दैनिक भास्कर, 3 अप्रैल, 2005: पकिस्तान को एफ-16 विमान देने की घोषणा अमेरिका ने बहुत गलत मौके पर की है| यदि यह घोषणा अब से चार हफ्ते बाद होती तो इसका असर इतना बुरा नहीं होता| तब तक जनरल मुशर्रफ भारत आकर चले जाते और अभी भारत आए हुए चौधरी शुजात हुसैन भी असमंजस में नहीं पड़ते| सत्तारूढ़ मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चौधरी शुजात का आधा समय इसी सफाई में बीत रहा है कि पाकिस्तान ने एफ-16 क्यों खरीदे हैं| एफ-16 युद्घक विमानों के कारण अब क्रिकेट मेच, मुशर्रफ की यात्रा, दोनों देशों के लोगों की सद्रभावना-यात्राओं तथा शांति-संवाद आदि पर संदेह न सही, संकोच के बादल जरूर छा जाएंगे|
आखिर अमेरिका की ऐसी कौनसी मजबूरी थी कि उसे यह घोषणा करनी पड़ी? यह तो जाहिर है कि पाकिस्तान में इतना दम नहीं है कि वह अमेरिका को मजबूर कर सके| पाकिस्तान ने 1990 में इन विमानों की कीमत का भुगतान कर दिया था लेकिन इसके बावजूद अमेरिकी कॉंग्रेस ने विमान देने पर रोक लगा दी थी, क्योंकि उस समय अमेरिकियों को यह शक हो गया था कि पाकिस्तान परमाणु बम बना रहा है| इसके अलावा एक तरफ तालिबान की सक्रिय मदद और दूसरी तरफ कश्मीरी आतंकवाद को दिए गए प्रोत्साहन के कारण भी एफ-16 की सप्लाय हवा में लटकी रही| यह ठीक है कि अब तालिबान पर पाकिस्तान ने शीर्षासन की मुद्रा धारण कर ली है और कश्मीरी आतंकवाद से भी खुद को अलग करने का वह दावा कर रहा है लेकिन आजकल वह इनसे भी गहरे आरोपों और संदेहों के घेरे में है| दुनिया के अनेक देशों को परमाणु बम की तकनीक बेचने और उसामा बिन लादने को छिपाए रखने के आरोप उस पर लग रहे हैं| लोकतंत्र की दाल तो वहांॅ अब भी पतली ही है| फौजी शिकंजा लगातार कसता चला जा रहा है| इसके बावजूद अमेरिका ने एफ-16 विमान देने की घोषणा की है तो उसके पीछे कोई गंभीर कारण होना चाहिए| कारण की गंभीरता इस तथ्य से भी बढ़ जाती है कि अमेरिका भारत-पाक मैत्री चाहता है और मैत्री को पलीता लगानेवाले युद्घक विमान वह उसे सौंप रहा है|
तो क्या अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच सैनिक बराबरी कायम करना चाहता है? क्या वह पाकिस्तान को भारत के बराबर ताकतवर बनाना चाहता है? जाहिर है कि 20-25 एफ-16 जहाज पाकिस्तान की वायु-शक्ति को भारत के बराबर नहीं बना सकते| भारत के पास पाकिस्तान के मुकाबले कहीं ज्यादा जहाज हैं और एफ-16 से भी बेहतर जहाज हैं| इसके अलावा खुद भारत 126 नए युद्घक विमान खरीदने की फिराक में है| फ्रांस, स्वीडन और रूस की कम्पनियॉं भारत को एफ-16 से भी बेहतर और सस्ते विमान देने को तैयार हैं| ऐसी स्थिति में पाकिस्तान को ज्यादा ताकतवर बनाने का तर्क भी रद्द हो जाता है| यहॉं जो तर्क प्रबल और अकाट्रय मालूम पड़ता है, वह न तो सामरिक है और न राजनैतिक है| वह है, शुद्घ आर्थिक| यह आर्थिक विवशता इतनी प्रचंड है कि इसके कारण अमेरिका की समरनीति और राजनीति भी गड़बड़ा जाए तो उसे बर्दाश्त करना होगा|
एफ-16 बनानेवाली कम्पनी ‘लॉकहीड मार्टिन’ अमेरिका के टेक्सास नामक प्रांत में है| राष्ट्रपति बुश भी टेक्सास के ही हैं| खरबों रु. पैदा करनेवाली यह कम्पनी बंद होने के कगार पर पहुंच गई है| इसके 5800 कर्मचारियों में से सौ-दो सौ की छटनी हर साल हो रही है| यदि इस साल इसे कोई बड़ा सौदा हाथ नहीं लगा तो यह निश्चित है कि इसके शेष 5000 कर्मचारी भी घर बैठ जाएंगे| अपने ही प्रांत में बुश यह कलंक का टीका अपने माथे क्यों लगने देंगे| यह बात दुनिया के किसी भी नेता पर लागू होती है लेकिन यहॉं बात काफी आगे तलक जाती है| लॉकहीड और बुश-प्रशासन के बीच गहरी सॉंठ-गॉंठ रही है, यह बात टेक्सास के अखबार जोरों से उठा रहे हैं| अमेरिकी अखबार लिख रहे हैं कि बुश जब टेक्सास के गवर्नर थे तो उन्होंने लॉकहीड को अनुचित फायदा पहुंचाने की कोशिश की