पिछले सप्ताह पाकिस्तान-यात्रा पर दो अत्यंत महत्वपूर्ण अतिथि आए। एक तो अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई और दूसरे सीआईए के मुखिया लिओन पेनेटा। पेनेटा शीघ्र ही अमेरिका के रक्षा मंत्री बननेवाले हैं। इन अतिथियोंकी यात्रा का मूल लक्ष्य एक ही था। वह यह है कि जुलाई 2011 में शुरू होने वाली अमेरिकी वापसी के बाद अफगानिस्तान को कैसे संभाला जाएगा। जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, वह यह ठाने बैठा है कि अमेरिका को हर हालत में अफगानिस्तान से विदा किया जाए और जल्दी से जल्दी किया जाए।
पाकिस्तान का वश चले तो वह जुलाई 2011 में ही अमेरिकियों से अफगानिस्तान खाली करवा ले। पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल कयानी कई बार कह चुके हैं कि वे पाकिस्तान के लिए एक सुरक्षित सामरिक पिछवाड़ा खड़ा करना चाहते हैं ताकि किसी भी संभावित भारतीय हमले का वे मुकाबला कर सकें। कुछ वर्ष पहले पाकिस्तानी नेताओं ने भूल-चूक में यह सत्य भी बोल दिया था कि वे अफगानिस्तान को पाकिस्तान का पांचवां प्रांत बनाना चाहते हैं। यह तभी हो सकता है जबकि अफगानिस्तान से समस्त नाटो फौजें चली जाएं और अफगानिस्तान भगवान भरोसे से हो जाए। ऐसी स्थिति में ही पाकिस्तानअपने सपने साकार कर सकता है। हामिद करजई की इस्लामाबाद-यात्रा के दौरान पाकिस्तानी नेताओं और जनता को यह संकेत तो स्पष्ट रूप से मिल गया है कि अमेरिकी फौजे अभी अफगानिस्तान में काफी लंबे समय तक टिकी रहेंगी। करजई ने अभी तक यह नहीं बताया है कि पश्चिमी फौजों के अफगानिस्तान में स्थायी सैनिक अड्डे बनानेकी अनुमति दी जाएगी या वे सिर्फ मार्गदर्षक और प्रषिक्षकों के तौर पर रहेंगी या वे लड़ाई-भिड़ाई भी करेंगी।
राष्ट्रीय सहारा, 18 जून 2011 : अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की धारणा है कि 2014 तक तालिबानी आतंक पर काबू पाना असंभव है। इसीलिए 49 राष्ट्रों के जो एक लाख 30 हजार सैनिक वहाँ जमे हुए हैं, वे किसी न किसी रूप में उसी तरह जमे रह सकते हैं, जैसे नाटो के फौजी यूरोप, जापान और अब एराक़ में भी जमे हुए हैं। यह ठीक है कि चुनाव जीतने के खातिर ओबामा अपना वचन निभाने का नाटक जरूर करेंगे याने फौजों की वापसी और सैन्य-व्यय में कटौती भी दिखाएंगे लेकिन अफगानिस्तान में स्थायी अमेरिकी अड्डों को अब अमेरिका के लिए लंबे फायदे का सौदा माना जा रहा है। अफगानिस्तान की भू-राजनीतिक स्थिति इतनी महत्वपूर्ण है कि यदि अमेरिकी फौजें वहां टिकी रहें तो वे मध्य एशिया के सभी इस्लामी गणतंत्रों, खाड़ी के देशों, पाकिस्तान, भारत और चीन पर भी अपनी कड़ी नज़र रख सकती हैं।
अफगनिस्तान में अमेरिका ने जो अरबों-खरबों डॉलर लुटाए हैं, आखिरकार उसका कुछ लाभ तो भविष्य में उसे मिलना चाहिए। अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति का सबसे बड़ा लाभ उसे यह मिल सकता है कि वह पाकिस्तानी ब्लेकमेल से छुटकारा पा जाए। अमेरिकियों को पता है कि पाकिस्तान की फौज और आतंकवादियों के बीच पक्की मिलीभगत बनी हुई है लेकिन उसे मजबूरी में पाकिस्तान से हाथ मिलाए रखना पड़ता है। पेनेटा ने कयानी से अभी खुलकर शिकायत की है कि उनकी फौज ने ही आतंकवादियों को सतर्क किया वरना नाटो फौजें उत्तरी वजीरिस्तान के दो जिहादी अड्डों को खत्म कर देती और आतंकवादियों को जिंदा पकड़ लेती। उधरपाकिस्तान को शक है कि अफगान तालिबान ने पाकिस्तान की सीमा में घुसकर जो दो हमले किए, उनके पीछे अमेरिकियों का ही हाथ है। अमेरिका और अफगानिस्तान मिलकर पाकिस्तान को सबक सिखाना चाहते थे।
