राष्ट्रीय सहारा, 20 सितंबर 2010 : इस्राइल और फलस्तीन के बीच आजकल जो बात चल रही है, वह तलवार की धार पर चलने से कम नहीं है| यह तो स्पष्ट है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा पहल नहीं करते तो यह संवाद संभव ही नहीं होता| पिछले साल गाजा पट्रटी में हमास और इस्राइल की सरकार ने इतनी तगड़ी धींगामुश्ती की कि लगभग डेढ़ हजार लोग मारे गए और हजारों घर बर्बाद हो गए| ओबामा के दबाव में आकर अब इस्राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू और फलस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास आपस में बात कर रहे हैं| उनकी बातचीत के दौरान अमेरिकी की विदेश मंत्री हिलैरी क्लिंटन और ओबामा के विशेष दूत जार्ज मिशेल भी उपस्थित रहते हैं| बातचीत का पहला दौर मिस्र के शर्म-अल-शेख में हुआ और दूसरा यरूशलम में चल रहा है| यह बातचीत यदि भंग नहीं हुई तो हर पखवाड़े हुआ करेगी| इस संवाद का स्वागत कौन नहीं करना चाहेगा लेकिन बेहतर हो कि हम उसके मार्ग के रोड़ों को जानें और उन मुद्दों पर भी गौर करें, जो इस संवाद की आत्मा हैं|
इस संवाद का केंद्रीय मुद्दा यह है कि फलस्तीनियों को अपना स्वतंत्र् और सार्वभौम राज्य मिले तथा इस्राइल को राष्ट्र-राज्य के तौर पर फलस्तीनी स्पष्ट मान्यता दें| 1948 से इस्राइल चला आ रहा है, एक सुद्दढ़ और शक्तिशाली राज्य की तरह लेकिन वह अब भी यह महसूस करता है कि अगर उसने ज़रा भी ढील दे दी तो अरब राष्ट्रों की मदद से फलस्तीनी उस पर चढ़ बैठेगे| वे उस अरब भूमि से यहूदियों को बाहर खदेड़ देंगे| इसलिए इस्राइल सतत युद्घ की मुद्रा में रहता है| उसने फलस्तीनियों पर ही नहीं, मिस्र, जोर्डन, सीरिया आदि देशों पर भी जबर्दस्त हमले किए हैं| वह ईरान से भी लड़ने को तैयार बैठा है| वह ईंट का जवाब पत्थर से देता है| इस्राइल की इस गहन असुरक्षा का उत्तर राष्ट्रपति अब्बास ने रचनात्मक ढंग से देने का वादा किया है| यों भी 1988 में फलस्तीनी मुक्ति मोर्चे के विश्व-प्रसिद्घ नेता यासर अराफात ने खुले-आम घोषणा की थी कि वे 1967 के पहले के इस्राइल को स्वीकार करते हैं| 1967 के युद्घ में इस्राइल ने फलस्तीन की जमीन छीनकर अपना आकार सवाया कर लिया था| यह कब्जाई हुई पश्चिमी तट की नई ज़मीन ही आज के विवाद की असली जड़ है| इसमें लगभग 15 लाख फलस्तीनी रहते हैं| इस ज़मीन पर इस्राइल की सरकारें लगातार यहूदियों को बसाती जा रही हैं| अब्बास मांग कर रहे हैं कि अगले 30 सितंबर को खत्म होनेवाला प्रतिबंध आगे बढ़ाया जाए ताकि नई यहूदी बस्तियां न बनाई जाएं|
हो सकता है कि प्रधानमंत्री नेतनयाहू अब्बास की इस मांग को मान लें| अन्यथा वार्ता भंग हो जाएगी| यों भी जो प्रतिबंध आजकल घोषित है, उसे पूरी तरह कौन मान रहा है| अमेरिका के मालदार यहूदी पश्चिमी तट पर नई-नई बस्तियां बनाने के लिए लाखों डॉलर हर साल भेज रहे हैं| वे चाहते हैं कि जोर्डन नदी का पश्चिमी-तट हमेशा के लिए इस्राइल का अटूट अंग बन जाए| चाहे बड़े-बड़े नए मकान न बन रहे हों, लेकिन सारी दुनिया को पता है कि नई बस्तियां बनाने के लिए इस्राइल की सरकार और गैर-सरकारी संस्थाएं सारा ढांचा बाकायदा तैयार कर रही हैं| जो भी प्रतिबंध हैं, उनका महत्व तो तात्कालिक है| असली मुद्दा यह है कि इस्राइल अपनी 1967 की मूल सीमाओं में लौटने को तैयार होगा या नहीं|
