Rastriya Sahara, 22 Aug 2007 : समझ में नहीं आता कि डॉ. मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार को दॉंव पर क्यों लगादिया है? इस परमाणु समझौते के कारण वह यह भी भूल गए कि वे जनता के द्वारा चुने हुए नहीं, सोनिया गांधी के द्वारा नियुक्तप्रधानमंत्री हैं| इस परमाणु समझौते में ऐसा क्या कुछ है कि उन्होंने किसी लोकपि्रय प्रधानमंत्री की तरह वामपंथियों पर खमठोक दिया? क्या सचमुच में यह समझौता ऐसा है कि जिसके रद्द होने पर भारत का भयंकर नुकसान हो जाएगा? भाजपा औरवामपंथियों को जाने दीजिए, क्या वजह है कि कॉंग्रेस-गठबंधन के सदस्य-दल भी इस समझौते पर मौन साधे हुए हैं? संसद केबहुमत को नाराज़ करके हमारे प्रधानमंत्री बुश प्रशासन को खुश क्यों करना चाहते हैं? आखिर इस पहेली का रहस्य क्या है?
इसका रहस्य यह नहीं है कि मनमोहन सिंह ईमानदार नहीं हैं| मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर तो जॉर्ज फर्नान्डीस को भीशक नहीं है, जिन्होंने उनके बारे में भद्दी-सी टिप्पणी कर दी थी लेकिन यहॉं असली सवाल प्रधानमंत्री की ईमानदारी का नहीं, समझदारी का है| डॉ. मनमोहन सिंह उच्च-कोटि के अर्थशास्त्री हैं और अर्थशास्त्री के नाते भारत की अर्थ-व्यवस्था को सुधारनेमें उनका योगदान अनुपम रहा है लेकिन विदेश नीति के पेचीदा संसार से वे बहुत कम वाकि़फ रहे हैं| विदेशी मामलों केसंचालन में जितना महत्व अपने इरादों का होता है, उससे ज्यादा महत्व प्रतिपक्षी राष्ट्र के इरादों का समझने का होता है| शकयह है कि प्रधानमंत्री अपनी सादगी और सज्जनता के प्रवाह में बहे चले जा रहे हैं| उन्हें अंदाज़ ही नहीं है कि बुश प्रशासन केअसली इरादे क्या हैं? अमेरिकी इरादों का यह सिलसिला 1974 से ही शुरू हो गया था, जब इंदिरा गांधी ने प्रथम पोखरनअंत:स्फोट किया था| बुश प्रशासन ही नहीं, क्ंलिटन प्रशासन भी चाहता था कि अटलबिहारी वाजपेयी को शीर्षासन करवादिया जाए| अमेरिका को यह कतई बर्दाश्त नहीं था कि इंदिराजी और अटलजी परमाणु सामंतवाद को चुनौती दें| 1998 केपरमाणु विस्फोट के बाद अमेरिका का एक ही नारा था-भारत के परमाणु गलीचे की घड़ी कर दी जाए और उसे परमाणु-अप्रसार के डिब्बे में बंद कर दिया जाए| अमेरिका ने क्या-क्या पैंतरे नहीं अपनाए पहले तरह-तरह के प्रतिबंध लगाकर देखलिया| जब कुछ बात नहीं बनी तो उसने भारत को लोकतांत्रिक विश्व का नेता बनाने का प्रलोभन दिया, अपना सामरिकभागीदार बनाने का पास फेंका, आर्थिक महाशक्ति बनाने के सब्जबाग दिखाए, पाकिस्तान को दरकिनार करने के संकेत दिए, परमाणु-परीक्षण के विरूद्घ लगाए प्रतिबंधों को उठाने केन्द्र को आश्वासन दिए लेकिन वाजपेयी-सरकार अमेरिकी गोलियों कोनिगलने से बराबर बाज आती रही| उसने गोलियों को देखा, छूआ, परखा और चखने का नाटक भी किया लेकिन निगलने सेमना कर दिया| भाजपा-सरकार के विदेश मंत्र्ी ने ऐसी मुद्राऍं अख्तियार की कि मानो भारत परमाणु-अप्रसार संधि औरसीटीबीटी पर बस ऑंख मीचकर अब दस्तखत करने ही वाला है| भाजपा-विदेश मंत्री ने अमेरिका के परमाणु छतरी प्रस्तावकी सराहना भी कर डाली थी| भारत के रवैए के कारण पाकिस्तान भी गुमराह हो गया था| प्रधानमंत्री वाजपेयी की लाहौर-यात्रके आठ दिन पहले विपक्ष की नेता बेनज़ीर भुट्टो ने सीटीबीटी का खुला समर्थन कर दिया था और पसोपेश में पड़े प्रधानमंत्रीनवाज़ शरीफ ने एक निजी भेंट में मुझसे पूछा था कि ‘जब बाजपायी साब ही दस्तखत कर रहे हैं तो हम भी क्यों न कर दें?’ मैंनेकहा कि ‘वे कभी नहीं करेंगे और कर देंगे तो उनकी सरकार तत्काल गिर जाएगी|’
यह नौबत अब आ गई है| अटलजी जिस जाल में फॅंसने से बच गए, मनमोहन सिंह जी उसमें जान-बूझकर उलझ गए है| इसमें संदेह नहीं कि पिछले दो वर्षो में मनमोहन-सरकार ने भारतीय हितों की रक्षा के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है| ‘समझौता 123′ में उन्होंने क्या-क्या शब्द नहीं जुड़वाए? इस समझौते में सैकड़ों शब्द इधर से उधर हुए और कहॉं-कहॉं काटा-पीटी नहीं हुई लेकिन सारे संगीत की तान इसी नुक्ते पर टूट रही है कि भारत को छठा परमाणु शस्त्र् संपन्न राष्ट्र नहीं मानाजाएगा| उसे अन्य पॉंच परमाणु शस्त्र् संपन्न राष्ट्रों की तरह परमाणु शस्त्रस्त्र् बनाने की अनुमति नहीं मिलेगी| अब तक उसनेजो गुनाह किए हैं, उनके लिए उसे माफ़ कर दिया जाएगा लेकिन अगर अब उसे गुनाह (परमाणु-परीक्षण) को वह दोहरायगातो उसे ‘परमाणु अछूत‘ घोषित कर दिया जाएगा और उसे उसका दंड भी भगुतना पड़ेगा|
प्रधानमंत्री ने संसद में जो ताज़ा सफाई पेश की है, वह भरोस लायक नहीं है| अभी तक यह सिद्घ नहीं कर पाए हैं कि कौनबड़ा है? अमेरिकी कॉंग्रेस का कानून बड़ा है या अमेरिकी सरकार का समझौता? अमेरिकी सरकार ने भारत सरकार को‘समझौता 123′ में कोई स्पष्ट आश्वासन नहीं दिए हैं लेकिन मान लें कि दिए हैं तो भी क्या वे आश्वासन ‘हाइट-एक्ट‘ के सामनेटिक पाऍंगे? हमारे अर्थशास्त्र्ी प्रधानमंत्र्ी को अमेरिका संविधानशास्त्र् के सिर्फ दो उदाहरण ठीक से समझ लेना चाहिए| एक तो ‘लीग ऑफ नेशन्स‘ का और दूसरा ‘सीटीबीटी‘ का| इन दोनों मुद्दों पर राष्ट्रपति सूजवेल्ट और क्लिंटन को सीनेट नेजमीन पर दे मारा| दोनों राष्ट्रपति इन मुद्दों का झंडा उठाए सारी दुनिया में घूम रहे थे लेकिन उन्हें अपनी कांग्रेस के आगे घुटनेटेकने पड़े| ‘हाइड एक्ट‘ बना ही इसलिए है कि कहीं भारत अमेरिका को गच्चा न दे जाए| ‘हाइड एक्ट‘ में साफ-साफ लिखा हैकि भारत के साथ परमाणु-सहयोग का एक मात्र् लक्ष्य उसे नख-दंतहीन बनाना है| वह परमाणु परीक्षण करे तो उसका हुक्का-पानी बंद कर देना है| उसे अमेरिकी विदेश नीति का पिछलग्गू बनाना है| उसे ईरान-जैसे मुद्दों पर हॉं में हॉं मिलाने के लिएमजबूर करना है| उसकी परमाणु गतिविधियों पर अंतरराष्ट्रीय निगरानी थोप देना है| दूसरे शब्दों में उसका परमाणुखस्सीकरण कर देना है| हस्ताक्षर किए बिना ही उसे परमाणु अप्रसार संधि का हस्ताक्षरकर्त्ता घोषित कर देना है| इंदिरा गॉंधीऔर अटलबिहारी वाजपेयी के हीरे-मोतियों को दरवाज़े से उड़ा ले जाना है|
