R Sahara, 21 Nov 2004 : क्या सिरदर्द का इलाज रसगुल्लों से हो सकता है? शायद हो सकता है| हॉं सिर्फ रसगुल्लों से, दवा से नहीं| इसीलिए प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने कश्मीरियों के मॅुंह में 24000 करोड़ रु. का रसगुल्ला रख दिया है| इस तरह के रसगुल्ले देवेगौड़ा और वाजपेयी जैसे प्रधानमंत्रियों ने भी रखे थे लेकिन सिरदर्द का इलाज तो दूर रहा, कश्मीरियों के मॅुंह का ज़ायका भी ठीक नहीं हुआ| डॉ. मनमोहनसिंह के भाषण के दौरान लगातार हल्ला होते रहने का हम कुछ मतलब भी निकालेंगे या नहीं? यह शोर टी.वी. पर नहीं दिखाया गया लेकिन आकाशवाणी पर बराबर सुना जाता रहा| इतने बड़े रसगुल्ले और इतने मधु-मिश्रित भाषण के बावजूद ऐसे अनवरत शोर ने प्रधानमंत्री के मनोबल पर क्या क़हर ढाया होगा, वे ही जानें| फौजों की सीमित वापसी और रोजगार के वादों के बावजूद कश्मीर में नई हवा का झोंका क्यों नहीं दिखाई पड़ रहा है? लगता है, प्रधानमंत्री ने कश्मीर के दरवाज़ों पर दस्तक तो दी लेकिन वे उन्हें न तो अंदर की तरफ खोल पाए और न बाहर की तरफ !
प्रधानमंत्री और गृहमंत्री की यात्राओं के बावजूद कश्मीर दुबारा बर्फ में जम गया है| अन्दरूनी दरवाजे बंद हो गए हैं| बाहरी दरवाज़े भी बन्द होने को हैं| मुशर्रफ के प्रस्तावों को श्रीनगर पहॅुंचकर रद्द करने में क्या तुक थी? अब तक जो रवैया अपनाया था, क्या वह बेहतर नहीं था कि जब प्रस्ताव औपचारिक रूप में आऍंगे, तब देखेंगे| पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के आने तक भी हम रुके न रह सके| शौकत अजीज की पहली भारत-यात्रा का मज़ा अभी से किरकिरा हो गया| मुशर्रफ ने औपचारिक प्रस्ताव तो आज तक नहीं रखे| वह तो केवल वैचारिक पतंगबाजी थी| हम भी दो-चार माह तक पतंगबाजी करते रह सकते थे| तब तक दक्षेस सम्मेलन भी हो जाता और गैस और तेल की पाइप-लाइनों की बातें भी आगे बढ़ जातीं लेकिन डॉ. मनमोहनसिंह के भाषण पर मुशर्रफ की प्रतिक्रिया से जाहिर हो गया है कि भारत-पाक वार्ता की रेल पटरी से नीचे उतरने को ही है| हमारा ताज़ा रवैया मुशर्रफ को कश्मीर में तो लोकपि्रयता दिलवाएगा ही, दुनिया में भी उन्हें हमसे बेहतर दिखने में मदद करेगा| यदि प्रधानमंत्री चाहते तो भारत के पुराने घिसे-पिटे और रटे-रटाए रवैए को दोहराने के बजाय भूखी मछलियों के आगे कुछ नया गुड़-चना उछाल सकते थे| वे कश्मीरियों से पूछ सकते थे कि मुशर्रफ की पतंगबाजी पर उनकी राय क्या है| दोनों तरफ के कश्मीरियों को इकट्ठे होने में ही कई माह लग जाते| वहॉं पहियों के अंदर कई पहिए हैं| यदि दोनों तरफ के कश्मीरी इकट्ठे हो जाते तो वे क्या एक राय बना सकते थे? कतई नहीं| अगर एक राय बना भी लेते तो क्या पाकिस्तानी फौजी-प्रतिष्ठान और मज़हबी गिरोह उस राय को मान लेते? इस प्रक्रिया की पनचक्की इतनी तेज चलती कि मुशर्रफ के प्रस्तावों का अपने आप आटा बन जाता| पता नहीं, प्रधानमंत्री ने शॉर्ट-कट क्यों मारा? कम से कम अपने विदेश नीति के पंडित नटवरसिंह से ही सलाह कर लेते? कॉंग्रेस सरकार यह शिकायता नहीं कर सकती कि उसके पास पाकिस्तान को जाननेवालों की कमी है| भाजपा-सरकार की मजबूरी थी| स्वयंसेवकों की पार्टी में विशेषज्ञों और विद्वानों का सदा टोटा रहता ही है| इसके बावजूद भाजपा-सरकार ने कुछ ऊॅंची लहरें उठाई थीं| कश्मीर के साथ भारत सरकार को बड़े मुनीम नहीं, बड़े नेता की तरह पेश आना होगा| अगर भारत लकीर का फकीर बना रहा तो उसकी थैली भी खाली हो जाएगी और सारी दुनिया में वह बुद्घू भी बजेगा| आशा की जानी चाहिए कि शौकत अजीज की यात्रा के दौरान भारत-सरकार थोड़ी कूटनीतिक चतुराई का परिचय देगी|
