चेतना, 13 अप्रैल 2005 : वयोवृद्घ पोप के निधन पर भारत सरकार और अंग्रेजी अखबारों ने जैसी ऑंसुओं की झड़ी लगाई है, वैसी कई यूरोपीय देशों ने भी नहीं लगाई| भारत सरकार ने तीन दिन का राजकीय-शोक घोषित किया लेकिन यहॉं किसी ने भी उसका विरोध नहीं किया| फ्रांस में इसका उल्टा हुआ| वह ईसाई-बहुल देश है लेकिन वहॉं के विरोधी दलों ने राष्ट्रपति ज़ाक शिराक की नाक में दम कर दिया| उन्होंने पूछा कि फ्रांस कैसा ‘सेक्युलर’ देश है? पोप के लिए झंडे क्यों झुकाए गए हैं? क्या राष्ट्रपति शिराक फ्रांस के भोले केथोलिकों के वोट कबाड़ने में लगे हुए हैं? इसका जवाब फ्रांसीसी सरकार ने यही दिया कि पोप धर्माचार्य तो हैं ही लेकिन उनकी हैसियत एक राज्याध्यक्ष की भी है, क्योंकि ‘वेटिकन’ को अन्तरराष्ट्रीय कानून में ‘राज्य’ का दर्जा मिला हुआ है| यदि भारत में कोई आपत्ति करता तो भारत सरकार भी अपनी गुप्तेच्छा को इसी अंजीर के पत्ते से ढक सकती थी| भारत सरकार की गुप्त इच्छा क्या हो सकती है? जाहिर है कि 100 करोड़ के भारत में केथोलिक वोट लगभग नगण्य हैं| इसीलिए वोटरों को पटाने का तर्क तो अपने आप रद्द हो जाता है| तो फिर वह किसे पटाने में लगी हुई है? क्या सोनिया गॉंधी को, जो केथोलिक भी हैं और इतालवी-मूल की भी हैं? इस तर्क में भी खास दम नहीं लगता| सोनिया गॉंधी जानती हैं कि भारत की राजनीति में टिके रहने के लिए क्या-क्या सावधानियॉं बरतनी चाहिए| पोप की अंत्येष्टि में उन्हें रोम जाने से कौन रोक सकता था? लेकिन देखिए कि रोम कौन गया? संघ का एक पुराना स्वयंसेवक ! भारत का प्रतिनिधित्व उप-राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत को करना पड़ा !
भारत अपना शोक-स्वर इतने ऊंचे स्तर पर क्यों ले गया? शायद इसीलिए कि दुनिया के ईसाई राष्ट्रों में भारत के प्रति सद्रभाव बढ़े ! यों भी भेड़चाल तो है ही ! जब दर्जनों राष्ट्रों के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री लाइन लगाए हुए हैं तो भारत के उप-राष्ट्रपति के उपस्थित रहने में कोई खास हर्ज दिखाई नहीं देता लेकिन मूल सवाल यही उठता है कि भारत धर्म-निरपेक्ष राज्य है| वह पोप को धर्मगुरु माने या राजा? यदि उसे वह धर्मगुरु मानता है तो क्या वह किसी हिंदू या मुसलमान या बौद्घ धर्मगुरु की अंत्येष्टि में भी अपने सर्वोच्च शासकीय प्रतिनिधियों को भेजेगा? इन मज़हबों में केथोलिक चर्च और पोप की तरह न तो कोई रूढि़बद्घ संगठन है और न ही कोई अधिपति ! क्या यह सत्य नहीं कि दुनिया में जितने मज़हब जितने अधिक संगठित हैं, वे उतने ही पाप के डेरे हैं| पोप-लीला का इतिहास स्वयं इसका अकाट्रय प्रमाण है| लगभग एक हजार साल तक पोप की सत्ता को यूरोप में कोई हिला न सका| यह काल यूरोप में अंधकार-काल कहलाता है| पोपों के व्यभिचार, पोपों की हत्या, पोपों के सत्ता-मोह, पोपों की सनक, पोपों के मद-मोह और पोपों के लालच के अजीबो-गरीब किस्सों से यूरोप का इतिहास भरा पड़ा है| दिवंगत पोप जॉन पॉल द्वितीय इसके अपवाद थे| उन्होंने एराक पर अमेरिकी हमले, सोवियत संघ के बिखराव, कम्युनिज्म की अंत्येष्टि, यहूदियों के साथ किए गए ईसाई अन्याय आदि