नवभारत टाइम्स, 17 अप्रैल 2007 : पि्रयंका और उमर की शादी को लेकर इतना हंगामा क्यों है, समझ में नहीं आता| दोनों वयस्क हैं, दोनों ने स्वेच्छा से शादी की है, दोनों ने अपने-अपने दबावों को रद्द कर दिया है| अदालत ने भी दोनों की शादी पर मुहर लगा दी है| यह शादी पूरी तरह वैधानिक है| तो हंगामा किसलिए है? क्या इसलिए कि यह अनैतिक है? इसमें अनीति क्या है?
सबसे पहले बजरंग दल को लें| बजरंग दल का तर्क क्या है? उसका तर्क यह है कि एक मुसलमान लड़के ने हिंदू लड़की से शादी क्यों की? मुसलमानों का तो यही काम है कि वे हिंदू लड़कियों को भगाएँ, शादी करें और मुसलमानों की संख्या बढ़ाएँ| ये दोनों तर्क गलत हैं| पि्रयंका ने उमर से जब शादी की तो उमर मुसलमान नहीं रह गया| वह हिंदू हो गया| ‘उमेश’ बन गया| बजरंग दल को तो इस शादी का जबर्दस्त स्वागत करना चाहिए था| एक हिंदू बढ़ा| जहाँ तक लड़की भगाने का सवाल है, इस मामले में उल्टा हुआ-सा लगता है| लड़की नहीं, लड़का भागा| लड़के ने भागकर अपनी ‘शुद्घि’ करवाई| धर्म-परिवर्तन करवाया| लड़की के खातिर कुर्बानी की| लड़की को भगाया गया होता तो क्या वह अदालत में हाजिर हो सकती थी? क्या वह टीवी चैनलों और अखबारों के हाथ आ सकती थी? क्या वह अपनी बात करोड़ों लोगों के सामने धड़ल्ले से रख सकती थी? अगर हिंदू लड़की उड़ाने की यह कोई इस्लामी साजिश होती तो इस शादी से मुल्ला
-मौलवी बौखलाए हुए क्यों हैं? वे इस शादी के खिलाफ फतवे क्यों जारी कर रहें हैं? वे उमर (उमेश) को धमका क्यों रहे हैं?
कुछ लोग यह सवाल भी उठाते हैं कि इस तरह की शादियों में अक्सर लड़की हिंदू और लड़का मुसलमान ही क्यों होता है? लड़की मुसलमान क्यों नहीं होती? और क्या यह भी ठीक नहीं कि लगभग शत्र प्रतिशत्र हिंदू लड़कियाँ मुसलमान लड़के से शादी के बाद मुसलमान बन जाती हैं? ये दोनों प्रश्न सही हैं और ये तथ्य भी ठीक हैं लेकिन क्या इनकी सांप्रदायिक व्याख्या ही एक मात्र् व्याख्या है? क्या यह सत्य नहीं कि मुस्लिम लड़कियाँ अक्सर दड़बे में बंद होती हैं? उन्हें उच्च-शिक्षा, संपन्नता और स्वतंत्र्ता का वातावरण ही नसीब नहीं होता| उनके मुकाबले मुसलमान लड़कों केा अपेक्षाकृत अधिक शिक्षा और अधिक आज़ादी मिलती है| वे हिंदू लड़कियों की तरफ आकृष्ट होते हैं| यहाँ मामला सांप्रदायिक नहीं है, सामाजिक है| समान शील व्यसनेषु सख्यम्र! एक जैसे लोगों में दोस्ती जल्दी होती है| कुछ लोगों को राजनीतिक दृष्टि से यह आपित्तजनक लग सकता है लेकिन मानवीय दृष्टि से इस पर आपित्त कैसे की जाए? कल इसका उलट भी हो सकता है| मुसलमान लड़कियाँ जब बड़े पैमाने पर सुशिक्षित होंगी तो उन्हें मज़हब के दड़वे में बंद रखना असंभव हो जाएगा|
मजे़दार बात यह है कि इस शादी से जितने मुल्ला-मौलवी खफा हैं, उतने ही पोंगा-पंडित खफा हैं| पोंगा-पंडितों का तर्क है कि उमर से उमेश बनना तो धोखा है| कानून की नज़र में धूल झोंकना है| हवन करना और सात फेरे पड़ना भी कोरा दिखावा है| उमर तो फिर उमर हो जाएगा लेकिन पि्रंयका, फिर पि्रंयका नहीं रह पाएगी| उसे आयशा या परवीना बन जाना पडे़गा| मान लें कि ऐसा ही हो जाए तो भी इसमें अनैतिकता क्या है? दोनों को यह तय करने की आजा़दी क्यों नहीं होनी चाहिए कि वे क्या करना चाहते हैं? उनके पास तीन विकल्प हैं| एक तो वह, जो अभी है याने दोनों हिंदू रहें| दूसरा, दोनों मुसलमान हो जाएँ| तीसरा, पि्रयंका हिंदू रहे और उमर मुसलमान रहे| अगर ये तीनों विकल्प बिना किसी भय या प्रलोभन के आजमाए जाएँ तो इसमें कौनसी अनैतिकता है? इन तीनों विकल्पों में एक सूत्र् समान है| वह यह कि दोनों निष्ठावान पति-पत्नी रहें| यही सबसे महत्वपूर्ण तत्व है| यही तात्विक है, शेष सब गौण है| यही रस है, सार है, गूदा है, बाकी सब गुठली है, थोथा है, छिलका है| मज़हब और जात कोरी गुठलियाँ हैं, यह पि्रयंका और उमर ने सिद्घ कर दिया है|
