जनसत्ता, 19 जून 2007 : जनरल परवेज़ मुशर्रफ अब जाऍंगे या रहेंगे, यह प्रश्न दिल्ली के कूटनीतिक तबकों में आजकल जमकर पूछा जा रहा है| यह प्रश्न अभी तक इसीलिए नहीं पूछा गया था कि बलूच नेता अकबर बुगती की हत्या और मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी के बावजूद मुशर्रफ की शेष सारी गोटियॉं फिट मालूम पड़ रही थीं| फौज उनके साथ थी, अमेरिकी उनको टिकाए रखना चाहते थे, सत्तारूढ़ मुस्लिम लीग उनका झंडा उठाए हुए थी, बेनज़ीर भुट्टो के साथ उनकी अंदरूनी सॉंठ-गॉंठ चल रही थी और प्रमुख पार्टियों के नेता अब भी देश के बाहर थे| इसलिए अनेक विश्लेषक यह मानकर चल रहे थे कि जैसे ही न्यायाधीश चौधरी का मामला ठंडा पड़ा, मुशर्रफ दुबारा दनदनाने लगेंगे|
लेकिन ऐसा लगता है कि मुशर्रफ की उलट-गिनती शुरू हो गई है| सबसे पहले तो उन्होंने पाकिस्तान की खबरपालिका को अपना दुश्मन बना लिया| चौधरी की सभाओं और जुलूसों ने पाकिस्तानी सरकार के पसीने छुड़ा दिए| टी वी चैनल और अखबार उनकी रपट जारी न करें, इसलिए पहले तो उनके दफ्तरों में तोड़-फोड़ करवाई गई और पत्र्कारों को व्यक्तिगत रूप से धमकाया गया और फिर अध्यादेश जारी कर दिया गया कि सरकार की अनुमति के बिना कोई भी चैनल किसी भी घटना की जीवंत रिपोर्टिंग नहीं कर सकता| चैनलों और अखबारों को फौज आदि की निंदा करने से भी रोक दिया गया| इस अध्यादेश की भर्त्सना ही नहीं हुई बल्कि पत्र्कारों ने सरकारी अनुमति के बिना ही निरंतर अपना पत्र्कार-धर्म निभाया| वे डरे नहीं| प्रसिद्घ अखबार ‘डॉन’ के सरकारी विज्ञापन बंद कर दिए गए लेकिन वह झुका नहीं| झक मारकर मुशर्रफ सरकार को अपना अध्यादेश वापस लेना पड़ा| यों मुशर्रफ-काल में अखबारों को काफी आजादी मिलती रही| अयूब और जि़या के जमाने में पत्र्कारों पर जैसे अत्याचार हुआ करते थे, वैसे इधर देखने को नहीं मिले| नवाज़ शरीफ की सरकार ने भी अनेक पत्र्कारों के साथ ज्यादती की थी लेकिन मुशर्रफ की ज्यादती दूसरे किस्म की थी| मियॉं नवाज़ के अत्याचार में सरकारी अहंकार था और मुशर्रफ के अत्याचार के पीछे निजी घबराहट है|
स्वयं मुशर्रफ ने स्वीकार किया है कि सत्तारूढ़ होने के बाद पहली बार वे महसूस कर रहे हैं कि उन्होंने वास्तव में कॉंटों का ताज़ पहन लिया है| ऐसा उन्होंने इसलिए कहा कि उन्होंने जो अपनी जेबी पार्टी खड़ी की है, मुस्लिम लीग (का), उसके बड़े नेता चौधरी शुजात हुसैन और मुशाहिद हुसैन भी चुप्पी साधे हुए हैं| वे मुशर्रफ के पक्ष में तलवारें नहीं भॉंज रहे हैं| इस पार्टी का सबसे ज्यादा दबदबा पंजाब में है| अगर पंजाबी आधार ही खिसक गया तो मुशर्रफ के पास क्या रह जाएगा? पाकिस्तान के अन्य प्रांतों में मुशर्रफ-विरोधी शक्तियों का वर्चस्व है| यदि पंजाबी जन-मानस में मुशर्रफ की छवि खराब हो गई तो उसका सीधा असर फौज पर पड़ेगा| पाकिस्तानी फौज में पंजाबियों का बोलबाला है| ज्यादातर जवान और अफसर पंजाबी ही है| पंजाबी बि्रगेडियर लोग ठान लें तो वे किसी भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या सेनापति को उलट सकते हैं| मुशर्रफ भाग्यशाली हैं कि अभी