R Sahara, 16 Jan 2005 : प्रवासी सम्मेलन की एक संगोष्ठी में सेम पित्रोदा ने जो व्यवहार किया, वह मुझे लगभग 40 साल पुरानी एक घटना की याद दिलाता है। मोरारजी देसाई सप्रू हाउस आए और उन्होंने `स्कूल ऑफ्ऎ इंटरनेशनल स्टडीज’ में भाषण दिया। भाषण शुरु करने के पहले उन्होंने मुझसे पूछा कि, “क्या करऎँ, हिंदी में बोलूँ कि अंग्रेजी में? यह `इंटरनेशनल स्कूल’ है न । मैं समारोह का अध्यक्ष था। मैंने कहा, “भाईजी, हिंदी में बोलिए या आप गुजराती में बोलिए, क्योंकि यहाँ सभी `नेशनल’ बैठे हैं।।” उन्होंने अपना भाषण हिंदी में शुरु किया। हंगामा खड़ा हो गया। `इंटरनेशनल स्टडीज’ के स्कूल में हिंदी याने काबे में कुफ््रऎ । स्कूल के निदेशक प्रो एम एस राजन ने श्रोताओं से माफ्ऎी माँगी इसलिए कि वैदिक ने मोरारजी से हिंदी में बोलने के लिए कहा। अंततोगत्वा मुझे स्कूल से निकाला गया। संसद में जबर्दस्त हंगामा हुआ। स्कूल को अपने संविधान में संशोधन करना पड़ा और मेरी वापसी हुई। अब सेम पित्रोदा क्या करें? वे दुबारा तो वह संगोष्ठी नहीं कर सकते। संगोष्ठी में उन्होंने राजेंद्रसिंह के लिए माफ्ऎी माँगी थी। उन्हें अब श्री राजेंद्रसिंह से माफ्ऎी माँगनी चाहिए। राजेंद्रसिंह का दोष क्या था, उन्होंने अपनी बात हिंदी में कही थी। यह ठीक है कि वहाँ कुछेक प्रवासी भारतीय अ-हिंदीभाषी रहे होंगे, जिन्हें राजेंद्रजी की बात समझ में नहीं आई होगी। वे बाद में उनसे या जिन्हें समझ में आरही थी, उनसे भी पूछ सकते थे। तुरंत अनुवाद की व्यस्था भी हो सकती थी लेकिन पित्रोदा ने जो किया, वह यदि जिन्हें असुविधा हुई, उनके प्रति अतिशय विनम्रता थी तो उसे क्षमा किया जा सकता है लेकिन यदि वह हिंदी के प्रयोग पर आपत्ति थी तो यह तो धृष्टता है। अति गंभीर भूल है। राजेंद्रजी की व्यक्तिगत अवमानना का प्रतिकार तो क्षमा-याचना से हो सकता है लेकिन हिंदी का अपमान भारत का अपमान है। प्रवासीपन का अपमान है। संविधान का अपमान है। अपने भारतीय होने का अपमान है। इस अपमान का प्रतिकार क्या हो, यह पित्रोदाजी को खुद सोचना चाहिए। इसके पहले कि यह मामला तूल पकड़े, उन्हें खुद इसका समाधान निकालना चाहिए। कम से कम प्रायश्चितस्वरुप उन्हें अपना सारा काम-काज अगले एक वर्ष तक स्वभाषा में ही करना चाहिए। हमेशा ही करें तो क्या बात है। लगभग दो साल पहले जब उनकी हृद शल्य चिकित्सा हुई तो शिकागो में मैं उन्हें देखने उनके घर गया था। वे मुझसे लगातार हिंदी में बात करते रहे और अपनी पत्नी से गुजराती में। वे अपनी इस भारतीयता को संगोष्ठी में कैसे भूल गए और क्या वे यह भी भूल गए कि वे ग्रामीण सुतार के बेटे हैं। उस वर्ग के बेटे हैं, जो अपनी भाषा और संस्कृति को अपने प्राणों से भी प्यारा समझता है।
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प्रवासीगौरव
