NavBharat Times, 3 July 2004 : कैसा चमत्कार है कि भारत-पाकिस्तान, दोनों ही अपनी-अपनी अंदरूनी राजनीति में अब लगभग एक ही राह पर चल पड़े हैं| कम से कम प्रधानमंत्रियों के बारे में तो यह सच पूरी तरह लागू हो रहा है| यदि भारत में डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए हैं तो बिल्कुल उनके जैसे ही विलक्षण अर्थशास्त्री शौकत अजीज़ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने वाले हैं|
लेकिन इसके साथ ही पाकिस्तान में जो हुआ उसे क्या कहा जाए, प्रधानमंत्री-परिवर्तन या तख्ता-पलट? उसे प्रधानमंत्री-परिवर्तन तो तब कहा जाता जबकि जफरुल्ला खान जमाली के विरुद्घ संसद अविश्वास व्यक्त करती या अपनी संसदीय पार्टी में वे बहुमत खो देते या संविधान के उल्लंघन के आरोप में उन्हें बर्खास्त कर दिया जाता लेकिन वहॉं ऐसा कुछ नहीं हुआ| जमाली का इस्तीफा स्वीकार करते हुए राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ ने उनकी तारीफों के पुल बॉंध दिए| हटने के बारह घंटे पहले जमाली ने अखबारों को कहा था कि हटने के कोई आसार ही नहीं हैं और फिर वे चुपचाप हट गए| एक पत्ता भी नहीं खड़का| कितना शानदार लोकतंत्र है, पाकिस्तान| अनुशासन और मर्यादा का ज्वाल्वल्यमान उदाहरण ! यह सच होता तो सचमुच बड़ी बात होती लेकिन यह सच नहीं है| सच यह है कि जफरुल्ला जमाली सचमुच के प्रधानमंत्री ही नहीं थे| 2002 के चुनावों के पहले किसी ने उन्हें नेता के रूप में देखने की कल्पना भी नहीं की थी| वे अपनी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग (क़ायद) के भी नेता नहीं थे| फिर भी वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जा बैठे| क्यों जा बैठे? इसीलिए कि सर्वशक्तिमान राष्ट्रपति मुशर्रफ को वे अपने सबसे सुरक्षित मोहरे मालूम पड़े| ऐसे मोहरे जैसे आटे के लौंदे होते हैं| आप उनका कुछ भी बना लें, पूरी, पराठा, रोटी या कचौरी ! मुशर्रफ को लगा कि किसी भी पठान, सिंधी या पंजाबी के मुकाबले यह बलूच बेहतर रहेगा| रबर का ठप्पा बना रहेगा| इसके अलावा विरोधियों के गठबंधन ‘मुत्तहिदा मजलिस-ए-अमान’ के साथ भी जमाली के घनिष्ठ संबंध थे| याने मुशर्रफ ने ऐसा सेल्समेन पकड़ा, जो उनकी नीतियों को सत्तारूढ़ और विरोधी दलों को जस-का-तस बेच सकेगा| इसी सेल्समेन को उन्होंने प्रधानमंत्री का नाम दे दिया| लगभग पौने दो साल तक जमाली मुशर्रफ की मुराद पूरी करते रहे| यहॉं तक कि जमाते-इस्लामी और मुत्तहिदा के नेता काज़ी हुसैन अहमद को पटाकर उन्होंने मुशर्रफ द्वारा प्रस्तुत संविधान के संशोधन भी पास करवा दिए|
लेकिन इधर कुछ हफ्तों में जमाली लड़खड़ा गए| पौने दो साल में उन्होंने जो दुकान जमा ली थी, वह मुशर्रफ ने अब अचानक उठा ली| जमाली से उठाली की यह यात्रा शुद्घ तख्ता-पलट है| मुशर्रफ को यह तख्ता-पलट इसलिए करना पड़ा कि जमाली अब उनके काम के नहीं रह गए थे| मुशर्रफ को संविधान-संशोधनों पर समर्थन देते हुए काज़ी हुसैन अहमद ने उनसे यह घोषणा करवा ली थी कि इस साल के अंत तक वे सेना-प्रमुख का पद छोड़ देंगे| जमाली इस पैंतरे पर सचमुच भरोसा करने लगे और आज्ञाकारी कारकून की तरह उसकी तारीफ़ भी करने लगे लेकिन उनसे गलती यह हुई कि जैसे ही मुशर्रफ ने अपना पैंतरा बदला, उन्होंने अपना पैंतरा नहीं बदला और लगभग उदासीन हो गए| यही उदासीनता उन पर भारी पड़ गई| काज़ी हुसैन अहमद के वार भी तेज हो गए| अब जमाली की उपयोगिता चुक गई| वे तो ऊर्ध्वमूल थे ही याने उनका मूल ऊपर था, मुशर्रफ में था| पार्टी या जनता में नहीं| इसीलिए मुशर्रफ ने उन्हें निकाल फेंका और उनकी जगह पार्टी अध्यक्ष चौधरी शुजात हुसैन को अंतरिम प्रधानमंत्री बना दिया| शुजात बहुत खुश हैं, क्योंकि जमाली का जलवा बढ़ता जा रहा था और उनका फीका पड़ता जा रहा था|