तक उनके विरूद्घ किसी भी फौजी तख्ता-पलट की साजिश नहीं हुई है, जैसी कि अयूब और जि़या के विरूद्घ होती रहती थी लेकिन उनकी पार्टी के पंजाबी नेताओं का मौन अशुभ संकेतों का घंटनाद है| मुशर्रफ को पता है कि अगर अगला चुनाव निष्पक्ष हुआ तो उनकी पार्टी का शीराज़ा बिखर सकता है| सत्तारूढ़ दल के वर्तमान नेता अपने पुराने दलों में लौटने के लिए बेताब हो सकते हैं| बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ जैसे प्रधानमंत्र्ियों के साथ काम करना उनके
लिए आसान नहीं होगा| मियॉं नवाज़ की मुस्लिम लीग की एक सांसदा ने सदन में उनका फोटो लहराते हुए दावा किया कि कानूनी तौर पर वे ही अब भी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री हैं| मुशर्रफ की सरकार अवैध है| यह घटना भावी कटुता का सही आभास दे रही है| पाकिस्तानी संविधान में अब भी कुछ ऐसे प्रावधान हैं, जिनके आधार पर उसका राष्ट्रपति किसी लोकपि्रय प्रधानमंत्री को भी अपनी कठपुतली
बनाकर रख सकता है और उसके सिर पर बर्खास्तगी की तलवार लटकाए रख सकता है|
इसके बावजूद मुशर्रफ के दिल में घबराहट क्यों भर गई है? इसके दो कारण तो साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहे हैं| एक तो अमेरिकी सरकार के प्रवक्ता का खुले-आम यह कहना कि मुशर्रफ अपनी वर्दी उतारें| यह पाकिस्तानी मुहावरा है| इसका अर्थ है, मुशर्रफ अपना सेनापति का पद छोड़ें| केवल राष्ट्रपति बने रहें| दो पदों की सवारी बंद करें| जवाब में मुशर्रफ कहते हैं कि मेरी वर्दी ही मेरी चमड़ी है| मैं अपनी चमड़ी कैसे अलग करूं? वे अपनी वर्दी छोड़ें, यह बात बेनजीर भी कुछ दिनों से खुले-आम कह रही हैं| एक तरफ वे मुशर्रफ से हाथ मिला रही हैं और दूसरी तरफ उन्होंने वर्दी उतारने का आग्रह शुरू कर दिया है| आखिर क्यों कर दिया है? शायद इसीलिए कि मुशर्रफ दिनों दिन कमजोर पड़ते जा रहे हैं| अपनी सफलता के लिए मुशर्रफ पर निर्भर होने के बावजूद बेनज़ीर को इतनी हिम्मत कहां से आई? शायद अमेरिकियों ने भी उनको इशारा किया है| मुशर्रफ इन इशारों को समझते न हों, यह नहीं हो सकता|
मुशर्रफ की घबराहट का दूसरा बड़ा कारण यह है कि अमेरिकियों की नज़रों में अब उनका खेल खुल गया है| उनकी चतुराई अब वे समझ गए हैं| अब तक अमेरिकी यह मानकर चल रहे थे कि आतंकवाद-विरोधी अभियान में मुशर्रफ उनके सबसे बड़े धनुर्धर हैं| उन्होंने पिछले सात साल में पाकिस्तान को 10 अरब डॉलर भेंट चढ़ा दिए, जो अफगानिस्तान को दिए गए पैसे से कहीं ज्यादा हैं, फिर भी न तो उसामा बिन लादेन और न मुल्ला उमर पकड़ में आ रहे हैं और न ही तालिबान की आंधी थम रही है| मुशर्रफ और तालिबान में सॉंठ-गॉंठ की अफवाहें सत्य साबित होती जा रही है| ताजा खबर यह है कि अमेरिका गुप्तचर एजेंसियॉं अब किसी नए जनरल की खोज में हैं, जो सचमुच तालिबान को नेस्त-नाबूद कर सके, पाकिस्तान में निष्पक्ष चुनाव करवा सके और उसके बाद खुद हाशिए में रहकर चुने हुए प्रधानमंत्री को मैदान मारने दे| पाकिस्तान का राष्ट्रपति चाहे कोई फौजी ही रहे लेकिन वह भारत के राष्ट्रपति की तरह ध्वज-मात्र् हो| भला, यह