इस घटना का एक गहरा अभिप्राय यह भी है कि अगर अमेरिका अफगानिस्तान में स्थायी रूप से टिकने का मन बना लेगा तो वह पाकिस्तान की नाक में दम कर सकता है। वह आतंकवाद का जवाब आतंकवाद से दे सकेगा। इस कार्य के लिए वह यदि पष्तोभाषी तालिबान को नहीं पटा सकेगा तो अन्य फारसीवान अफगान उसे सहज सुलभ होंगे। अमेरिका की इस दूरंदेषी रणनीति पर बहुत कम नीति-निर्माताओं ने ध्यान दिया है। शायद इसीलिए अब अमेरिका संयुक्तराष्ट्र संघ के प्रस्ताव 1267 में संषोधन करवाने पर आमादा हो रहा है। सुरक्षा परिषद के इस प्रस्ताव में अल-क़ायदा और तालिबान दोनों और उनसे संबंधित अन्य संगठनों पर प्रतिबंध लगाए गए थे लेकिन अब वह तालिबान को इस प्रस्ताव से छूट दिलाना चाहता है। इसके लक्ष्य दोनों हो सकते हैं। एक तो तालिबान से सीधी बात करना और उन्हें अफगानमुख्यधारा से जोड़ना और दूसरा जरूरत पड़ने पर उन्हें पाकिस्तान के खिलाफ इस्तेमाल करना। यदि अमेरिका ने यह चतुर नीति चला दी तो पाकिस्तान को लेने के देने पड़ जाएंगे। यों भी अमेरिकी कांग्रेस ने पाकिस्तान को मिलनेवाली अमेरिकी सहायता पर अत्यंत कठोर निगरानी बिठा दी है। उसामा बिन लादेन कांड ने अमेरिकी जनता के सामने पाकिस्तानी मिलीभगत की पोल पूरी तरह खोल दी है। यह संभव है कि द्वितीय महायुद्ध के बाद शायद पहली बार अमेरिका-पाक संबंधों में जबर्दस्त तनाव पैदा हो जाए।
इसका संकेत इसी बात से मिलता है कि पाकिस्तानी नेताओं ने काबुल जाकर करज़ई को चीन की शरण में जाने की प्रेरणा दी है। अफगानिस्तान का भला न तो चीन कीशरण में जाने से होगा और न ही अनंत काल तक अमेरिकी छत्रछाया में लेटे रहने से होगा। ऐसी बात अफगान स्वभाव के ही विपरीत हैं। 19 वीं और 20 वीं सदी में जब मध्य एषिया में ब्रिटेन और रूस के बीच ‘बड़ा खेल’ चल रहा था तब भी अफगानों ने अपनी आज़ादी पर आंच नहीं आने दी। उन्होंने तीन युद्ध लड़े। वे ब्रिटिश साम्राज्य से भिड़ गए। उन्होंने घुटने नहीं टेके। अब भी सर्वश्रेष्ठ अफगान नीति यही होगी कि अफगानिस्तान अपनी फौज खुद खड़ी करे। अमेरिकियों से पैसा और भारतीयों से सैन्य-प्रशिक्षण ले। पांच लाख की अफगान फौज पड़ौसियों को दस लाख की फौज पर तो भाड़ी पड़ेगी ही, वह आतंकवादियों का भी सफाया कर देगी। हामिद करजई यही चाहते हैं।
शायद इसीलिए उन्होंने इतना साहस किया कि इस्लामाबाद में रहते हुए भी उन्होंने भारतीय सहायता की खुले-आम तारीफ की। अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजों के स्थायी निवास की संभावना से चीन, रूस और ईरान जैसे पड़ौसी देश भी चितिंत हो उठे हैं। भारत के लिए यह उतना बुरा नहीं है लेकिन यह न भूलें कि अफगानिस्तान में जब तक अमेरिकी रहेंगे, तालिबान भी वहां बने रहेंगे। पाकिस्तान की जनता भी तालिबान के प्रति सहानुभूति रखती रहेगी, जिसका असर भारत कीसुरक्षा और शांति पर पड़ता रहेगा। इसीलिए जरूरी है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी शीघ्रातिशीघ्र विदा हों और उनकी जगह कोई और नहीं, सिर्फ अफगान लें।
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