दैनिक भास्कर, 6 मई 2006 : प्रमोद महाजन का महत्व क्या था, इसका पता इसी बात से पता चलता है कि भाजपा के अध्यक्षराजनाथसिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी यात्रएं रद्द कर दीं और वे महाजन की अंत्योष्टि में उपस्थित हुए| प्रमोद केबिना भाजपा की कल्पना करना ही कठिन है| प्रमोद ने ऐसे-मौके पर दुनिया से कूच किया है जब भाजपा को उनकी सबसेज्यादा जरूरत थी| दो बूढ़े नेता लगभग अस्ताचलगामी हो गए हैं, उनके बाद के नेताओं में तलवारें खिंची हुई है, उमा भारती नेबगावत का झंडा फहरा दिया है शीर्ष नेतृत्व से संघ और विहिप खफा हैं, विचारधारा के स्तर पर जर्बदस्त विभ्रम फैला हुआ है, विपक्ष में रहने के कारण दान-दक्षिणा घट गई है और जिस गठबंधन के कारण भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी, वह भी ढीला पड़ गयाहै|
प्रमोद होते तो वे हर मोर्चे पर सकि्रय होते| वे अपनी खिचड़ी धीरे-धीरे पका रहे थे| वे जल्दी में नहीं थे| उन्हें शीर्ष पर पहुंचनेसे कोई रोक नहीं सकता था| उन्होंने भाजपा में अपने सभी प्रतिद्वद्वियों को पीछे छोड़ दिया था| यदि प्रमोद महाजन सचमुचरहते तो शीर्ष पर पहुंचते लेकिन तब भाजपा को एक नहीं, कई लोगों की बगावत का सामना करना पड़ता| भाजपा एक गहनअंदर्द्वद की आग में नहाती| व्यक्तियों में टक्कर होती| ये टक्करें विचारधारा का जामा पहनकर अपने साथ संघ और विहिपको भी घसीटतीं| भाजपा को आंतरिक महाभारत से गुजरना पड़ता| प्रमोद के प्रस्थान से यह महाभारत तो टल गया लेकिननेतृत्व का पिटारा दुबारा खुल गया| भाजपा के रजत जयंती अधिवेशन में भावी नेतृत्व की जो मुहर ‘लक्ष्मण‘ के नाम से लगी थी, वह अब पिघल चुकी है| शोक की वेला से उबरते ही भाजपा का यक्ष प्रश्न होगा कि अब प्रमोद के बाद कौन ?
अपना पूरा जीवन भाजपा के लिए झोंक देनेवाले अटलबिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी को उनके जीवन की इससांध्य-वेला में इससे बड़ा झटका क्या लग सकता था ? उन्होंने अपना उत्तराधिकारी जितनी आसानी से ढूंढ लिया था, क्या वेप्रमोद महाजन का उत्तराधिकारी भी उतनी आसानी से ढूंढ़ पाएंगे ? प्रमोद महाजन पेड़ों पर नहीं लगते, उन्हें रातों-रात गढ़ा नहींजा सकता| ऐसे नेता बनते-बनते ही बनते हैं|
महाजन भाजपा के कर्णधार सिर्फ इसलिए नहीं बने कि वे पार्टी के लिए पैसे का जुगाड़ करते थे| हर पार्टी को पैसा चाहिए| पैसा पैदा करने वाले लोग हमेशा ही बने रहते हैं, क्यों कि पैसा देने वाले हमेशा बने रहते हैं| भाजपा में अकेले प्रमोद ही पैसानहीं उगाहते थे| कई अन्य नेता भी इस काम में सिद्घहस्त रहे हैं| उन्हें अब थोड़ा परिश्रम अधिक करना पड़ेगा| प्रमोद कीविलक्षणता यह थी कि वे पैसा उगाहने के साथ-साथ प्रबंधन, भाषण नीति निर्माण और संप्रेषण में भी पटु थे| उन्हें जो काम सौंपदिया जाए, उसे अंजाम तक पहुंचाने में वे अपनी जान झोंक देते थे| चाहे राजस्थान और असम के चुनाव हों या राम मंदिर कीरथ-यात्र हो, वे अपनी छाप छोड़े बिना नहीं रहते थे| वे भाजपा में रहते हुए भाजपा से अलग थे| उनकी शैली अलग थी| उनकीबोली अलग थी| वे अटल और आडवाणी, दोनों के हमदम, अपने थे और दोनों के बीच सेतु भी थे| वे शिवसेना और भाजपा, संघ और भाजपा तथा भाजपा और अन्य 22 दलों के बीच जोड़क का काम करते रहे थे|
