Naya India, 29 sept 2011 : फलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने कबूतरों के पिंजरे में बिल्ली छोड़ दी है। उन्होंने वह काम कर दिखाया है, जो यासर अराफात जैसे चमत्कारी नेता भी नहीं कर सके। अब्बास ने संयुक्तराष्ट्र महासचिव बान-की-मून को एक औपचारिक अर्जी दे दी है और फलस्तीन को पूर्ण सदस्य बनाने का अनुरोध कर दिया है। पूर्ण सदस्य बनने का अर्थ है, पूर्ण संप्रभु राज्य की तरह मान्य हो जाना। अभी फलस्तीन के पास भूमि है, जनता है, सरकार है लेकिन संप्रभुता नहीं है। वह देश के अंदर और बाहर सर्वोच्च नहीं है। उसकी स्थिति किसी कामचलाऊ राज्य की तरह है। 1948 में इस्राइल बना, तब से अब तक इस फलस्तीनी क्षेत्र की स्थिति लगातार बदतर ही होती गई है। 1967 के अरब-इस्राइल युद्ध के दौरान फलस्तीन के एक बड़े हिस्से पर भी इस्राइल ने कब्जा कर लिया था।
इस्राइल बिल्कुल नहीं चाहता कि फलस्तीन बकायदा एक राज्य की तरह उसके पड़ौस में स्थापित हो जाए। उसे डर है कि वह इस्राइल को खत्म करने की हरचंद कोशिश करेगा। इस्राइल को यह डर इसलिए है कि उसे फलस्तीनी जमीन पर ही बसा दिया गया था। फलस्तीन के लोगों ने अभी तक इस्राइल को मान्यता नहीं दी है। फलस्तीन के गाजा क्षेत्र में राज करनेवाली फलस्तीनियों की पार्टी ‘हमास’ तो खुले-आम कहती है कि वह इस्राइल का समूलोच्छेद करना चाहती है। उसकी ओर से इस्राइल पर लगातार छुट-पुट हमले भी होते रहते हैं। इस्राइल के पक्ष में अमेरिका ने कई बार वीटो प्रयोग किया है और वह ही उसे हर तरह से प्राणवायु प्रदान करता रहता है। अमेरिका में यहूदियों का प्रभाव इतना ज्यादा है कि कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति इस्राइल को आंखें नहीं दिखा सकता।
इस पृष्ठभूमि में अब्बास की पहल एक अजूबा-सी बन गई है। अब्बास को नरम और पश्चिमपरस्त नेता माना जाता है। उनका ‘फलस्तीनी प्राधिकरण’ पश्चिमी पैसे के दम पर जिंदा है। कोई सोच भी नहीं सकता था कि अब्बास फलस्तीन को इस्राइल के मुकाबले इस तरह खड़ा कर देंगे। जाहिर है कि अमेरिका अब्बास के इस प्रस्ताव का विरोध करेगा। ओबामा ने इसका स्पष्ट संकेत दे दिया है। किसी भी राष्ट्र को नया सदस्य बनाने के लिए यह जरूरी है कि सुरक्षा परिषद में उसके विरूद्ध वीटो न हो। अमेरिका वीटो करेगा। यदि शेष सभी राष्ट्र भी उसका समर्थन कर दें तो भी वह सदस्य नहीं बन सकता। इस समय इस्राइल का कानूनी दर्जा ‘पर्यवेक्षक इकाई’ का है। अब ज्यादा से ज्यादा यही हो सकता है कि महासचिव सारे मामले को संयुक्तराष्ट्र महासभा को भेज दें। उसे अधिकार है कि वह फलस्तीन को ‘पर्यवेक्षक राज्य’ का दर्जा दे दे। यह दर्जा वहीं होगा, जो ‘वेटिकन’ का है।
इस दर्जे को भी शुभारंभ ही माना जाएगा। इससे पूर्ण सदस्यता का रास्ता खुलेगा और संयुक्तराष्ट्र के कई उपसंगठनों में भी फलस्तीन को स्थान मिलेगा। पहले कलाई पकड़ें, फिर हाथ तो अपने आप ही हाथ आ जाएगा। जाहिर है कि ‘महासभा’ के 193 सदस्यों पर अमेरिका का जादू चलनेवाला नहीं है। उसके दो-तिहाई सदस्य फलस्तीन का समर्थन करने में देर नहीं लगाएंगें। यहां तक कि फ्रांस और ब्रिटेन को भी अमेरिका नहीं रोक पाएगा। यूरोपीय संघ के लगभग सभी देश फलस्तीन का साथ देंगे। मिस्र और सउदी अरब जैसे देश जो सदा अमेरिका की हॉं में हॉं मिलाते नहीं थकते थे, वे अब फलस्तीन का समर्थन कर रहे हैं। तुर्की को पिछले दिनों इस्राइल ने इतना नाराज़ कर दिया है कि नाटो का सक्रिय सदस्य होने के बावजूद वह फलस्तीन का समर्थन करेगा। भारत, रूस और चीन जैसे देश तो फलस्तीन के साथ हैं ही।
