दैनिक भास्कर, 17 मार्च 2009 : पाकिस्तान में जो हुआ, वह कल्पना के परे है| मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी की बहाली और शरीफ बंधुओं की कानूनी वापसी किसी भी राजनीतिक चमत्कार से कम नहीं है| यदि प्रधानमंत्री युसूफ रज़ा गिलानी यह घोषणा नहीं करते तो कल्पना की जा सकती है कि पाकिस्तान का हाल क्या होता | वाशिंगटन डी सी के अनेक पाकिस्तान-विशेषज्ञ यह अंदाज लगा रहे थे कि या तो फौज शीघ्र ही तख्ता पलट कर देगी या पाकिस्तान के कई टुकड़े हो जाएँगे| नवाज़ शरीफ के अंादोलन ने पाकिसतान के सिर पर दुबारा बांग्लादेश का भूत सवार कर दिया था| पाकिस्तान में अब तक अनेक लोकपि्रय जन-आंदोलन चले लेकिन ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने सरकार की अवज्ञा कर दी हो| नवाज़ शरीफ और शाहबाज़ शरीफ को लाहौर की पुलिस लाहौर की पुलिस ने नज़रबंद करने से मना कर दिया| पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने सरकारी आज्ञा का पालन करने की बजाय इस्तीफे देना ज्यादा उचित समझा | शरीफ बंधुओं का ‘लाँग मार्च’ सचमुच राष्ट्रीय आंदोलन बन गया| उसमें सिर्फ उनकी अपनी मुस्लिम लीग ही नहीं, पीपीपी के कई विख्यात नेता और कार्यकर्ता, सरकारी अधिकारी, सारे वकील, सेवा-निवृत्त फौजी और आम आदमियों ने इतनी जबर्दस्त शिरकत की कि राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी कठघरे में खड़े हो गए| उनकी दाल मुशर्रफ से भी पतली हो गई|
आर्मी और अमेरिका ने भी उनका साथ नहीं दिया| अमेरिकी विदेश मंत्री हिलैरी क्लिंटन ने ज़रदारी को हिला दिया| सेनापति परवेज़ कयानी ने प्रधानमंत्री गिलानी से सीधी बात की| घुटने टेकने के अलावा ज़रदारी के पास कोई विकल्प नहीं रहा| इस सारे घटना-चक्र में प्रधानमंत्री गिलानी अपने आप नम्बर बन हो गए और ज़रदारी नंबर-दो पर खिसक गए| कोई आश्चर्य नहीं कि अब ज़रदारी और गिलानी के बीच तलवारें खिंच जाएँ| राष्ट्रपति के अधिकारों में कटौती का नया अभियान शुरू होने में अब देर नहीं लगनी चाहिए| संविधान के 17 वें संशोधन को खत्म करने पर पाकिस्तान के सभी प्रमुख दल सहमत हैं| दूसरे शब्दों में वर्तमान घटना-चक्र का यह आकस्मिक बोनस है| राष्ट्रपति के तानाशाही अधिकारों में कटौती और प्रधानमंत्री की शक्तियों की बहाली पाकिस्तान के लोकतंत्र् को मजबूत बनाएगी|
यदि पाकिस्तान के दोनों प्रमुख दल आपस में भिड़ जाते तो फौज की पौ-बारह हो जाती| लोगों की नज़र में फौज फिर ऊपर बढ़ जाती और नेता नीचे गिर जाते| अमेरिकियों को भी मजबूरी में फौज का साथ देना पड़ता, क्योंकि अमेरिकी पाकिस्तान में लोकतंत्र् तो लाना चाहता है लेकिन उसकी पहली प्राथमिकता अपने राष्ट्रहितों की रक्षा करना है| मुस्लिम लीग और पीपीपी की भिड़त अमेरिका की इस प्राथमिकता को निश्चय ही खटाई में डाल देती| पाकिस्तानी सरकार आतंकवादियों से लड़ने की बजाय आपस में ही लड़ मरती| इसीलिए अमेरिकी सरकार ने सीधा हस्तक्षेप किया| दोनों दलों के नेताओं से उसने सीधी और खुली बात की| बात का नतीज़ा बहुत अच्छा निकला, इसीलिए कोई इस नुक्ते को नहीं उठा रहा कि पाकिस्तानी संप्रभुता का क्या हुआ ? क्या ऐसा बाहरी दखलंदाजी, ऐसी हिमाकत कोई भारत या चीन के साथ कर सकता है ? इस घटना-चक्र ने दुबारा इस तथ्य पर मुहर लगाई कि पाकिस्तान खुद-मुख्तार नहीं, कठपुतली राष्ट्र है|
इस संकट के सुखद समारोप के कारण पाकिस्तान के उच्च्तम न्यायालय में इफ्तिखार चौधरी और शेष न्यायालयों में लगभग 60 जजों की वापसी होगी| ये जज अब कहीं पुराने बदले निकालने में न जुट जाएँ| चौधरी चाहें तो ज़रदारी को भी बर्खास्त कर सकते हैं| वे मुशर्रफ की अधिघोषणा को अवैधानिक घोषित कर सकते हैं, जिसके तहत बेनज़ीर और ज़रदारी को माफी मिली थी| वे उस चुनाव को भी अवैध ठहरा सकते हैं, जिसकी लहर पर सवार होकर ज़रदारी राष्ट्रपति बन बैठे हैं| लेकिन ऐसा दुस्साहस पाकिस्तान को अंधे कुए में ढकेल देगा| उम्मीद की जानी चाहिए कि चौधरी संयम और दूरदर्शिता का परिचय देंगे|
जहाँ तक शरीफ बंधुओं का प्रश्न है, चौधरी की अदालत उन्हें दोषमुक्त घोषित करेगी, इसमें ज़रा भी संदेह नहीं है| पंजाब में शाहबाज़ दुबारा मुख्यमंत्री बनेंगे और दोनों प्रमुख दल मिलकर चलेंगे लेकिन अब मेल-मिलाप के इस नए दौर में दोनों दलों की नई ऊँचाइयाँ छूनी चाहिए| दोनों दलों को मिलकर पंजाब और केंद्र में भी गठबंधन-सरकारें बनानी चाहिए| यदि पाकिस्तान के नेता फौज की वापसी के विरूद्घ हैं तो उनके पास केवल यही विकल्प बचा है| अन्यथा देानों दल अपनी-अपनी प्रभुता कायम करने के लिए अब इतने कटु स्तर पर उतर सकते हैं कि संसद भंग हो सकती है और प्रशासन ठप्प हो सकता है| यदि दोनों दल केंद्र और प्रांतों में गठबंधन कर लें तो न केवल वे फौज को हाशिए में डाले रख सकते हैं बल्कि आतंकवाद का भी डटकर मुकाबला कर सकते हैं, भारत से अपूर्व संबंध-सुधार कर सकते हैं और पाकिस्तान की डगमगाई हुई अर्थ-व्यवस्था को भी पटरी पर ला सकते हैं| इस घटना-चक्र ने नवाज़ शरीफ़ की लोकपि्रयता में चार चाँद जरूर लगाए हैं लेकिन गिलानी को भी बड़े नेता के पद पर स्थापित कर दिया है| ये दोनों पंजाबी नेता चाहें तो पाकिस्तान की राजनीति में एक नए युग की शुरूआत कर सकते हैं| इसमें संदेह नहीं कि अगले चुनाव में ये ही नेता एक-दूसरे का मुकाबला करेंगे लेकिन उस मुकाबले तक क्या यह संभव नहीं कि पाकिस्तान की गाड़ी को ये लोग मिल-जुलकर खींच ले जाएँ ?
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