शुजात को पक्का प्रधानमंत्री इसलिए भी नहीं बनाया कि वे पंजाबी हैं| पाकिस्तान की फौज और जनसंख्या में भी पंजाबियों का बाहुल्य है| हर सत्ताधीश उनसे सावधान रहता है| इसके अलावा शुजात के छोटे भाई परवेज़ इलाही पंजाब के मुख्यमंत्री भी हैं| बिल्कुल नवाज़ शरीफ और शाहबाज शरीफ़ वाला नज्जारा ! शुजात ने अंतरिम प्रधानमंत्री का पद स्वीकार कर लिया याने वे भी जमाली की तरह कठपुतली हैं| दूसरे शब्दों में पाकिस्तान का लोकतंत्र वास्तव में कठपुतलियों का तमाशा है| 57 साल में आधा समय तो फौज का पूरा कब्जा रहा और शेष समय में 21 प्रधानमंत्री आ बैठे| इन प्रधानमंत्र्िायों की भी हैसियत क्या रही? लियाकत, भुट्टो, बेनज़ीर और नवाज़ शरीफ़ के अलावा कितने प्रधानमंत्री हुए, जिनके नाम भी लोगों को याद हों? भुट्टो, जुनेजो, बेनज़ीर और नवाज़ का भी तख्ता-पलट ही हुआ| जि़या, गुलाम इसहाक और फारुख लघारी जैसे राष्ट्रपतियों ने किया और लियाकत अली की तो हत्या ही हो गई थी| बेनज़ीर ने नया तर्क निकाला है| उन्होंने जमाली के तख्ता-पलट पर कहा है कि पहले जितने राष्ट्रपतियों ने अपने प्रधानमंत्र्िायों को निकाला, वे खुद जल्दी ही खत्म हो गए| इसीलिए मुशर्रफ के भी दिन अब पूरे हो गए लगते हैं| देखें, क्या होता है|
मुशर्रफ के सिर पर तो कई तलवारें एक साथ लटक रही हैं| आतंकवादी दो बार उनकी जान लेते-लेते बचे| मज़हबी पार्टियॉं उनके खून की प्यासी हो गई हैं| नवाज़ और बेनज़ीर उन्हें हटाने पर एक हो गए हैं लेकिन जब तक फौज उनके साथ है, मुशर्रफ का कोई बाल भी बॉंका नहीं कर सकता| पाकिस्तानी राजनीति मेें फौज ब्रह्म है, बाकी सब माया है| मुशर्रफ ने अपनी गोटियॉं इस तरह से बिठाई हैं कि अगर वे जिन्दा रहे तो 2007 में नए चुनाव के बाद पाकिस्तानी संविधान को अमेरिकी ढर्रे में ढालेंगे| राष्ट्रपति-पद्घति लागू करेंगे और जब तक जिऍंगे, राष्ट्रपति पद नहीं छोड़ेंगे| लोकतंत्र का दिखावा इतना अच्छा करेंगे कि राष्ट्रमंडल वगैरह को भी मुशर्रफ से कोई एतराज़ नहीं होगा|
शतरंज की बाजी उन्हीं के हाथ रहे, इसीलिए मुशर्रफ ने इस बार अपना सर्वाधिक पि्रय मोहरा चल दिया है| इस मोहरे का नाम है, शौकत अजीज़| शौकत अजीज़ अब पाकिस्तान के बाइसवें प्रधानमंत्री होंगे| चौधरी शुजात तब तक गाड़ी धकाते रहेंगे| अजीज़ अभी प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बन सकते थे, क्योंकि वे निम्न सदन के सदस्य नहीं हैं| मुशर्रफ उन्हें शीघ्र ही चुनाव लड़वाऍंगे और प्रधानमंत्री बनवाऍंगे| मुशर्रफ की तरह अजीज़ भी भारत में ही पैदा हुए हैं| अर्थशास्त्री के तौर पर पश्चिमी जगत में उन्होंने काफी नाम कमाया है| पाकिस्तान की डांवाडोल अर्थ-व्यवस्था को सम्हालने के लिए पहले उन्हें नवाज़ शरीफ़ ने अमेरिका से बुलवाया था और मुशर्रफ ने भी बाद में बुलवाया और अपना वित्त मंत्री बना लिया| जमाली मंत्रिमंडल में भी वे टिके रहे और उनके प्रयत्नों से पाकिस्तानी अर्थ-व्यवस्था में काफी निखार आया| प्रधानमंत्री के तौर पर वे पाकिस्तान के मनमोहन सिंह सिद्घ होंगे| अजीज़ अर्थनीति करेंगे और मुशर्रफ राजनीति ! अजीज़ के पास उतना टेका भी नहीं है, जितना जमाली के पास था| इसीलिए वे शायद ज्यादा टिके रहेंगे| उनका टिका रहना भारत के लिए भी अच्छा है| पाकिस्तान का ध्यान लड़ाई-झगड़े पर कम और आर्थिक विकास पर ज्यादा केंदि्रत होगा| क्या भारत के मनमोहन और पाकिस्तान के मनमोहन में जमकर नहीं घुटेगी?
Leave a Reply