थी, जिसे लोक-निंदा के कारण रद्द करना पड़ा| इसके अलावा उनके उप-राष्ट्रपति डिक चेनी की पत्नी इस कम्पनी की डायरेक्टर भी रही हैं और इस नाते उन्हें 12 लाख डॉलर भी मिले हैं| पिछले साल बुश ने इसी कम्पनी को कई सौ करोड़ डॉलर का ठेका भी दिया है| इस कम्पनी के दो पूर्व अधिकारी बुश मंत्र्िामंडल के सदस्य भी रहे हैं| लॉकहीड ने बुश के चुनाव-अभियान में अपनी थैलियों के मॅुंह भी खोल दिए थे| लॉकहीड कम्पनी के कुछ अधिकारी बुश को सीधा फायदा भी पहॅुंचाते हैं| वे अमेरिका के एक शक्तिशाली अखबार-समूह को भी नियंत्र्िात करते हैं| ऐसी हालत में बुश लॉकहीड को बचाने के लिए कुछ भी करने पर उतारू हो सकते हैं|
अगर पाकिस्तान को 20-25 एफ-16 मिल गए तो उससे लॉकहीड का कोई खास फायदा नहीं होगा, क्योंकि उसके पैसे तो 15 साल पहले ही खाए गए| लॉकहीड को उम्मीद है कि पाकिस्तान अब कम से कम 50 जहाज और मॉंगेगा, जिसका मतलब है, करोड़ों डॉलर की नई आमदनी ! इतना ही नहीं, पाकिस्तान की देखादेखी भारत भी मॉंगेगा तो अरबों डॉलर की आमदनी होगी| दूसरे शब्दों में अमेरिका मौत का सौदागर बन गया है| भारत और पाकिस्तान को वह मौत के कुऍं में ढकेल रहा है और खुद मॅुंडेर पर बैठकर डॉलरों की बंसी बजाना चाहता है|
अब यह भारत और पाकिस्तान के नेताओं को सोचना है कि 5000 अमेरिकियों का पेट भरने के लिए हम हमारे करोड़ों नंगों-भूखों का गला काटें या नहीं? भारत ने युद्घक उपकरणों की खरीद के लिए चार हजार करोड़ रु. की थैली हाथ में थाम रखी है और पाकिस्तान ने इसी काम के लिए इस्लाम, आतंकवाद, उसामा बिन लादेन आदि सभी को अपने भय की भाड़ में झांेक दिया है| यदि परमाणु बम बनाकर वह भारत के बराबर हो गया है तो अब उसे भारत से भयाक्रांत होने की क्या जरूरत है? और यदि उसके फौजी नेताओं के दीमाग में कुछ और फितूर है तो पाकिस्तान का अल्लाह ही बेली है| अगर अब भी जनरल मुशर्रफ जंग के जोर पर कश्मीर छीनने का इरादा पाले हुए हैं तो भारत को अपनी संपूर्ण रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा| इसके पहले कि यह नौबत आए, दोनों देशों को इस पुराने खलनायक से सावधान रहने की जरूरत है| अमेरिकी विदेश मंत्री कंडोलीज़ा राइस ने भारत को जो पुडि़या दी है, उसे चबाने के पहले हमें हजार बार सोचना होगा| वे कह गई हैं कि भारत को एफ-16 ही नहीं, एफ-18 जहाज देने, उसकी निर्माण-तकनीक देने और संयुक्त कारखाने खोलने को भी अमेरिका तैयार है| अमेरिका परमाणु-ऊर्जा के बंद द्वार भी खोलने को तैयार है| ये सब हसीन सपने हैं बल्कि फरेब हैं| इन्हें सच्चाई बनने में बरसों लगेंगे जबकि पाकिस्तान को उसके एफ-16 कुछ ही माह में मिल जाएंगे| हाथ का कबूतर अच्छा या सपने का मोर? सपना भी ऐसा, जो मूलत: घटिया सौदा है| अमेरिका को ज्यादा पैसे भी दो और वह कब किस वजह से डोर खींच ले, यह भी पता नहीं| इस अमेरिकी खुदगर्जी का सबसे सही जवाब यही है कि भारत उससे विमानों की सौदेबाजी में बिल्कुल न पड़े| अमेरिका यदि भारत के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है तो वह पहले भारत को परमाणु-राष्ट्र का विधिवत दर्जा दे, उसे सुरक्षा परिषद् की स्थायी सीट दिलवाए और दक्षिण एशिया में से अब नकली शक्ति-संतुलन की शतरंज को लपेटकर वापस वाशिंगटन ले जाए| इस लक्ष्य की प्राप्ति तभी होगी जब भारत और पाकिस्तान, दोनों सीधी बातचीत करें| अपनी शांति-गली को इतना संॅकरी बना लें कि उसमें कोई तीसरा समा ही न पाए| भारतीय प्रधानमंत्री की संयत प्रतिक्रिया इसी दिशा में आगे बढ़ने का संकेत दे रही है| अमेरिका से आपसी सामरिक और राजनीतिक घनिष्टता बढ़ाने में भारत का लाभ जरूर है लेकिन वह पाकिस्तान के साथ प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप बढ़े तो मानना पड़ेगा कि हम मौत के सौदागर के मोहरे बनने को राजी हो गए हैं|
Leave a Reply