इस दृष्टि से तीसरा विकल्प सर्वश्रेष्ठ है याने पि्रयंका हिंदू बनी रहे और उमर मुसलमान! दोनों अपनी-अपनी परम्परा क्यों छोडें़? दोनों में से किसी को भी शुद्घि की क्या जरूरत है? क्या प्रेम से बड़ा कोई साबुन दुनिया में आज़ाद तक इज़ाद हुआ है? यह इंसानों क्या, मज़हबों की गंदगी को भी धो डालता है| जो प्रेम की आग में शुद्घ हुए हैं, उन्हें मज़हबों की भटिठयों में दुबारा गिराने की क्या जरूरत है? एक ही परिवार में जब हिंदू और मुसलमान, ब्राह्मण और शूद्र तथा कश्मीरी और मलयाली रहेंगे तो आप ही सोचिए कि उसमें क्या-क्या चीजें बचेंगी और क्या-क्या खत्म होंगी? वे सब चीजें खत्म हो जाएँगी, जो विग्रह पैदा करेंगी और वे सब बच जाएँगी, जो जोड़ेंगी| जीवन की चक्की में पिसकर मज़हबों और जातियों का सारा भूसा साफ़ हो जाएगा| अगर आप जानना चाहें कि सारे मज़हबों में कितना भूसा भरा हुआ है तो स्वामी दयानंद, का ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पढ़ें| सदियों से जमा कूड़ा-कर्कट साफ़ करने की सबसे सरल विधि अन्तरधार्मिक और अन्तरजातीय विवाह ही हैं| यदि पि्रयंका और उमर की तरह भारत में 10 करोड़ जोड़े खड़े हो जाएँ तो क्या यहाँ साम्प्रदायिकता और जातिवाद बच रहेंगे? उन्हें अपना मुँह छिपाने की जगह तक नहीं मिलेगी| हम नए भारत के निर्माण की दहलीज पर खडे़ होंगे| यह काम 10-20 बरस या 100-200 बरस में पूरा नहीं होगा| अगर हो जाए तो वह क्रांतियों की क्रांति होगी| महाक्रांति होगी| जो कूड़ा सदियों से जमा हो रहा है, वह पलक झपकते ही साफ़ नहीं होनेवाला है लेकिन 22वीं सदी के भारत के पदचाप अभी से सुनाई पड़ने लगे हैं|
जिस एकात्म भारत की कल्पना मैं कर रहा हुँ, उसके अनुपम बीज-दृश्य मैंने अंडमान-निकोबार तथा सूरिनाम और टि्रनिडाड में अपनी आँखों से देखे हैं| ऐसे कई परिवारों में जाने का मौका मुझे मिला है, जिनमें पति हिंदू है, पत्नी मुसलमान है, सास ईसाई और ससुर हिंदू है| बच्चे मंदिर, मस्जिद और चर्च तीनों में जाते हैं| कहीं कोई वैमनस्य, ताअस्सुब या दुराव नहीं है| परिवार के सारे सदस्य प्रेम की मजबूत डोर से बँधे हुए हैं| यहाँ इन्सान होना बड़ी बात है, मुसलमान होना, हिंदू होना या ईसाई होना नहीं! ये मज़हब तभी तक मज़हब, हैं तभी तक धर्म हैं, और तभी तक पवित्र् हैं, जब तक कि वे किसी इन्सान को बेहतर इन्सान बनना सिखाते हैं| इसके आगे वे शुद्घ राजनीति हैं| राजनीति से भी बुरे हैं| इसीलिए जो मज़हब की राजनीति करते हैं, उनके लिए पि्रयंका और उमर बड़ा खतरा हैं| वे चाहेंगे कि ऐसी शादियाँ टूट जाएँ| अगर ऐसी शादियाँ अपने ही किसी बोझ से या आपसी ताल-मेल की कमी से टूटती हैं तो और बात है, वरना इनका टूटना और भारत का टूटना एक-दूसरे के पर्याय बन जाएँगे|
यदि कोई बहुधर्मीय, बहुजातीय और बहुभाषी परिवार इस देश में एकात्म होकर नहीं रह सकता तो यह भारत एकात्म राष्ट्र बनकर कैसे रह सकता है? यदि लोकतांत्र्िक सहिष्णुता के विराट्र प्रयोग को हम राष्ट्रीय स्तर पर सफल होता देखना चाहते हैं तो पहले उसे परिवार नाम की प्रथम प्रयोगशाला में सफल होने दें| यदि परस्पर विरोधी विचारधाराओं और कार्यक्रमों वाले राजनीतिक दल और नेतागण एक ही संसद और सरकार के सदस्य हो सकते हैं तो विभिन्न धर्मो और जातियों के स्त्र्ी-पुरूष एक ही परिवार के सदस्य क्यों नहीं हो सकते?
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