मुद्दों पर जैसा साहसिक रुख अपनाया, वह उन्हें अन्य पोपों से अलग श्रेणी में प्रतिष्ठित करता है लेकिन यह भी सत्य है कि वे बेहद अनुदार पोप थे| स्त्री-विरोध, धर्म-परिवर्तन का उग्र समर्थन, परिवार-नियोजन की निंदा, चर्च के इस्पाती शिकंजे की वकालत आदि कुछ ऐसे काम हैं, जो इस निराले पोप के घटाटोप बन गए थे| चर्च के पाखंड को काटने में इस पोप की भूमिका क्या रही? अगर ईसा मसीह स्वर्ग से लौट आऍं तो इन पोपों को देखकर वे दॉंतों तले उॅंगली दबा लेंगे| कहॉं ईसा का क्रांतिकारी और सीधा-सादा जीवन और कहॉं पोपों का पाखंडमय जीवन ! यदि पोप पॉल ईसाइयत को संगठन के निर्मम शिकंजे से मुक्त करवा देते तो वे ईसाइयत के गोर्बाच्यौफ जरूर कहलाते लेकिन वे मज़हब की सूखी धमनियों में अध्यात्म के रक्त का संचार कर देते| साम, दाम, दंड, भेद से ईसाइयत को एशिया में फैलाने का उद्रघोष करनेवाले पोप को मज़हबी माना जाए या धार्मिक माना जाए? यह पता नहीं कि वे 21वीं सदी को चर्च की सदी बनाना चाहते थे या ईसा की सदी बनाना चाहते थे?
माधव नहीं, महाराज
श्री माधवराव सिंधिया अगर हमारे बीच होते तो इस साल वे साठ साल के हो जाते| उनकी स्मृति में उज्जैन के राजेंद्र भारती और डॉ. अनिल मिश्रा ने एक सर्वांग सुंदर स्मृति-ग्रथ प्रकाशित किया है| उसका विमोचन करने के लिए ग्वालियर में भव्य कार्यक्रम हुआ| सुनीलदत्त और मैं दिल्ली से गए| ग्वालियर से सिंधियाजी की पत्नी माधवीजी, उनके बेटे ज्योतिरादित्य और पुत्रवधु शामिल हुए| मैं संस्मरण लिखकर नहीं भेज सका था, सो वहॉं बोलकर सुनाए| सिंधियाजी मुझसे कहते थे कि आप मुझे ‘माधव’ बोला करें ‘महाराज’ नहीं| मैंने कहा मुझे ‘महाराज’ बोलने में मजा आता है| इस पर वे बोले, ‘शायद इसीलिए मजा आता है कि आप इंदौरवाले रसोइए को ‘महाराज’ बोलते हो|’ मैंने कहा कि अगर यह सही है तो भी इसमें गलत क्या है? महाराज किसी दिन आप पूरे देश की रसोई बनाएंगे और सारा देश अपनी उॅंगलियॉं चाटेगा| वह दिन कभी नहीं आया| हवाई दुर्घटना ने हमारे पि्रय मित्र को हमसे छीन लिया|
भूटान के लोकतांत्रिक नरेश
माधवरावजी और मेरे अभिन्न मित्र भूटान नरेश जिग्मे सिंगये वांगचुक ने इधर कुछ चमत्कारी काम किए हैं| उन्हांेने भूटान का जो नया संविधान बनाया है, उसमें खुद को हटाने का प्रावधान भी कर दिया है| भूटान की संप्रभुता का निवास नरेश में नहीं, भूटान की जनता में बताया है| राज्य के दैवीय सिद्घांत को स्वयं ही निरस्त कर दिया है| नागरिकों को मूलभूत अधिकार दिए हैं| कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका में शक्ति-विभाजन और संतुलन स्थापित किया है| राजनीतिक दल कई हो सकते हैं लेकिन संसद में केवल दो ही प्रमुख दलों को प्रतिनिधित्व मिलेगा| ऐसा प्रावधान शायद दुनिया के किसी अन्य संविधान में नहीं है| मोटे तौर पर भूटान का संविधान बि्रटिश संविधान की तर्ज पर बना है याने लोकतांत्रिक संवैधानिक राजतंत्र ! इस तरह का संविधान बनाने की बात करीब 15 साल पहले भूटान नरेश ने मुझसे कही थी| वे राष्ट्रपति भवन में ठहरे थे और सिर्फ 20 मिनिट की मुलाकात तय हुई थी| यह पहली मुलाकात थी| युवा नरेश और मैं लगभग