अब्बास की यह पहल पूरी तरह सफल न हो तो भी अमेरिकी प्रतिष्ठा को काफी धक्का लगेगा। सारी दुनिया के सामने यह तथ्य उजागर हो जाएगा कि अमेरिका ईमानदार मध्यस्थ नहीं है। ओबामा प्रशासन ने फलस्तीन के भविष्य के बारे में लंबे-चौड़े वायदे किए थे लेकिन उसकी तराजू आखिरकार इस्राइल के पक्ष में ही झुकती नज़र आ रही है। वह इस्राइल को पटरी पर लाने में असमर्थ रहा है। दूसरी बात, जो अमेरिका की छवि को ठेस पहुंचाएगी, वह यह है कि वह एक ओर तो ट्यूनीसिया, मिस्र, सीरिया और लीब्या के जन-आंदोलनों का पुरोधा बन रहा है और दूसरी ओर वह फलस्तीन पर हो रहे इस्राइली अत्याचारों पर चुप्पी लगाए बैठा है। इसके अलावा वह पश्चिम एशिया तथा अन्य क्षेत्रों में भी अपने समर्थकों की नजरों में गिरता चला जा रहा है।
इस मामले में अमेरिकी और इस्राइली दृष्टिकोण को भी समझने की जरूरत है। इन दोनों देशों में ऐसे अनेक प्रमुख लोग हैं, जो यह तो चाहते हैं कि फलस्तीनियों का एक स्वतंत्र राज्य बन जाए लेकिन उनकी मान्यता यह है कि यदि ऐसा राज्य इस्राइल की सहमति के बिना बनेगा तो वह वास्तव में बन ही नहीं पाएगा। मानो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और महासभा ने फलस्तीन राज्य के पक्ष में प्रस्ताव पारित कर दिया तो क्या हो जाएगा? क्या संयुक्तराष्ट्र के पास जादू की कोई ऐसी छड़ी है, जिसके घुमाने से फलस्तीनियों को जमीन के वे बड़े-बड़े टुकड़े वापस मिल जाएंगें, जो 1967 के युद्ध में इस्राइल ने हड़प लिये थे ? क्या लाखों फलस्तीनी शरणार्थी वापस लौट पाएंगें ? क्या फलस्तीनी ज़मीनों पर बनी नई-नई यहूदी बस्तियों के तोड़ने के लिए इस्राइल तैयार हो जाएगा? क्या यरूशलम को सांझी राजधानी बनाने के लिए दोनों तैयार हो जाएंगें? क्या दोनों एक-दूसरे को सुरक्षा की गारंटी देंगे? क्या इस्राइल में बचे हुए अरबों को अभय-वचन मिलेगा ? ये सारे काम संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव भर से संपन्न नहीं होंगे। वह प्रस्ताव तो कागज़ का टुकड़ा बनकर रह जाएगा। यदि प्रस्ताव से ही राज्य का निर्माण हो सकता होता तो वह 1947 में ही हो जाता जबकि संयुक्तराष्ट्र ने फलस्तीनी ज़मीन पर दो-राष्ट्रों को स्थापित करने का प्रस्ताव पारित किया था। 1974 में पारित प्रस्ताव (3236) में फलस्तीन की ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता और संप्रभुता’ को मान्यता दी गई थी लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।
अमेरिका और इस्राइल कहते हैं कि पहले इस्राइल और फलस्तीन में समझौता हो और फिर संयुक्तराष्ट्र का प्रस्ताव हो याने विवाद यही है कि पहले मुर्गी हो या पहले अंडा? इस्राइल कहता है कि हम तब तक बात नहीं करेंगे जब तक नरम और गरम (हमास), दोनों फलस्तीनी हमें मान्यता न दें और अब्बास और हमास कहते हैं कि पहले इस्राइल हमारी जमीन खाली करे, यहूदी बस्तियॉं हटाएं और मान्यता दे, तभी हम बात करेंगे। यदि संयुक्तराष्ट्र ने इस साल फलस्तीन को ‘पर्यवेक्षक राज्य’ का दर्जा दे दिया तो दोनों पक्षों के थोड़ा-थोड़ा नरम पड़ने की आशा है। उसके बाद फलस्तीनियों का आत्मविश्वास जरा तेजी से बढ़ेगा, और उग्रवादी हमास के मुकाबले अब्बास की वैधता मजबूत होगी। उधर इस्राइल को भी पता चलेगा कि फिजूल अकड़ना ठीक नहीं है। आखिर अकेला अमेरिका उसका साथ कब तक देगा? ऐसी स्थिति में आज बेहतर यही होगा कि संयुक्तराष्ट्र-प्रक्रिया के पूरे होते ही दोनों पक्ष आपसी बातचीत शुरू करें। प्रस्ताव बातचीत को आगे बढ़ाए और बातचीत प्रस्ताव को आगे बढ़ाए!
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