? उसे न्यूनतम या अधिकतम क्यों कहा जाए ? मुआवजे का अंतिम फैसला तो नुकसान के आधार पर ही होना चाहिए| इसके अलावा प्रभावित लोगों को यह छूट भी मिलनी चाहिए कि वे ऑपरेटर और सप्लायर से उचित मुआवजा मांगने के लिए कोर्ट का सहारा ले सकें| भारत सरकार को इस आशंका से बिल्कुल परेशान नहीं होना चाहिए कि इन शर्तों को जोड़ देने पर सप्लायर भाग खड़े होंगे| वास्तव में वे परमाणु-माल बेचने के लिए इस कदर बेताब हैं कि अगर हम इनसे भी कठोर शर्ते रखेंगे तो भी वे मान जाएंगे| हम खरीदने के लिए जितने उतावले हैं, उससे कहीं ज्यादा वे बेचने के लिए हैं| आाखिर ओबामा अपनी पहली पारी में ही भारत क्यों आ रहे हैं ? यह विधेयक जितनी जल्दी पास हो, उतना अच्छा
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