दूसरा मुद्दा यह है कि 1948 के बाद निरंतर होनेवाले युद्घों में जो लाखों शरणार्थी फलस्तीन और इस्राइल से भागकर दूसरे देशों में जा बसे हैं या अब भी तंबुओं में रह रहे हैं, उन्हें वापस अपने घरबार में लौटने की सुविधा मिलेगी या नहीं ? लौटने पर उनकी हैसियत क्या होगी ? उनके मूलभूत अधिकार क्या वहीं होंगे, जो इस्राइल में बसे हुए यहूदियों के हैं ? तीसरा मुद्दा भी इसी से जुड़ा हुआ है| वह है, इस्राइल के वर्तमान गैर-यहूदी नागरिकों का| इस्राइल में आज भी 10-15 लाख गैर-यहूदी नागरिक रहते हैं| वे ईसाई और मुसलमान हैं| कागज़ पर उन्हें पूरे अधिकार हैं लेकिन असलियत में वे दोयम दर्जे के नागरिक हैं| राजनीति, प्रशासन, व्यापार, शिक्षा आदि क्षेत्रें में उनका स्थान नगण्य है| वे प्राय: संशकित और भयभीत रहते हैं| चौथा मुद्दा भी कम महत्वपूर्ण नहीं है| वह है, यरूशलम को साझा राजधानी बनाने का| यरूशलम जितना यहूदियों का पि्रय है, उतना ही ईसाइयों और मुसलमानों का भी| उसे लेकर कई लड़ाइयां लड़ी जा चुकी हैं|
ऐसा नहीं लगता कि नेतनयाहू और अब्बास के इस संवाद में ये सभी मुद्दे एक झटके में हल हो जाएंगे| इसके कई कारण हैं| दोनों ही नेता हिलती-डुलती कुर्सी पर विराजमान हैं| नेतनयाहू की गठबंधन सरकार कई उग्रवादी तत्वों के टेके पर टिकी हुई है| यदि वे ज्यादा झुकते हुए दिखाई पड़े तो उनकी सरकार गिर भी सकती है| इस्राइल में अतिवाद का असर इतना ज्यादा है कि फलस्तीनियों को रियायत देनेवाले बड़े से बड़े नेताओं की हत्या कर दी जाती है| दूसरी ओर राष्ट्रपति अब्बास अब नाम मात्र् के राष्ट्रपति रह गए हैं| 2006 के आम चुनाव में हमास को 132 में 74 सीटें मिली थीं| जन-समर्थन हमास के पास है और बात चला रहे हैं, अब्बास ! हमास और इस्राइल के लड़ाकों में अब भी लगभग रोज़ ही बमबारी होती रहती है| यदि अब्बास ने कोई समझौता कर भी लिया तो वे उसे लागू कैसे करेंगे ? क्या ही अच्छा होता कि इस संवाद में अब्बास के साथ-साथ हमास को भी जोड़ लिया जाता ! क्या हमास के बिना फलस्तीन में कोई समझौता हो सकता है ?
अभी इस्राइल के साथ-साथ फलस्तीन नामक राज्य के अविर्भाव की परिस्थितियां तैयार नहीं हुई हैं लेकिन यदि इन दोनों पक्षों के बीच नियमित संवाद चलता रहे तो आशा जरूर होती है कि किसी न किसी दिन ऐसा हल जरूर निकल आएगा जो फलस्तीनियों और यहूदियों, दोनों को स्वीकार्य होगा| अमेरिका तथा इस क्षेत्र् के पड़ौसी राष्ट्रों का रवैया जितना रचनात्मक है, उसके मुकाबले दोनों पक्षों के अंदरूनी तत्वों में कोई खास ताल-मेल दिखाई नहीं पड़ रहा है| इस ताल-मेल के बिना अगर बाहरी शक्तियों ने कोई समझौता थोप भी दिया तो वह कितने दिन चलेगा ?
(लेखक, भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
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