साढ़े तीन घंटे बात करते रहे| भूटान और भारत के सुरक्षा अधिकारी असमंजस में पड़ गए| उन्हें कुछ शक हो गया| दो-तीन बार उन्होंने अंदर झांका| नरेश ने उन्हें डपट दिया| रात को राज-भोज में जब प्रधानमंत्री ने नरेश से मेरा औपचारिक परिचय करवाया तो नरेश ने उनसे कहा कि ‘आपके सारे मंत्रियों से कुल मिलाकर मैंने जितनी देर बात की, उससे ज्यादा डॉ. वैदिक से की है|’ वांगचुकजी लगभग हमउम्र हैं और बहुत पढ़ाकू हैं| भारत की प्रांतीय राजनीति के दॉंव-पेंचों को भी भली-भॉंति समझते हैं| उन्होंने नटवरसिंह और उनकी पत्नी तथा मुझे सपरिवार भूटान बुलाकर अपने महल में रखा और पूरा देश दिखाया| दिल्ली से रवाना होने के पहले मैंने उनसे पूछा कि आपके लिए क्या लाऊं तो बोले सिर्फ ताज़ा किताबें ! मैं छह किताबें ले गया और जब हम थिम्पू से चले तो उन्होंने हमें दो गलीचे , बेटे को म्युजि़क सिस्टम और बिटिया को केमरा भेंट किया|
श्रीलंका के ‘सोनिया गॉंधी’
एक अमरसिंघ श्रीलंका में भी हैं| ये श्रीलंका की सबसे शक्तिशाली पार्टी ‘जनता विमुक्ति पेरामून’ के अध्यक्ष हैं| ये श्रीलंका के सोनिया गॉंधी हैं| यों चंदि्रका कुमारतुंग राष्ट्रपति हैं और महिन्द राजपक्ष प्रधानमंत्री हैं लेकिन अमरसिंघजी सबसे शक्तिशाली नेता हैं| सरकार उन्हीं के दम पर चल रही है| वे स्वयं मंत्री भी नहीं हैं लेकिन उनके कई चेले मंत्री हैं| वे अपने एक मंत्री को साथ लेकर दिल्ली में घर आए| वे कुछ घंटों के लिए ही यहॉं थे| मार्क्सवादी पार्टी के अधिवेशन में आए थे| इनसे तीन-चार माह पहले श्रीलंका में ही परिचय हुआ था| उन्होंने फोन करके मुझे अपने पार्टी-दफ्तर में बुलाया था| उनके पार्टी-दफ्तर की सादगी देखकर मैं दंग रह गया था| उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें मेरा यह विचार बहुत पसंद आया कि दक्षेस के शिखर-सम्मेलनों के साथ-साथ जन-दक्षेस याने जनता-सम्मेलन भी आयोजित किए जाएं| उन्होंने कहा कि अगले शिखर-सम्मेलन में हम यह प्रस्ताव श्रीलंका-सरकार की तरफ से पेश कर देंगे| अमरसिंघजी की पार्टी दुनिया की एक मात्र ऐसी कम्युनिस्ट पार्टी है, जो किसी देश की केंद्रीय सरकार चला रही है और जो बुलेट से नहीं, बैलेट से बनी है| श्रीलंका की आम जनता में लोकपि्रय होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि इस पार्टी के कार्यकर्ता, नेता और मंत्री बहुत ईमानदार और सादगी-पूर्ण हैं| अमरसिंघजी के साथ आए मंत्री ने अपनी जेबी डायरी निकाली और मुझे वह लिखा हुआ खर्च बताया, जो दोनों ने डेढ़ दिन में किया था| अमरसिंघजी ने बताया कि उनके सारे सांसदों की आमदनी का 60 पैसा पार्टी-संगठन पर खर्च होता है| अमरसिंहघजी अपना खाना खुद बनाते हैं| उनकी पत्नी को जब कैंसर हुआ तो वे राजनीति करने के साथ-साथ नर्स, रसोइए और सेवक के काम भी खुद ही करते थे| हमारे साथ खाना खाते हुए जब उन्होंने फूली हुई रोटी अपनी प्लेट में देखी तो तुरंत चौके में चले गए और रसोइए से पूछा कि इसका गुर मुझे भी सिखाइए| जिस पार्टी के अध्यक्ष में सीखने की इतनी ललक हो, उस पार्टी के कार्यकर्ता क्या लोगों के दिल जीतना नहीं जानते होंगे?
Leave a Reply