प्रो हरिशंकर आदेश आजकल भारत आए हुए हैं। वे प्रवासी सम्मेलन में नहीं आए हैं। पाँच साल पहले जब मैं ट्रिनिडाड गया था तो पहली बार उनका नाम सुना था। ट्रिनिडाड में सूरिनाम या मोरिशस की तरह हिन्दी नहीं बोली जाती। वहाँ भारतीय लोग घर में भी अक्सर अंग्रेजी बोलते हैं। ऐसे दमघोंटू माहौल में अगर वहाँ कोई हिंदी बोलता हुआ पाया जाए तो यह स्पष्ट है कि वह या तो आर्यसमाजी होगा या प्रो आदेश का शिष्य होगा। प्रो आदेश ने पिछले 40 वर्षों में हजारों लोगों को हिंदी पढ़ाई, उन्हें अपने साहित्य और संस्कृति से जोड़ा तथा भारत और ट्रिनिडाड के बीच सुदृढ़ स्नेह-सेतु खड़ा किया। ट्रिनिडाड के गाँव-गाँव में उनके शिष्यों ने संगीत, नृत्य और हिंदी-शिक्षण की पाठशालाएँ खोल रखी हैं। प्रो आदेश अब से लगभग चार दशक पहले `भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ की ओर से ट्रिनिडाड गए थे। वे वहीं बस गए और उन्होंने भारत-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। मैं ऐसे लगभग 70-80 देशों में गया हॅूं, जहाँ भारतीय लोग रहते हैं लेकिन अपने प्रवासियों की सेवा का ऐसा उदाहरण मुझे अन्यत्र कहीं दिखाई नहीं पड़ा। आश्चर्य है कि भारत सरकार ने अब तक तीन प्रवासी सम्मेलन कर लिए और उसकी आँखे प्रो आदेश को नहीं देख पाईं। अपने-अपने विषयों पर किताबें लिखनेवाले और अपने परिवार के लिए मोटा पैसा कमानेवाले लोगों पर, जिनका प्रवासी भारत से कुछ लेना-देना नहीं है, हमारी सरकार `प्रवासी सम्मानों’ की बरसात करती रहती है और प्रवासियों की आजीवन सेवा करनेवाले उनके गौरव-पुरुषों की खोज नहीं करती।
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जैनेंद्र-शती
जैनेंद्रकुमारजी के सौ साल मनाने का धीमा-सा प्रयत्न शुरु हुआ है। उनकी बेटी कुसुमजी के घर दिल्ली के कुछ जाने-माने साहित्यकार मिले और उन्होंने भोजन भी फ्ऎरमाया। सबकी शिकायत यह थी कि वाजपेयी-सरकार ने कोई बड़ी घोषणा क्यों नहीं की? लोगों को यह पता नहीं कि मूर्धन्य साहित्यकारों के हस्ताक्षरवाला जो पत्र प्रदीपजी (जैनेंद्रजी के पुत्र) ने प्रधानमंत्री को भेजा था, वह उन्हें मिला ही नहीं। उन्होंने कुछ उत्साह दिखाया तब तक सरकार गिर गई। अब नई सरकार में राहें तलाशी जा रही हैं। विश्वनाथप्राताप सिंहजी ने कुछ सक्रियता दिखाई है। क्या सरकारी टेके के बिना साहित्य की गाड़ी नहीं चल सकती?
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डॉसत्यभूषणवर्मा
डॉ सत्यभूषण वर्मा ने प्रवासी साहित्यकारों की संगोष्ठी में आज भाग लिया और कल सुबह हृदयघात हुआ, चल बसे। वे जापानी भाषा के श्रेष्ठ विशेषज्ञ थे। भारत-जापान सेतु थे। उन्होंने हाइकू की दो पुस्तकें और हिंदी-जापानी कोष तैयार किया। हाइकू नामक पत्रिका भी निकाली। ज ने़ वि में जापानी भाषा विभाग कायम किया। उन्हें जापानी सम्राट की ओर से भी सम्मान मिला था। वे हिंदीप्रेमी थे। हिंदी आंदोलन में अग्रसर रहते थे। श्रद्बाँजलि ।
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