संसदीय कार्यमंत्री के नाते उन्हें अपूर्व सफलता मिली थी| वे भाजपा के लिए आडवाणी से भी अधिक अपरिहार्य बन गए थे| जिन्ना को लेकर भाजपा जैसे आडवाणी पर बरसी, पांच सितारा संस्कृति या शिवानी भटनागर की हत्या को लेकर वह प्रमोदमहाजन पर नहीं बरसी| यदि ‘इंडिया शाइनिंग‘ की शिकस्त के लिए प्रमोद की जगह कोई अन्य नेता होता तो उसकीराजनीतिक अंत्येष्टि आज से दो साल पहले ही हो जाती| प्रमोद भाजपा की मजबूरी वैसे ही बन गए, जैसे अटलजी बन गए थे| प्रमोद ने अपने दम-खम से भाजपा की संस्कृति ही बदल दी थी| इस अर्थ में प्रमोद एक तरफ थे और पारंपरिक भाजपा व संघदूसरी तरफ थे| प्रमोद 21 वीं सदी की भाजपा के सूर्य थे| यह सूर्य भरी दोपहरी में ही अस्त हो गया|
प्रमोद सिर्फ भाजपा ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति के नए रूझानों के दर्पण थे| वे विचार नहीं-कर्म, वे भक्ति नहीं-शक्ति, आदर्शनहीं-यथार्थ के उपासक थे| ऐसे लोग साधनों की पवित्र्ता का ज्यादा सम्मान नहीं करते| साध्य की प्राप्ति ही उनका लक्ष्य होताहै| वे विचारधारा के पचड़े में भी नहीं पड़ते| कौटिल्य के साम, दाम, दंड, भेद उनके सहज साधन होते हैं| अर्थ-शुचिता औरयौन-शुचिता उनके लिए बच्चों का खेल होती है| शक्ति के उपासक नेतागण तांत्रिकों की तरह शुभ-अशुभ, सत्र-असत्र औरगलत-सही की पहेलियों में भी नहीं उलझते| उनकी नजर अर्जुन की तरह सिर्फ मछली की आंख पर होती है|
आजकल सभी दलों और सभी नेताओं की आंखें कुर्सी पर लगी होती हैं| नेताओं के पास दो आंखे होती हैं| लेकिन प्रमोदमहाजन के पास तीसरी आंख भी थी| इसलिए वे भाजपा के बाहर भी आकर्षण के केंद्र बन गए थे| यदि वे अगले दस-बीससाल जीवित रहते तो शंका यह भी थी कि वे न सिर्फ भाजपा का कांग्रेसीकरण कर देते, बल्कि भारतीय राजनीति का भीअमेरिकीकरण कर देते| यह खतरा संघ और भाजपा के दूरंदेशी विचारक लोग बराबर महसूस कर रहे थे| इसलिए प्रमोद कीअचानक अनुपस्थिति यदि कुछ लोगों के लिए जबर्दस्त धक्का है तो कुछ लोगों के लिए ठंडी राहत भी है| प्रमोद की तरहराजीव गांधी, माधवराव सिधिंया, राजेश पायलट भी भरी दोपहरी में ही अस्त हुए| लेकिन प्रमोद का मामला बिल्कुल ही अलगहै| भाजपा की दूसरी कतार में आज भी प्रतिभाशाली और चरित्र्वान नेताओं की कमी नहीं है लेकिन प्रमोद जैसे भी थे, पहेलीथे| प्रमोद अगर शीर्ष पर पहुंचते तो पता नहीं क्या होता ? वे राष्ट्र के लिए प्रमोद भी सिद्घ हो सकते थे और प्रवीण भी|
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