मक्सम्यूलर: विद्वानयामिश्नरी
जर्मन विद्वान फ्रेडरिख़ मक्सम्यूलर (1823-1900), जो खुद को मोक्षमूलर भट्ट कहा करते थे, अपने समय के सबसे बड़े संस्कृत विद्वानों में परिगणित थे| यह बड़ी बात है कि नीरद चौधरी जैसे आत्म-मुग्ध बुद्घिजीवी ने 1974 में मक्सम्यूलर की जीवनी लिखी थी| मक्सम्यूलर मूलत: जर्मन थे लेकिन 24 साल की छोटी उम्र से 77 साल की उम्र तक बि्रटेन में ही रहे और उन्होंने अंग्रेजों की तरह अंग्रेजी में ही गं्रथ लिखे| उनका जर्मन नाम मक्सम्यूलर बिगड़कर अंग्रेजी में मैक्समूलर हो गया| उनके पहले भी फ्रांस और जर्मनी में अनेक संस्कृत विद्वान हुए लेकिन जैसी ख्याति मक्सम्यूलर को मिली, किसी अन्य विद्वान को नहीं मिली लेकिन इधर किन्हीं ब्रह्मदत्त भारती की पुस्तक देखकर मैं दंग रह गया| उनकी पुस्तक ‘मक्सम्यूलर : ए लाइफलॉंग मस्करेड’ पढ़कर ऐसा लगा कि मक्सम्यूलर के बारे में हम जो जानते थे, वह सब बहिरंग था| उनका अंतरंग तो कुछ और ही था| बचपन में मैंने महर्षि दयानंद और मक्सम्यूलर का पत्र-व्यवहार पढ़ा था, जिसमें महर्षि ने उनके संस्कृत-ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह लगाया था और उन्हें सलाह दी थी कि वे लौकिक संस्कृत और वैदिक संस्कृत में अंतर करना सीखें| दयानंद की इस सीख के बावजूद मक्सम्यूलर की महत्ता की छाप मन पर बनी रही| इतना ही नहीं, मक्सम्यूलर के उपनिषद्रों के अनुवाद और ‘भारत से हम क्या सीखें’ पढ़कर उनके प्रति सहज आत्मीयता का विस्तार हुआ| मन कृतज्ञता से भी भरा लेकिन ब्रह्मदत्त भारती ने अपने पौने तीन सौ पृष्ठों के गं्रथ में यह लगभग सिद्घ कर दिया है कि (1.) मक्सम्यूलर मूलत: संस्कृत विद्वान कम, ईसाई मिश्नरी ज्यादा थे (2.) वे यास्क, पाणिनि और पतंजलि में पारंगत नहीं थे, जिसके बिना वेद-भाष्य करना असंभव है और उन्हें संस्कृत भी ठीक से नहीं आती थी| ये तीनों आरोप इतने गंभीर हैं कि इन्हें पढ़ते ही गहरा धक्का लगता है लेकिन ब्रह्मदत्त भारती ने 10 वर्ष के अनुसंधान के आधार पर जो पुस्तक लिखी है, उसे कैसे रद्द किया जाए| उन्हांने अपनी हर बात के लिए उद्घरण दिए हैं और पांडित्यपूर्ण प्रमाण जुटाए हैं| उन्होंने मक्सम्यूलर की पत्नी जिआरजिना द्वारा प्रकाशित (1902) उनके जीवन-चरित, उनके समकालीनों के संस्मरणों, बि्रटिश दस्तावेज़ों, मक्सम्यूलर के निजी पत्रों और कई अन्य गं्रथों के आधार पर जो सामग्री एकत्र्िात की है, वह एकतरफा होते हुए भी प्रमाणिक प्रतीत होती है| स्वयं ब्रह्मदत्त भारती कौन हैं, यह उनकी पुस्तक से पता नहीं चलता लेकिन यह स्पष्ट है कि इस पुस्तक के लेखन में उन्हें कम से कम पीएच.डी जितनी मेहनत तो करनी ही पड़ी होगी| भारत के प्राच्यविदों और संस्कृतज्ञों के लिए यह पुस्तक अपरिहार्य है| भारत के संस्कृतप्रेमी उनकी प्रामाणिक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करेंगे|
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