NavBharat Times, 12 Jan 2005 : भारत सरकार ने तीसरा प्रवासी भारतीय सम्मेलन आयोजित किया, यह अपने आप में उपलब्धि है। इसे आयोजित न करने के दो बहाने हो सकते थे। एक तो यह कि यह प्रवासी सम्मेलन संघी दिमाग की उपज है और वे ही लोग पिछले कुछ दशकों से प्रवासियों में सक्रिय रहे हैं। प्रवासियों के बीच काँग्रेसी खास सक्रिय नहीं रहे हैं। अत: संघी एजेन्डे को हवा देने का काम काँग्रेस सरकार क्यों करे? दूसरा बहाना त्सूनामी तो था ही लेकिन मनमोहनसिंह सरकार की सराहना करनी होगी कि उसने मुम्बई-सम्मेलन को स्थगित नहीं किया। यदि वह उसे स्थगित कर देती या करती ही नहीं तो प्रवासियों के लिए बने स्वतंत्र मंत्रालय का क्या अर्थ रह जाता ?
आश्चर्य की बात है कि प्रवासी सम्मेलन की स्थापना करनेवाले पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी और उसके मुख्य अधिष्ठाता डॉ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी को साधारण निमंत्रण पत्र भी नहीं भेजा गया। यह गंभीर भूल है। यह वर्तमान सरकार की गरिमा को गिराती है। यह नीति प्रधानमंत्री के तौर पर डॉ मनमोहनसिंह के कद को छोटा करती है। यह नीति डॉ मनमोहनसिंह के स्वभाव से भी मेल नहीं खाती। प्रवासी भारतीयों का मुद्दा हमारी आंतरिक राजनीति की फ्ऎुटबाल बन जाए, यह देश के लिए हितकर नहीं है। भारत में हमारे राजनीतिक दलों का अनेक मुद्दों पर 36 का आँकड़ा रहता है लेकिन क्या प्रवासी भारत में भी हम इसी तऱ्ज पर काम करेंगे? जो चेहरे प्रवासियों के बीच सबसे अधिक पहचाने जाते हैं और जिन्हें किसी सरकार के टेके की जरुरत भी नहीं है, वे भी मुम्बई मेले में अनुपस्थित रहे।
वाजपेयी सरकार ने इस आयोजन के पहले जो कमेटी बनाई थी, उसमें काँग्रेस के अनुभवी नेता और पूर्व विदेश राज्य मंत्री रघुनंदनलाल भाटिया को रखा था और सम्मेलनों में सोनिया गाँधी, नटवरसिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को भी ससम्मान बुलाया था। अनेक गैर पार्टी सामाजिकों और बौद्बिकों ने भी पिछले सम्मेलनों में भाग लिया था। दस हजार रु का शुल्क भरकर कौन भारतीय ऐसे सम्मेलनों में भाग लेगा? शायद हमारी सरकार यह मानती है कि सारे प्रवासी मालदार हैं और सिर्फ् मालदार भारतीयों को ही इस तरह के सम्मेलनों में भाग लेना चाहिए। प्रवासी सम्मेलन को मालदारों का सम्मेलन बना देना कतई सही नहीं है। भारत के लगभग ढाई करोड़ प्रवासियों में से मुश्किल से 50 लाख लोगों को ही मालदार कहा जा सकता है। उनमें ज्यादातर लोग वे ही हैं, जो पिछले डेढ़-दो दशक में अमेरिका, यूरोप और जापान आदि देशों में व्यावसायिकों की तरह गए हैं। अच्छा तो यह हो कि भारत सरकार पिछले तीनों सम्मेलनों के आँकड़े पेश करे और यह बताए कि किन देशों से कौनसे प्रवासी आए? जाहिर है कि फीजी, मोरिशस, सूरिनाम, ट्रिनिडाड, गयाना जैसे देशों से काफ्ऎी कम लोग आए होंगे। जिन देशों के प्रवासी भारतीयों को हमारे सबसे अधिक समर्थन की जरुरत है, क्या हम उन पर उचित ध्यान दे रहे हैं ? खाड़ी के देशों, मलेशिया, बर्मा, श्रीलंका आदि में काम कर रहे भारतीय मजदूरों पर भी क्या कभी हमारा कृपा कटाक्ष होता है ? ये वे लोग हैं, जो सबसे अधिक विदेशी मुद्रा भेजते हैं।
जिन मालदार प्रवासियों से हम विनिवेश की आशा करते हैं, वे चीन, सिंगापुर, मध्य एशिया और लातीनी अमेरिका की तरQ दौड़े चले जाते हैं। क्या हमारी प्रवासी नीति भी उच्च वर्ग और उच्च जाति के घेरे में कैद होकर रह जाएगी ? प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और वित्तमंत्री चिदम्बरम के भाषणों की तान इसी बात पर टूटती रही कि `पैसा लाओ’ `पैसा लाओ’। जैसे पहले हमारे नेता पश्चिमी राष्ट्रों के आगे कटोरा Qलाते थे, अब वे प्रवासियों के आगे फ्ऎैलाते रहते हैं। क्या वजह है कि मुम्बई मेले में चिदम्बरम छाए रहे और पता ही नहीं चला कि विदेश मंत्री कहाँ रहे ? जकार्ता वे जरुर गए थे लेकिन सम्मेलन की रात वे लौट आए थे। नटवरसिंह की अनुपस्थिति समस्त उपस्थितों की उपस्थिति पर छाई रही। क्या यह विदेश मंत्रालय और प्रवासी मंत्रालय के बीच खिंची अदृश्य खाई का प्रमाण नहीं है ? यदि इन दोनों मंत्रालय में तलवारें खिंची रहेगी तो सरकार प्रवासियों का कल्याण कैसे करेगी ? जरुरत यह है कि विदेश मंत्रालय और प्रवासी मंत्रालय ही नहीं, शिक्षा, पर्यटन, उद्योग, वित्त, विज्ञान मंत्रालय आदि एक दूसरे से जमकर सहयोग करें। यदि ऐसा नहीं हो सकता तो प्रवासियों का मामला फ्ऎिर से विदेश मंत्रालय के ही हवाले क्यों न कर दिया जाए?