बात मुशर्रफ के गले कैसे उतर सकती है| मुशर्रफ कितने ही बड़े असमजंस में फंसे हों, वे एक बात अच्छी तरह जानते है| उन्हें 15 नवंबर 2007 के पहले तक दुबारा राष्ट्रपति अवश्य बनना है| उनका कार्यकाल 15 नवंबर को खत्म होगा| उन्हें पता है कि पाकिस्तान की संसद और विधानसभाएं उन्हें पहले की तरह फिर चुन लेंगी| उनके राष्ट्रपति बनने या न बनने में आम जनता की कोई भूमिका नहीं है| हॉं, यदि जनमत के दबाव में आकर सांसद और विधायक कौड़ी पलट दे तो और बात है| उन्होंने अब यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वे सेनापति बने रहेंगे और बने-बने ही राष्ट्रपति का चुनाव भी लड़ेंगे|
अब तक मुशर्रफ ने वे कलाबाजियॉं दिखाई हैं कि जो पाकिस्तान का कोई नेता नहीं दिखा सका| हर मोर्चे पर उन्होंने पाकिस्तानी नेताओं को मात दे दी| उन पर भ्रष्ट्राचार या दुराचार के भी कोई आरोप नहीं हैं| विकास की दर भी ठीक-ठाक है| आंदोलनों, प्रदर्शनों और सीमांत की कुछ बगावतों के बावजूद पाकिस्तान में अराजकता की स्थिति नहीं है| हुकूमत का इक़बाल बना हुआ है| वे इस्तीफा क्यों दें? और अगर अमेरिकी इशारे पर कोई तख्ता-पलट हो गया तो पाकिस्तान के धर्म-ध्वजी, तालिबान और अनेक नेता नए फौजी तनाशाह की नाक में दम कर देंगे| नए तानाशाह को नई-नई समस्याओं का सामना करना पड़ेगा| अमेरिका-विरोधी लहर सारे देश में फैल जाएगी| लोकतंत्र् की वापसी भी खटाई में पड़ जाएगी| पाकिस्तान की वर्तमान राजनीतिक स्थिति इतनी विचित्र् है कि खुद मुशर्रफ तो असमंजस में पड़े ही हुए हैं, अमेरिका और पाकिस्तानी नेताओं को भी कोई दिशा साफ़-साफ़ दिखाई नहीं पड़ रही है| मुशर्रफ चाहें तो जस्टिस चौधरी के विरूद्घ वे अपनी शिकायत वापस ले सकते हैं, जैसे कि उन्होंने पत्र्कार-विरोधी अध्यादेश वापस ले लिया है लेकिन उनकी दुविधा काफी संगीन है| अगर मुकदमा जस्टिस चौधरी के विरूद्घ जाता है तो मुशर्रफ हटाओं आंदोलन तेज हो जाएगा और अगर मुकदमा उनके पक्ष में जाता है तो मुशर्रफ की कुर्सी बुरी तरह से हिल जाएगी| मुशर्रफ के टिके रहने का तर्क ही ढह जाएगा| यदि मुशर्रफ अपनी शिकायत वापस लेते हैं तो पाकिस्तानी जनता मानेगी कि उसका शेर बकरी बन गया है| बकरी से कौन डरेगा? जनता को डराए बिना क्या कोई फौजी अपना राज चला सकता है| इसके अलावा अगर जस्टिस चौधरी दुबारा अपनी कुर्सी पर बैठ गए तो वे मुशर्रफ की वर्दी उतरवाए बिना नहीं रहेंगे| वे उन्हें दो पदों पर एक साथ बने नहीं रहने देंगे| मुशर्रफ की गाड़ी ऐसे दलदल में फंस गई है कि फिलहाल न वह आगे खिसक रही है न पीछे|
मुशर्रफ की इस बेबसी का असर पाकिस्तान की विदेशी नीति पर भी बुरी तरह से पड़ रहा है| मुशर्रफ ने कश्मीर पर जो पहल की थी, वह लगभग ठप्प है| अब कोई उसका नाम तक नहीं ले रहा| भारतीय विदेश मंत्रलय भी हाथ पर हाथ धरे बैठा है| वह हवा का रूख भांपने की कोशिश कर रहा है| अमेरिका विदेश मंत्रलय यह मानने के लिए मजबूर हो गया है कि उसका दोस्त मुशर्रफ जाता है तो जाए| उसकी जगह जो भी आएगा, उसी से गोटी बिठानी पड़ेगी|
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