भोले भारतीय प्रधानमंत्री को बुश प्रशासन ने तगड़ा चकमा दे दिया है| उनसे पूछा है कि आपके मार्गदर्शन में विकसित हो रहेभारत की बिजली की जुरूरतें कैसे पूरी होंगी? परमाणु ऊर्जा से होगी| दो साल बीत गए लेकिन प्रधानमंत्री यह नहीं बता पाएकि अमेरिका समझौते के कारण हम कितनी बिजली पैदा कर पाऍंगे? और प्रति यूनिट उसकी क़ीमत क्या होगी? यदि परमाणुऊर्जा के कारण बिजली सिर्फ 3 प्रतिशत बढ़ती है तो उसके लिए अरबों रुपये की अमेरिका की बेकार पड़ी परमाणु भट्टियॉं हमेंक्यों खरीदनी चाहिए और 10-15 रू. प्रति यूनिट बिजली का हम क्या करेंगे? अर्थशास्त्र् का 10वीं कक्षा का छात्र् भी ऐसीपरमाणु ऊर्जा को दूर से ही नमस्कार कर देगा| यदि परमाणु ऊर्जा इतनी सस्ती है तो अमेरिका, बि्रटेन और रूस उसकाफायदा क्यों नही उठा रहे हैं? उल्टे, ये राष्ट्र डॉ. मनमोहन सिंह की कमज़ोरी का फायदा उठाना चाहते हैं| उनके कमज़ोरी है, भारत का द्रुत विकास| जैसे मोटे लोग वज़न घटाने की गोलियों के नाम पर कुछ भी सटकने के लिए तैयार हो जाते हैं, वैसे हीअपने प्रधानमंत्रीजी भी अमेरिका के जाल में फॅंसने को तैयार हो गए हैं| वे बहुत ईमानदार आदमी हैं, इसीलिए अमेरिकी जालमें वे बहुत ईमानदारी से फॅंस रहे हैं| एराक और अफगानिस्तान में निरंतर निर्वस्त्र् होते जा रहे बुश महोदय मनमोहन सिंह कोअपना पर्दा बनाने पर तुले हुए हैं| वामपंथी अगर अडंगा नहीं लगाते तो बुश ने तो बाजी मार ही ली थी|
वामपंथियों पर प्रधानमंत्री का गुस्सा बिल्कुल स्वाभाविक है| यह सबको पता है कि वामपंथियों को भारत की परमाणु स्वायत्तासे कोई लेना-देना नहीं है| उन्होंने अपने घोषणा-पत्रें में कभी भी परमाणु बम का समर्थन नहीं किया| उनकी एक मात्र् आपत्तिअमेरिका से है| अमेरिका भारत को चीन के मुकाबले क्यों खड़ा कर रहा है? वे अब भी 20वीं सदी में रह रहे हैं| वे शीत युद्घसे अभी तक बाहर नहीं निकले हैं| उनके पितृ राष्ट्र-रूस और चीन-अमेरिका के बगलगीर हो चुके हैं लेकिन हमारे वामपंथियोंके दिल में इस ‘पूंजीवादी और साम्राज्यवादी‘ राष्ट्र के प्रति इतनी गरही घृणा भरी हुई है िक वे इस सरकार को गिराने पर तुलगए हैं| यदि इस मुद्दे पर सरकार गिर गई तो कांग्रेस और वामपंथ दोनों की लुटिया डूब जाएगी| इस समय भाजपा के मजे है| दूसरा विकल्प यह है कि सरकार टिकी रहे और समझौता ढह जाए तो डेढ़-दो साल बाद इस लूली-लंगड़ी सरकार को चुनाव मेंचकनाचूर करना बहुत आसान हो जाएगा|
एक तीसरा रास्ता भी है| इस समझौते को सरकार टालू मिक्शचर पिला दे| एक कमेटी बैठा दे, जो दो साल तक जुगाली करतीरहे| आई.ए.ई.ए और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप से होने वाली बातचीत को लंबी खींच दे| इस बीच प्रधानमंत्री किसी बयान मेंभारत की परमाणु स्वायत्ता का एकतरफा सिंहनाद कर दें| अमेरिकी कॉंग्रेस इस समझौते को अपने आप ही रद्द कर देगी| सबका पिंड छूटेगा|
(लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष है)
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