प्रवासियों को दोहरी नागरिकता देने की घोषणा तो पिछली सरकार कर ही चुकी थी। प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने उसका दायरा जरा बढ़ा दिया है। पिछली सरकार ने उन सोलह देशों के प्रवासी भारतीयों को दोहरी नागरिकता देने का कानून बनाया था, जिनमें दोहरी नागरिकता लेने की अनुमति पहले से है। ये सारे देश गोरे हैं, समृद्ब हैं और पश्चिमी खेमे के हैं। इन देशों में मुश्किल से 50 लाख प्रवासी रहते हैं और उनमें से ज्यादातर या तो मालदार हैं या ठीक-ठाक हैं। जबकि लगभग दो करोड़ प्रवासियों को दोहरी नागरिकता से वंचित रखा गया है। मनमोहनसिंह की घोषणा से इन दो करोड़ प्रवासियों को कोई लाभ नहीं होगा लेकिन यह जरुर है कि 16 देशों की सूची में स्पेन, नाइजीरिया, रुस और लेबनान जैसे नए देश जुड़ जाएंगे। सिर्फ्ऎ 26 जनवरी 1950 के बाद भारत के बाहर बसे लोगों को ही अगर दोहरी नागरिकता मिलेगी तो जिन्हें महात्मा गाँधी और भवानी दयाल `प्रवासी’ कहते थे, वे लोग तो हाथ ही मलते रह जाएँगे। यह जरुरी है कि प्रत्येक प्रवासी भारतीय को दोहरी नागरिकता की सुविधा मिले। इस लक्ष्य सिद्बि के लिए भारत को जबर्दस्त अन्तरराष्ट्रीय आंदोलन चलाना होगा। आंदोलन चलाना और सरकार चलाना, दो अलग-अलग चीजें हैं। हमारे राजनीतिक दलों में इतना दम गुर्दा ही नहीं है कि वे देश में आंदोलन चला सकें तो विदेशों में वे क्या चलाएँगे? भारतीय मूल के प्रधानमंत्रियों का तख्ता पलट हो जाता है, भारतीय मूल के नागरिकों को देश निकाला दे दिया जाता है, भारतीय मूल के लोगों के साथ पशुतुल्य बर्ताव किया जाता है और हमारी सरकारों के मॅुंह में दही जमा रहता है। यह जड़ता आखिर कब टूटेगी ? इसे कौन तोड़ेगा ? भारतमाता की संतानों के आगे हम केवल कटोरा फ्ऎैलाते रहेंगे या कभी उन पर हम छाता भी फ्ऎैलाएंॅगे ? हमें अपनी प्रवासी नीति पर पुनर्विचार की सख्त जरुरत है।
सर्वप्रथम, आवश्यक यह है कि भारत की प्रवासी नीति को निर्ग्रंंथ बनाया जाए। उसे उच्चवर्ग और उच्चवर्ग की गं्रथियों से मुक्त किया जाए। भारतमाता का हृदय उसके उन सपूतों के लिए भी पिघलना चाहिए, जो गरीब हैं, ग्रामीण हैं और जो हाड़-तोड़ मजूरी के लिए डेढ़-सौ साल पहले परदेस ले जाए गए थे। उन्हें अपनी संस्कृति, भाषा और परम्परा की सर्वाधिक चिन्ता है। यह चिंता भारत-सरकार के प्रवासी सम्मेलनों में सदा लापता रहती है। अंग्रेजी में चलनेवाले ये सम्मेलन जिस शान-शौकत से सम्पन्न होते हैं, उनका संदेश केवल यही होता है कि यह मालदारों का जमावड़ा है। हम अपने प्रवासियों को भारतीय बनाने की बजाय अजनबी बनाने पर तुले हुए हैं। राजेंद्रसिंह के हिंदी भाषण पर सेम पित्रोदा का माफ्ऎी माँगना इसी बीमारी का ठोस प्रमाण है। हमारी सरकार अपनी भाषाओं और अपने सहज संस्कारों के सेतुओं को सुदृढ़ बनाने पर ध्यान नहीं देती। वह भारत और प्रवासियों के बीच संस्कृति का नहीं, डॉलर का चमचमाता हुआ पुल बाँधना चाहती है। डॉलरवाले नव-प्रवासियों और उच्च भारतवासियों की यह साँठ गाँठ शुद्ब निजी वर्ग स्वार्थ पर आधारित है। यह अंग्रेजों की गुलामी का नया संस्करण है। इसमें वह नाभि-नाल संबंध कहाँ, जो माँ और बच्चे के बीच होता है? भारत को वास्तविक महाशक्ति बनाने के लिए प्रवासी शक्ति का जुड़ाव नितान्त आवश्यक है लेकिन जुड़ाव की जो प्रक्रिया अभी चल रही है, उसमें वह भक्ति-भाव कहाँ है, जिसकी आधार शिला पर महान राष्ट्रों के भव्य भवन खड़े किए जाते हैं।
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